दिवाली उत्सव की शुरुआत धनतेरस से होती है. इसे धन त्रयोदशी भी कहते हैं और इन्हीं नामों के कारण दिवाली का पहला दिन सिर्फ 'धन' को समर्पित रह गया है. धन सिर्फ रुपया-पैसा या संपत्ति नहीं है, बल्कि धन का अर्थ है जुड़ाव. गणित में जोड़ के चिह्न को धन कहते हैं. इसलिए धनतेरस जैसे पर्व की जब पहली कल्पना की गई होगी तब इसे लोगों के आपसी जुड़ाव के तौर पर ही देखा गया होगा. कबीलों और समूहों में रहने वाले मनुष्य ने उत्सव के लिए लोगों को एकजुट होने के लिए बुलाया और उन्हें आपस में जोड़ा और यही धनात्मक गुण इस त्योहार को धनतेरस यानि जोड़ने वाला बना देता है.
कुबेर देव का दिन है धनतेरस
धन के कारण ही यह कुबेर देवता का दिन भी है, जो कि पौराणिक आधार पर देवताओं के कोषाध्यक्ष हैं और सभी प्रकार की संपत्तियों के स्वामी हैं. इसके लिए आयुर्वेद के देवता धन्वनंतरि जिन्हें देवताओं का वैद्य कहा जाता है, उनकी भी पूजा होती है. हालांकि लोगों के घरों में धन्वंतरि की मूर्ति, तस्वीर या कोई चिह्न नहीं मिलते हैं, और संभव है कि उनकी पूजा किस तरह से की जाए इसका भी जिक्र कोई करता होगा? असल में लोगों को नहीं पता कि स्वास्थ्य जो सबसे बड़ा धन है, उसके देवता की पूजा कैसे की जाए?
शिवपूजन के लिए भी विशेष दिन
लेकिन एक आसान तरीका है, जिससे जीवन के सबसे अनमोल खजाने स्वास्थ्य की पूजा की जा सकती है. इसके लिए शिवजी की पूजा की जानी चाहिए. क्योंकि असल में धनतेरस शिवपूजन का ही विशेष दिन है. यह सबसे कम प्रचारित बात है, लेकिन पौराणिक आधार पर देखें तो सबसे सटीक फैक्ट है.
महादेव शिव की तिथि है त्रयोदशी
असल में त्रयोदशी की तिथि महादेव शिव की विशेष तिथि है. इस तिथि में हर महीने उनका प्रदोष व्रत किया जाता है. शिव इस प्रदोष काल में आरोग्य के देवता के रूप में पूजे जाते हैं. ऐसा इसलिए क्योंकि सुबह और शाम के बीच का समय बीमारियों और नकारात्मक शक्तियों के पनपने का समय होता है, क्योंकि इस वक्त वातावरण बदल रहा होता है. तब शिव अपने वैद्यनाथ स्वरूप में रहकर इन रोगों का शमन करते हैं और बीमारियों को दूर करते हैं.
हिरण्यकश्यप के वध के दौरान फैली थी नकारात्मकता
पुराण कथाओं में आता है कि जब भगवान विष्णु ने नृसिंह अवतार लेकर हिरण्य कश्यप का वध किया था, उसके कारण ही संध्या का समय नकारात्मक हो गया था. नृसिंह अवतार के दौरान भगवान विष्णु के अनियंत्रित क्रोध के कारण कई तरह की अग्नि वाली हवाएं चलीं और ज्वर (जिन्हें सामान्य भाषा में बुखार कहा गया है) प्रकट हुए. तब इस नकारात्मक स्थिति को नियंत्रित करने वाले महादेव ही थे. इसलिए सर्दी-गर्मी या बारिश कोई भी मौसम हो, बड़े-बुजुर्ग शाम के समय में विशेष ध्यान रखने की सलाह देते आए हैं.
शिवजी हैं हर विष की काट
बिल्कुल दिन ढलते नहाना, भोजन करना, सोना इन सभी का निषेध है, क्योंकि इनसे शरीर के ताप पर असर पड़ता है. इसलिए आरोग्य के स्वामी के तौर पर शिवजी का ही पूजन किया जाता है. शिवजी ही धन्वंतरि देव के आयुर्वेदाचार्य भी हैं. शिव सभी औषधियों के स्वामी हैं. संसार में दो ही प्रधान औषधियां हैं एक विष और दूसरी अमृत. शिव हर तरह के जहर की काट हैं. मेडिकल साइंस की भाषा में उन्हें एंटीडोट (विष को हरने वाले) कह सकते हैं.
वह अपस्मार (मिर्गी), अतिसार (हैजा), मतिभ्रम (हैलुसुनेशन) वायरस से होने वाली बीमारियों के सफल वैद्य हैं. एक बार पार्वती जब अपनी शक्ति से अनियंत्रित हो गईं तब शिव ने उनका उपचार कर उन्हें ठीक किया था.
शिवजी क्यों बने थे नटराज?
इसी तरह से एक दैत्य था अपस्मार, जौ बौना था लेकिन उसने ऋषियों की बुद्धि को अपने वश में कर लिया था, जिससे ऋषि अहंकारी हो गए थे. तब शिव ने अपस्मार को अपने पैरों तले दबाया और उस पर नृत्य करने लगे. इस तरह शिव नटराज बन गए. नटराज की प्रतिमा में शिव के एक पैर के नीचे एक बौने दानव की आकृति दिखती है, वही अपस्मार है. नटराज शिव का यह नृत्य तांडव कहलाया. आयुर्वेद में मिर्गी को अपस्मार ही कहते हैं.
वैद्यनाथ है शिवजी का एक नाम
इसलिए वैद्यरूपी शिव को धनतेरस के दिन जरूर पूजना चाहिए. दिवाली का पहला दिन उन्हें ही समर्पित हैं. आप चाहें तो शिवजी की पंचगव्य से पूजा कर सकते हैं और नहीं तो आप उन्हें सिर्फ जौ, सरसों के दाने, गेहूं के दाने, धान और एक कमलगट्टा अर्पित करें, इसके बाद शिवजी को एक दीपक समर्पित करें. आरोग्य के देवता शिवजी की पूजा कर इस तरह से स्वास्थ्य लाभ लिया जा सकता है.
18 अक्टूबर को है शनि प्रदोष व्रत
इस बार 18 अक्टूबर 2025 को शनि प्रदोष व्रत है. शनिवार के दिन होने वाले प्रदोष को शनि-प्रदोष कहा जाता है. शनि प्रदोष व्रत संतान प्राप्ति एवं संतान की उन्नति व कल्याण के लिए किया जाता है. शनि-प्रदोष व्रत करने से साधक को संतान सुख की प्राप्ति होती है. प्रदोष-व्रत में प्रदोषकाल का बहुत महत्व होता है। प्रदोष वाले दिन प्रदोषकाल में ही भगवान शिव की पूजन संपन्न होना जरूरी है. शास्त्रानुसार प्रदोषकाल सूर्यास्त से 2 घड़ी (48 मिनट) तक रहता है. कुछ विद्वान मतांतर से इसे सूर्यास्त से 2 घड़ी पूर्व व सूर्यास्त से 2 घड़ी बाद तक भी मान्यता देते हैं, लेकिन प्रामाणिक शास्त्र व व्रतादि ग्रंथों में प्रदोषकाल सूर्यास्त से 2 घड़ी (48 मिनिट) तक ही माना गया है.