कहानी - नीली जुराबें
जमशेद क़मर सिद्दीक़ी
मां की मुहब्बत दुनिया का वो सबसे नायाब तोहफ़ा है जो दुनिया के हर शख्स को मिलता है... लेकिन किसी किसी के हिस्से में बदनसीबी इस तरह आती है कि मां का साया सर से हट जाता है। मां का दुनिया से चले जाना एक ऐसी बदनसीबी है जिसको लफ्ज़ों में बयान नहीं किया जा सकता। आसुओं की ये एक ऐसी तहरीर है जो दुनिया के बड़े से बड़े हादसे से भी बड़ी है। ऐसी ही एक बदनसीब थी पाखी... जिसकी उम्र थी 12 साल... मुरादाबाद के लोधीपुर में अपनी बड़ी बहन के साथ रहने वाली पाखी ने अपनी अम्मी का चेहरा बार-बार उस तस्वीर में देखती थी जो घर की ड्रेसिंग टेबल के बगल वाली लकड़ी की अलमारी के अंदर रखी थी। (बाकी की कहानी नीचे पढ़ें)
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(बाकी की कहानी यहां से पढ़ें) यहां से मां उस ब्लैक एंड व्हाइट तस्वीर में आंगन में रखे गमले के किनारे खड़ी थीं। मुस्कुराती हुई। उनकी आंखों के किनारों पर लगा काजल और चेहरे की चमचमाती मुस्कुराहट में दुनिया के तमाम गम और खुशी के काले सफेद रंग थे। एक बीमारी के चलते कुछ साल पहले उसकी मां गुज़र गयी थीं। मां के जाने के बाद वो कुछ साल तो पापा के पास रही, जो खुद बीमार थे... लेकिन साल भर पहले कनिका दीदी उसे अपने साथ मुरादाबाद ले आई थीं। कनिका दीदी पाखी से 17 साल बड़ी थीं। उम्र का फासला था और बहुत पहले ही वो शादी करके उस घर से चली गयीं थी इसलिए पाखी के साथ उनकी ट्यूनिंग कभी बहनों वाली बनी नहीं थी। अभी साल दो साल पहले ही जब वो उसे मुरादाबाद लाईं तब से दोनों करीब आईं।
पाखी उठ जाओ... स्कूल के लिए लेट हो रही हो...
सुबह सुबह जब कनिका दीदी कि आवाज़ कानों में पड़ती तो पाखी चाहे जितनी गहरी नींद में हो वो जल्दी से उठकर बैठ जाती और घबराकर तैयार होने के लिए चली जाती। कनिका दीदी बहुत स्ट्रिक्ट थीं न इसलिए। जब बड़े भैय्या का दिल्ली से फोन आता तो वो पाखी से पूछते... कैसी हो पाखी... मैं आ रहा हूं... कुछ दिन पापा के पास रहूंगा... चलना मेरे साथ तुम भी... वापसी में छोड़ दूंगा तुम्हे...
ठीक है... वो कहती... फिर भाई कहते.. कुछ लाना है तुम्हारे लिए?
तो वो कहती... हां, वो वाली गुड़िया जिसे लिटाओ तो आंख बंद के सो जाती है, सुनहरे बाल होते हैं उसके... पर तभी अचानक कनिका दीदी की तरफ देखती तो उसकी आवाज़ मध्यम हो जाती।
असल में यूं तो बहनों में काफी लगाव होता है लेकिन पाखी से कनिका दीदी को खासा लगाव नहीं था। वजह उनकी उम्र थी, दोनों के बीच में उम्र का इतना फासला था कि वो एक दूसरे से उस तरह नहीं घुल मिल पाईं थी जैसे बहने होती हैं।
कनिका दीदी का मिज़ाज ऐसा था कि पूरे मोहल्ले में उनकी गुस्सैल आंखें बच्चों के बीच मशहूर थीं। बाहर क्रिकेट खेलते हुए बच्चों की गेंद कभी आंगन में आ जाती तो कोई दरवाज़ा खटखटाकर बॉल मांगने नहीं आता था। आखिर किसमें हिम्मत थी कि एक बॉल के लिए कनिका दीदी की गुस्सैल आवाज़ में डांट सुनें। उनके तो सामने जाते ही बच्चे थर्र-थर्र कांपने लगते थे। पाखी की किस्मत तो ऐसी थी कि उसे उसी घर में दादी के साथ बिताना होता था... बेचारी डरी डरी सी किसी तरह वक्त काटती थी और दुआ करती थी कि उससे कोई गलती न हो। पर लाख कोशिशों के बावजूद कुछ न कुछ हो ही जाता।
ये क्या... ये जूतों में मिट्टी कैसे लगा ली... पानी में कूदती हुई आई हो ना... इधर देखो... वो चीखकर कहतीं तो पाखी की आंखों में आंसू आ जाते और वो थर्र थर्र कांपने लगती। खाना खाते वक्त कभी एक चम्मच दाल कपड़े पर गिर जाए तो पाखी की जान सूख जाती थी कि अब तो कयामत आ जाएगी।
कनिका उस तरह से बुरी नहीं थी, जैसा आप समझ रहे हैं... बस उनका मिज़ाज सख्त था... शायद ऐसा इसलिए था क्योंकि वो शुरु से छोटे बच्चों को स्कूल में पढ़ाती थीं। और बच्चों को डांटते डांटते उनका मिज़ाज ऐसा हो गया था। हालांकि ये बात पाखी नहीं जानती थी कि उसके सोने के बाद कभी कभी कनिका दीदी उसके बगल में लेट कर उसके माथे पर हाथ फिराती थी और तब उनकी मां को याद करते हुए उनकी आंखों में आंसू उतर आते थे।
सर्दियां आहिस्ता आहिस्ता दस्तक दे रही थी... पेड़ों पर ने फूल आने लगे थे। एक सुबह जब पाखी घर में पले दो खरगोश के पिंजड़े में अपने नन्हें नन्हें हाथों से खाना रख रही थी कि तभी उसे कनिका दीदी की आवाज़ सुनाई दी...
पाखी....
पाखी तेज़ कदमों से आवाज़ की तरफ गयी। देखा तो दीदी आंगन में खड़ी थी और प्रशांत यानि कनिका के पति मोटरसाइकल स्टार्ट कर रहे थे। दीदी ने कहा, पाखी वो... अंदर चले जाओ कमरे में बड़ा वाला बक्सा है न... उसमें एक मफलर होगा... वो ले आओ... शाम को लौटते वक्त ठंड हो जाएगी, जाओ ले आओ...
पाखी दूसरी मंजिल पर बनी कोठरी में चली गई। गर्म कपड़ों के ट्रंक के ऊपर रखी टोकरी-डलियों और दो चार बोरियों को हटाकर पाखी ने मुश्किल से गर्म कपड़ों वाला भारी ट्रंक खोला। उसने गर्म कपड़ों में से मफलर को तलाशना शुरू किया। थोड़ी ही देर में कुछ कपड़ों के नीचे मफलर दबा दिख गया। मफलर निकालकर वो ट्रंक बंद ही कर रही थी कि उसे एक ऐसी चीज़ दिख गई... वो चीज़ थी... नीले रंग के जुराबे... मां के हाथ के बुने हुए।
पाखी उन नीले जुराबों पर उंगलियां फिराने लगी। असल में पाखी को याद था कि उसकी मां अपने आखिरी दिनों में बिस्तर पर लेटे लेटे ऊन के गोले लिए मफलर और जुराबे बिना करती थीं। वो लाल फूल वाली नीली जुराबें जब वो बिन रही थी तभी उन्होंने कहा था कि ये जुराबें वो पाखी के लिए बिन रही हैं। पाखी उन जुराबों को हसरत से देखती थी। वो नीले रंग के जुराबे जिन पर पीले बॉर्ड़र थे... एक फूल भी बना हुआ था। पर जुराबें बनने के बाद... सर्दियां आने से पहले ही मां गुज़र गयीं... और इसके बाद के हालात की आपा-धापी में वो जुराबें और मां का सारा सामान कनिका दीदी को मिल गया। पाखी कभी कह ही नहीं पाई कि ये जुराबें उसकी हैं। इतनी हिम्मत वो कभी जुटा नहीं पाई।
पाखी... कहां रह गयी...
दीदी की आवाज़ आंगन से फिर से गूंजी तो वो हड़बड़ा कर मफलर लेकर भागी। इन जुराबों के बारे में तो शायद कनिका दीदी खुद भी भूल गयी थीं। देखो तो कोई बहुत खास चीज़ नहीं थी। लेकिन ये पाखी के लिए दुनिया की सबसे खूबसूरत और कीमती चीज़ थी... एक ऐसी चीज़ जिन् जब वो नम आंखे लिए अपने गालों पर लगाती थी तो लगता था कि मां उसका चेहरे को छू रही हैं। उसे याद आती थी मां की वही वही नर्म, गुनगुनी छुअन... उसे लगता था जैसे उसकी मां उसके पास हैं।
उस दिन के बाद से पाखी बहाने से उसी कोठरी के आसपास मंडराती रहती। वो मासूम फिर से अम्मी की आखिरी निशानी को गाल पर लगाना चाहती थी। लेकिन कनिका दीदी के गुस्से के डर से वो फिर से वो संदूक खोल पाने की हिम्मत नहीं कर पा रही थी। उस रात ख्वाब में भी पाखी को अम्मी अपना वही नीले जुराबे बुनते हुए दिखाई दी। कुछ दिनों तक पाखी के जहन पर उन नीले जुराबों का ख्याल भारी रहा।
एक बार को पाखी ने सोचा की कनिका दीदी से कहे कि वो उसे ये जुराबें दे दें। उसने कहने की कोशिश भी की। लेकिन जब भी वो जुराबें लफ्ज मुंह से निकालती कनिका दीदी किसी न किसी बात पर डांट देती। “जुराबें?? कौन सा जुराबें? वो छोड़ तू ये बता तूने ये अपना स्वैटर कैसे इतना मैला कर लिया? धूल में लोट रही थी क्या? ” डांट पड़ती देख पाखी वहां से खिसक जाती।
एक दिन जब कनिका दीदी महीने का राशन लेने के लिए सदर बाज़ार गयीं तो मौका देखकर पाखी संदूक के पास पहुंच गई। उसने एक बार फिर संदूक को खोला और सामने नीले रंग की वही प्यारी सी जुराबें रखी थीं. उसने कांपते हुए हाथों से जुराबों को थामा... तो उसके चेहरे पर शिकन आने लगी... आंखों में आंसू उमड़ने लगे। उसने उन्हें अपने सीने से लगाया और उन्हें नाक के पास लाकर उसकी खुश्बू महसूस करने लगी। उस खुश्बू से उसे लग रहा था कि जैसे मां उसके पास बैठी हैं। और प्यार से उसके सर पर शफकत से हाथ फेर रही हैं।
उस एक पल में पाखी को जाने कौन कैन से लम्हें याद आए। मां जब उसे अपने हाथ से खिलाती थीं। जब स्कूल जाने से पहले उसकी चोटियां गूंधती थीं। जब उसे प्यार करती थीं। रात को अपने बगल में लिटाकर उसे कहानियां सुनाती थीं। उसे आज मां की वो महक भी याद आई जो आखिरी दिनों में वो मां के पास से महसूस करती थी। दवाओं की महक... आज उसे वो महक भी कितनी अच्छी लग रही थी। उसकी आंखों से झड़ते हुए आंसुओं के मोती उसकी फ्राक पर गिरने लगे।
पाखी... दरवाज़ा कैसे खुला है ये.... कहां हो...
तभी उसे कनिका दीदी की आवाज़ सुनाई दी... वो हड़बड़ाई, जल्दी से जुराबें अपनी फ्रॉक की जेब में रखी, संदूक बंद करके लाल आंखे लिए हुए बाहर चली गयी।
उस दिन के बाद से पाखी के मिज़ाज में एक अजीब सा बदलाव आ गया। वो बहुत खुश रहती थी। जो भी कपड़े पहनती थी उसमें उन नीले जुराबों को छुपाए रहती। स्कूल बैग की किनारे वाली उस गुलाबी जेब में रखकर स्कूल भी ले जाती थी और इंटरवेल या कभी कभी तो पीरिड्स के बीच में भी उन जुराबों को निकलकर हाथ में पकड़ती और मुस्कुराती... फिर वापस अंदर रख देती।
वो बहुत खुश रहती थी। उसे ऐसा लगता था कि जैसे उसके साथ उसकी मां हैं लेकिन ये बात सिर्फ उसे पता है। ये उसका एक सीक्रेट था... जिसे कोई नहीं जानता था। कनिका दीदी तो बिल्कुल भी नहीं। अब वो उन जुराबों को लिए खूब फुदकती, यहां वहां खेलती...बाहर जाती... खुश रहती थी... हां बस रात में सबकी नज़र बचाकर उन जुराबों को अपनी तकिया के नीचे रख लेती थी और फिर उसकी तकिया धीरे –धीरे आंसुओं से भीगने लगती।
एक सुबह वो सो कर उठी तो देखा कि आंगन में दिल्ली वाले भैया आए हुए हैं।
पाखी... कैसी हो...
भैय्या आप.. कब आए
अभी आया... कैसी हो तुम...
पाखी बहुत खुश थी। ये सोचकर कि अब वो भैय्या के साथ पापा वाले घर पर जाएगी और कुछ दिन वहीं रहेगी। वहां वो उन जुराबों को बिना किसी डर के पहन सकती थी। उससे कोई नहीं पूछता कि ये कहां से आए... किसके हैं... संदूक क्यों खोला... वगैरह वगैरह.... उसकी खुशी सातवें आसमान पर थी। पाखी भाई के साथ घर आ गयी और आते ही पापा से मिलने के बाद उसने जल्दी से वो जुराबें निकाली और पहन ली... फिर तो वो पूरे घर में तितली की तरह उड़ती फिर रही थी। वो मां के उस खाली पलंग पर भी लेटी... जहां लेट कर उसने न जाने कितनी कहानियां सुनी थीं।
एक सुबह जब पाखी नीले जुराबे पहने आंगन से गुज़र रही थी तो उसने देखा कि भाई ने आंगन में बहुत सी पुरानी लकड़िया रखी हुई थीं। वो पापा के लिए सर्दियों में हाथ तापने के लिए लकड़ी का इंतज़ाम कर रहे थे। ऊपर वाले बरामदे में रखी पुराने फर्नीचर को तोड़ कर बनाई गयी लकड़ियां आंगन में आढ़ी-तिरछी पड़ी थीं। पाखी घर में दौड़ भाग कर रही थी कि तभी उसने उन लकड़ियों से होकर गुज़रने का सोचा... बचपन का चंचल मन उसे ऐसा करने को उकसा रहा था। वो आगे बढ़ी और लकड़ी पर पैर रखकर गुज़रने लगी लेकिन तभी लकड़ी में लगी एक छोटी सी कील... उस नीले जुराब में फंसी और वो गिर पड़ी.... आंगन में ज़ोर की आवाज़ हुई। उसने देखा तो कोहनी पर चोट लगी हुई थी वो जुराब.... जुराब तो पूरी तरह फट गया था।
पाखी की सांसे थमने लगीं। उसने जल्दी से जुराब देखा ... उसका ऊन फट गया था... वो घबरा गयी कि अब क्या करेगी। आंखों में आंसू आ गए।
क्या गिरा, कुछ गिरा क्या पाखी.... तभी भैया ने आंगन में आकर पूछा तो वो
नहीं, नहीं तो.. कुछ नहीं कहते हुए बाहर चली गयी। पाखी बहुत परेशान थी कि अब क्या करेगी। अगर कनिका दीदी को पता चला तो वो तो उसको जमकर डांट लगाएंगी... हो सकता है पीट भी दें। वो इतनी डर गई थी कि वापस कनिका दीदी के यहां जाना नहीं चाहती थी। उसने पापा को खूब मनाया, भाई से मिन्नतें की, लेकिन पापा के यहां पाखी का ख्याल कौन रखता? भाई तो कुछ रोज में दिल्ली लौट रहे थे।
वापसी के वक्त बस में भी पाखी खोई-खोई बैठी रही। वो बहुत पछताती रही कि उसने जुराबें चुरायी ही क्यों। दीदी तो किसी गलती के लिए नहीं बक्शती। छोटी-छोटी बात पर भी डांटती हैं, ये तो बहुत बड़ी बात है। जब मां थीं तो उन्होंने भी उसे समझाया भी था कि चोरी करना बुरी बात होती है। चोरी करने वाले नर्क की आग में जलते हैं। छोटी सी पाखी का मन ये सब सोच कर उदासी और घबराहट से भर गया। घर पहुंचते-पहुंचते पाखी को बुखार चढ़ आया। कनिका दीदी ने भाई को समझाया कि सफर की थकान से बुखार हो गया होगा, आराम करेगी तो ठीक हो जाएगा। कनिका दीदी से ज्यादा बच्चे संभालना कौन जानता होगा भला? बस यही सोचकर भाई वापस चले गए। वो दरवाज़े तक पहुंचे ही थे कि पाखी उनके पास आई और उनका हाथ पकड़ लिया। इस बार पाखी ने कुछ कहा नहीं, बस उसकी आंखें आसुओं से डबडबा रही थी। भाई ने उसके सर को चूमा और चले गए।
कुछ दिन बीत गए .. लेकिन जो नहीं बीता, वो पाखी का बुखार था। पाखी जबसे लौटी थी बस बिस्तर पर लेटी रहती। बुखार बीच में थोड़ा उतर भी जाता, तो भी पाखी बिस्तर न छोड़ती। हां, इस बीच उसने मौका पाकर और हिम्मत करके उन फटे हुए जुराबें को तय करके वापस संदूक में रख दिया था। गर्म कपड़ों में सबसे नीचे छिपाकर।
सफर की थकान का बुखार इतने दिन थोड़ी टिकता है? कनिका दीदी पाखी को डॉक्टर के पास ले गई। दवा दिलाकर लाई। लेकिन पाखी की सेहत दिन ब दिन गिर ही रही थी। to be continued...
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