फ़ैंसी हेयर कटिंग सलून
गुलाम अब्बास की लिखी कहानी
आबादियों की अदल बदल ने एक दिन एक अजनबी शहर में चार हज्जामों को इकट्ठा कर दिया। वो एक छोटी सी दुकान पर चाय पीने आए। जैसा कि क़ायदा है हम-पेशा लोग जल्द ही एक दूसरे को पहचान लेते हैं। ये लोग भी जल्द एक दूसरे को जान गए। चारों वतन से लुट लुटाकर आए थे। जब अपनी कहानी सुना चुके तो सोचने लगे कि अब करें तो क्या करें। थोड़ी बहुत पूँजी और अपनी-अपनी किस्मत... बस यही सबके पास थी। सबकी राय-शुमारी के बाद तय ये हुआ कि चारों मिलकर एक दुकान लें। और मिलकर काम शुरू करें। (बाकी की कहानी नीचे)
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ये बंटवारे की शुरुआत का ज़माना था। शहरों में अफ़रातफ़री फैली हुई थी। तमाम कारोबार ठंडे पड़े हुए थे। इन हज्जामों को दुकान के लिए काफ़ी दौड़ धूप करनी पड़ी। वो कई दिन तक सरकारी दफ़्तरों के चक्कर काटते रहे और छोटे-छोटे अफ़सरों, क्लर्कों और चपरासियों तक को अपनी दुख-भरी कहानी बढ़ा-चढ़ा कर सुनाते रहे। आख़िरकार एक अफ़सर का दिल पसीज गया और उसने इन चारों को शहर के एक अहम चौक में एक दुकान दिला दी। ये दुकान पहले ही एक सलून हुआ करता था जिसे उसका मालिक शहर में हंगामे के बाद बंद कर के चला गया था। दुकान ज़्यादा बड़ी तो नहीं थी पर उसके मालिक ने इसमें अच्छा-ख़ासा सैलूनों का सा ठाठ-बाठ कर रखा था। दीवारों के साथ-साथ लकड़ी के तख़्ते जोड़ ऊपर संग-ए-मरमर की लंबी-लंबी सिलें जमा, टेबल से बना लिए थे। तीन एक तरफ़ और दो एक तरफ़। हर एक टेबल के साथ दीवार में जड़ा हुआ एक बड़ा आईना था और एक ऊँचे पायों की कुर्सी जिसके पीछे लक्कड़ी का गद्दीदार स्टैंड लगा हुआ था। कस्टमर ठिंगने क़द का हुआ तो स्टैंड को नीचे सरका लिया। लंबे क़द का हुआ तो ऊँचा कर लिया और गद्दी पर उसके सर को टिका, मज़े से डाढ़ी मूँडने लगे। ज़रूरत की ये सब चीज़ें मुहय्या तो थीं मगर ज़रा पुराने फ़ैशन की और टूटी फूटी। आइने, कुर्सियां, काउंटर, कंघियां रखने के लिए दराज़ें... उन्हें खुशी थी कि सारा सामान बना बनाया ही मिल गया।
उनमें से एक जो उम्र में सबसे बड़ा था और उस्ताद कहलाता था, उसने कुछ फिक्स्ड गाहक बाँध रखे थे जिनके घर वो हर-रोज़ या एक दिन छोड़कर डाढ़ी मूँडने जाया करता था। उससे उम्र में दूसरे दर्जे पर जो हज्जाम था उसने रेलवे स्टेशन के प्लेटफार्म और लारियों के अड्डे सँभाल रखे थे। और दूसरे दो हज्जाम जो कम उम्र थे, डेढ़ डेढ़ रुपये दिहाड़ी पर कभी किसी दुकान में तो कभी किसी दुकान में काम किया करते थे। अब अचानक क़िस्मत ने उन लोगों को ज़िंदगी में पहली बार आज़ादी और ख़ुद-मुख़तारी का ये मौक़ा मिला तो ज़ाहिर है वो बहुत ख़ुश थे।
सबसे पहले उन लोगों ने बाज़ार से एक कूची और चूना लाकर ख़ुद ही दुकान में सफ़ेदी की और उसके फ़र्श को ख़ूब धोया पोंछा। उसके बाद पुराने कपड़ों के दो तीन गट्ठर सस्ते दामों ख़रीदे और अपने लिए दो-दो तीन-तीन जोड़े तैयार कर लिए। इसके इलावा एक चादर की भी ज़रूरत थी जिसे बाल काटने के वक़्त गाहक के जिस्म पर गर्दन से नीचे-नीचे लपेटना ज़रूरी होता है। ये ज़रा मुश्किल काम था मगर उन लोगों ने सायों। जम्परों। कोटों और पतलूनों को फाड़ कर जैसे-तैसे दो चादरें बना ही लीं। कपड़ों के इसी ढेर में उन्हें रेशम का एक स्याह पर्दा भी मिला जिसमें सुनहरे रंग में तितलियाँ बनी हुई थीं। कपड़ा था तो बोसीदा मगर अभी तक उसमें चमक-दमक बाक़ी थी। उसे एहतियात से धो कर दुकान के दरवाज़े पर लटका दिया।
अपने-अपने औज़ार सब के पास थे ही, उनकी तो फ़िक्र न थी। हां बस थोड़े-थोड़े दामों वाली कई चीज़ें ख़रीदी गईं। जैसे स्लोलाइड के प्याले साबुन के लिए, डाढ़ी के ब्रश, फिटकरी, छोटी बड़ी कंघियाँ, तौलीए, दो तीन तेज़ ख़ुश्बू वाले देसी तेल, एक घटिया दर्जे की क्रीम की शीशी, एक सस्ता सा पाउडर का डिब्बा। इसके अलावा कबाड़ियों की दुकानों से विलाएती लवेन्डर की टेढ़ी तिरछी ख़ाली शीशियाँ ख़रीद और उनमें सरसों का तेल भर दिया।
दुकान की सजावट की जमकर की। पुरानी तस्वीरें हटाकर उनकी जगह एक पुराने अमरीकन फिल्मों के रंगदार पोस्टर लगाए। एक बड़ा सा कैलेंडर भी दीवार पर टाँग दिया।
कीमतें कम ही रखी थीं। एक गत्ते पर इंक से हजामत की अलग अलग किस्मों और उनके दाम लिखकर लटका दिया गया। पहले हज्जाम ने इस दुकान का नाम “फैंसी हेयर कटिंग सैलून” रखा था। ये नाम दुकान की दरवाज़े के ऊपर अंग्रेज़ी और उर्दू दोनों ज़बानों में लिखा हुआ था। जिस रोज़ बाक़ायदा तौर पर दुकान का इफ़्तिताह यानि इनॉग्रेशन होना था, उन्होंने एक दूसरे की हजामतें बनाईं। नहाए धोए, तैयार हुए, उस्तरों को धार भी दी और दुकान को अगरबत्तियों की ख़ुश्बू से महका दिया
पहली शाम कुछ ज़्यादा कामयाबी नहीं मिली। कुल पाँच गाहक आए। तीन शेव और दो बाल कटाई के। मगर ये लोग मायूस नहीं हुए। हर गाहक का पुरजोश स्वागत किया। उसको बिठाने से पहले कुर्सी को दुबारा झाड़ा पोंछा। उसकी टोपी पगड़ी या कोट ले कर एहतियात से खूँटी पर टाँग दिया। डाढ़ी के बाल नर्म करने के लिए देर तक ब्रश से झाग को फेंटा। बड़े नर्म हाथ से उस्तरा चलाया।
एक हज्जाम को लगता था कि बाल काटने में ज़्यादा वक़्त लगाया जाये, तो गाहक ख़ुश होता है। इसलिए उसने एक बार बाल तराशने के बाद दोबारा तराशने शुरू कर दिए। बाद में, कस्टमर के सर में तेल डाल हल्के-हल्के मलना शुरू किया। गाहक को अच्छा लगा तो उसने बख़्शिश भी दे दी। उस शाम काम की कमी के बावजूद उन लोगों ने देर तक दुकान खुली रखी। फिर दुकान बढ़ाने के बाद भी वो देर तक जागते रहे और हंसी मज़ाक़ की बातें करते रहे।
दूसरे दिन दफ़्तरों में कोई छुट्टी थी। सुबह को आठ बजे ही से गाहक आने शुरू हो गए। दस बजे के बाद तो ये कैफ़ियत हो गई कि एक गया नहीं कि दूसरा आ गया। फिर बाज़ दफ़ा तो तीन-तीन कारीगर एक ही वक्त में काम में मसरूफ़ रहे। रात को दुकान बढ़ाकर हिसाब किया तो हर एक के हिस्से में तक़रीबन चार चार रुपय आए। तीसरे रोज़ फिर मंदा रहा। मगर चौथे रोज़ फिर गाहकों की गहमागहमी देखकर चारों को यक़ीन हो गया कि दुकान चल निकली है।
ये लोग इस अजनबी शहर में अकेले ही आए थे। लिहाज़ा रात को फ़र्श पर बिस्तर जमा कर दुकान ही में सो जे थे। एक छोटी सी अँगीठी, एक केतली और दो तीन रोग़नी पिर्च प्यालियाँ ख़रीद लीं। सुबह को दुकान ही में चाय बनाते और नाश्ता करते। दोपहर को होटल से दो एक क़िस्म के सालन और रोटियाँ ले आते और चारों मिलकर पेट भर लेते।
दुकान को शुरु हुए अभी आठ दिन ही हुए थे कि एक दिन एक अधेड़ उम्र का दुबला-पतला शरीफ़ सूरत का आदमी दुकान में दाख़िल हुआ। उसके कपड़े मैले थे। सर पर मुंशी लोग जैसी पगड़ी थी। पाँव में जूता और डाढ़ी बढ़ी हुई। काले सफेद बाल थे और एक घटिया दर्जे की ऐनक लगाए था जिसकी एक कमानी टूटी हुई थी और उसे धागे से जोड़ रखा था। उन लोगों ने उसे कुर्सी पर बैठने को कहा। पहले तो वो झिजका मगर फिर बैठ गया।
एक हज्जाम ने पूछा, “शेव?”
उसने कहा, “नहीं।”
“बाल?”
“नहीं।”
“तो फिर क्या चाहते हो?” उस्ताद ने पूछा।
“मेहरबानी कर के मेरे नाख़ुन काट दो” उसने कहा।
नाख़ून कटवाने के बाद भी वो शख़्स वहीं बैठा रहा। आख़िर जब उन लोगों ने बार-बार उसकी तरफ़ सवालिया नज़रों से देखा तो उसने कहना शुरू किया “साहब में एक ग़रीब मुहाजिर हूँ। मैं अपने वतन में एक बनिए का मुंशी था। उसके यहाँ राशन कार्डों की पर्चियाँ लिखा करता था और हिसाब किताब का काम भी किया करता था। वतन छूटा तो ये रोज़गार भी छूट गया। इस शहर में कई दिन से बेकार फिर रहा हूँ। कई जगह नौकरी की तलाश में गया मगर हर जगह पहले ही से मुंशी मौजूद थे। अगर आप मुझे कोई काम दिलवा दें तो उम्र-भर एहसान न भूलूँगा मैं। इस बेकारी से ऐसा तंग आ गया हूँ कि जो काम भी मुझे बताएँगे, दिल-ओ-जान से करूँगा। हिसाब किताब के काम के अलावा में खाना पकाना भी जानता हूँ।”
उसकी बात सुनकर ये लोग थोड़ी देर ख़ामोश रहे और आँखों ही आँखों में एक दूसरे से सलाह करते रहे। आख़िरकार उस्ताद ने ज़बान खोली “देखो मियाँ हम ख़ुद यहां के नहीं हैं, और नया-नया काम शुरू किया है। तनख़्वाह तो हम तुमको दे नहीं पाएंगे। हाँ तुम ऐसा कर सकते हो कि खाना दोनों वक़्त हमारे साथ खाओ। बल्कि ख़ुद ही पकाओ। क्योंकि तुम हमारे भाई हो। बस अपनी दुकान को झाड़ पोंछ दिया करना। फिर जब कहीं तुम्हारा काम बन जाये तो शौक़ से चले जाना, हम रोकेंगे नहीं।” उस शख़्स ने बड़ी ख़ुशी से उनकी ये शर्त मंज़ूर कर ली। शुक्रिया अदा किया और वहीं रह पड़ा।
दूसरे दिन बाज़ार से एलूमीनियम की एक देगची और कुछ बर्तन ख़रीदे गए और दुकान में हंडिया पकने का सामान होने लगा। वो आदमी खाना बहुत ज़ायकेदार बनाता था और झाड़ने पोंछने में वो काफ़ी चुस्त था। बाज़ार से सौदा भी दौड़ कर ले आता था। सच ये कि एक शख़्स जो आठ-पहर गु़लामी करने को तैयार था। ख़त लिख सकता था। हिसाब किताब जानता था। चारों मालिकों से अदब से पेश आता था - इसलिए दो वक़्त की रोटी पर वो कोई महंगा नहीं था।
बहरहाल, यूँ ही दिन गुज़रते गए। यहाँ तक कि दुकान खुले दो महीने हो गए। इस दौरान दुकान ने ख़ासी तरक़्क़ी कर ली। उन लोगों कुछ नया फ़र्नीचर और शैम्पू के लिए बेसिन वग़ैरा भी लगवा लिया था और थोड़ी-थोड़ी रक़म हर एक ने बचा भी ली थी। दुकान का तीसरा महीना चल रहा था। एक सुबह पहले हज्जाम जो कि सबका उस्ताद था उसको अपने बीवी बच्चों की याद सताने लगी। दोपहर होते-होते वो ठंडे-ठंडे साँस लेने लगा। शाम तक उसकी उदासी और भी बढ़ गई। उसने अपने साथियों से चार दिन की छुट्टी ली और बीवी बच्चों को ले आने के लिए रवाना हो गया। जो कोई दो सौ मील दूर किसी शहर में अपने किसी रिश्तेदार के दरवाज़े पर मेहमान बने पड़े थे। अब वो उन्हें इसी शहर ला सकता था क्योंकि उसके पास पैसा आ गए थे।
उस्ताद ने चार दिन में लौट आने का पक्का वादा किया था और बड़ी-बड़ी क़समें खाई थीं। मगर वापसी में पंद्रह दिन लग गए। बीवी बच्चों को तो स्टेशन के मुसाफ़िर-ख़ाने में छोड़ा, और ख़ुद दुकान पर पहुँचा। उसने अपने साथियों को बताया कि वो बीमार हो गया था और वो तकलीफ़ें भी बयान कीं जो बीवी बच्चों को यहाँ तक लाने में उसे उठानी पड़ीं। आख़िर में उसने ख़र्च की तंगी का ज़िक्र किया और रुपया क़र्ज़ मांगा।
ये बात तो ज़ाहिर ही थी कि जितने रोज़ उस्ताद ने दुकान में काम नहीं किया था इतने रोज़ की आमदनी में उसका कोई हिस्सा न था। और फिर एक कारीगर के कम हो जाने से आमदनी भी निसबतन कम ही हुई थी। मगर मुरव्वत की वजह से उसके साथियों ने अपनी-अपनी जेब से पाँच-पाँच रुपय निकाल कर उसके हवाले कर दिए। पंद्रह रुपय उस्ताद की जरूरतों के मुक़ाबले में बहुत ही कम थे। मगर वो चुप-चाप ये रक़म लेकर चला गया।
दूसरे दिन से फिर चारों आदमी काम करने लगे। अब तक तो उनका ये रूल रहा था कि कस्टमर्स से मिले पैसे वो अपनी-अपनी जेब में रखते और रात को सारी रक़म जेबों से निकाल कर एक जगह रखते और फिर बराबर-बराबर बांट लेते। दुकान के रख-रखाव, टूट-फूट और अपने और नौकर के खाने पीने पर जो रक़म ख़र्च होती उसमें वो चारों बराबर के साथी थे। मगर उस्ताद ने दूसरे ही दिन बातों-बातों में अपने साथियों से कह दिया कि भई मैं बीवी बच्चों वाला हूँ। परदेस का मुआमला है, उनको अकेला कैसे छोड़ सकता हूँ। इसलिए रात को मैं उनके पास सोया करूँगा और दूसरा ये कि खाना भी मैं उनके साथ ही खाया करूँगा। आज से तुम खाने पीने के ख़र्च में से मेरा नाम निकाल दो... और भाईयों ये कैसे हो सकता है कि मैं तो तुम्हारे साथ ख़र्च करूँ और उधर घर पर भी। उसके साथी ये बात सुनकर ख़ामोश हो रहे। अब उस्ताद दोपहर को खाना खाने घर चला जाता। जो उसने क़रीब ही कहीं ले लिया था। दो घंटे बाद लौटता। रात को वो जल्द ही दूकान बढ़वाकर, अपना हिस्सा ले चलता बनता।
कोई हफ़्ता भर तक तो यही सिलसिला रहा। मगर उसके बाद उस्ताद के तीनों साथियों के तौर एक दम बदल से गए। अब वो अक्सर आपस में खुसर-फुसर करते और चुपके-चुपके उस्ताद की हरकतों को ग़ौर से देखते रहते। खास तौर पर उस वक़्त जब हजामत के बाद उस्ताद गाहक से पैसे वसूल करता। वो कनअँखियों से देखते रहते कि उस्ताद पैसे किस जेब में डालता है।
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