एक शायर की ख़ुदकुशी
राइटर - जमशेद क़मर सिद्दीक़ी
रात के ग्यारह साढ़े ग्यारह बजे का वक्त था, मलिहाबाद की एक कच्ची सड़की पर, जिसके दोनों तरफ तरतीब से खड़े आम के पेड़ों की लंबी कतार थी, और जिनकी सुरमई परछाईं चांदनी रात में सड़क पर धब्बों की तरह लग रही थी। रात के उस खामोश पहर में वो सड़क, दो लोगों के कदमों की बेचैन चरमराहट से गूंज जा रही थी। एक मैं था और एक मेरी पत्नी यासमीन, डॉ यासमीन। (बाकी की कहानी पढ़ने के लिए नीचे स्क्रॉल करें या फिर इसी कहानी को जमशेद क़मर सिद्दीक़ी से सुनने के लिए ठीक नीचे दिए गए SPOTIFY या APPLE PODCAST के लिंक पर क्लिक करें)
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“बस अब ज़्यादा दूर नहीं है, अगले मोड़ से राय साहब का बंग्ला दिखने लगेगा” मैंने तेज़ कदम बढ़ाते हुए यासमीन की तरफ देखते हुए कहा, तो उसने ‘हम्म’ से मेरे सवाल का जवाब दिया। ये उन्नीस सौ पचासी के आसापस का क़िस्सा है, जब हिंदुस्तान में ग्यारह साढ़े ग्यारह बजे कस्बाई इलाकों में लोगों की आधी-आधी नींद हो जाती थी। मैं यासमीन का मेडिकल बॉक्स संभाले हुए उसके साथ-साथ चल रहा था लेकिन मेरे चेहरे पर कोई एहसास नहीं थे, मैं बुझे हुए आसामान और दूर से आती, किसी धार्मिक कथा की हल्की-हल्की आवाज़ को सुन रहा था। पर मैं ग़ौर कर रहा था कि यासमीन के कदमों में एक लड़खड़ाहट थी, बदहवासी थी। वो बस जल्दी से जल्दी राय साहब के बंग्ले पर पहुंच जाना चाहती थी।
“बेकार ही तुमने हां कर दिया” मैंने रास्ते की खामोशी को तोड़ने के लिए कहा, “मना कर देती। इतनी रात में कौन जाता है, किसी मरीज़ को देखने। माना कि तुम्हारा पुराना पेशेंट है लेकिन फिर भी...” यासमीन ने कोई जवाब नहीं दिया। वो तेज़ कदम चलती रही। कुछ देर बाद एक मोड़ मुड़ने पर सामने दिखती हल्की रौशनी की तरफ देखकर बोली, “लाइट तो जल रही है, लगता है राय साहब बाहर ही इंतज़ार कर रहे हैं…”
हम दोनों एक बड़ी सी सफ़ेद गुंबद वाली हवेली के सामने पहुंचे जिसमें एक बड़ा सा लकड़ी का नक्काशीदार दरवाज़ा था। किनारे मटमैली दीवारों पर बड़े-बड़े ताक ढले थे, उस पुरानी हवेली की दीवारें पर दरारों में कुछ जंगली पौधे उग आए थे। उस बड़े दरवाज़े से अंदर एक घास का मैदान और फिर बड़े-बड़े दर थे जिनसे होकर हवेली के आलीशान मेहराबनुमा कमरे शुरु होते थे। दरवाज़े पर सफेद कुर्ता-पायजामा पहने राय साहब कंधे पर बादामी पशमीना डाले बेसब्री से हमारा इंतज़ार कर रहे थे। इंतज़ार में इधर से उधर पैदल चलते हुए वो हांफने लगे थे।
“आइये डॉ यासमीन, आइये, बहुत बहुत शुक्रिया आपका... गाड़ी मैंने असल में लखनऊ भेजी हुई है दवा लाने के लिए, वरना ज़रूर भेज देता... चलिए जल्दी अंदर चलते हैं.. हालत फिर बहुत खराब हो गयी है यक्षित की…” कहते हुए हम तीनों हवेली के अंदर दाखिल हुए और एक बड़े से दालान से गुज़रते हुए जिसके गलियारे में दोनों तरफ पुरानी हाथ की बनी पेंटिग्स थी, वहां से होकर पीली दीवारों वाले एक बड़े से कमरे के दरवाज़े के पास पहुंचे। वो दरवाज़ा कांच का था उस पर सुनहरे घुमावदार हत्थे थे और किनारे बड़ी-बड़ी खिड़कियां सफेद तहों वाले पर्दों से ढकी थीं।
“आइये...” कहते हुए राय साहब जैसे ही आगे बढ़े। यासमीन ने हाथ से हम दोनों का रास्ता रोका। फिर इशारा से मुझे और राय साहब को वहीं रुकने के लिए कहा। “जी” कहते हुए राय साहब और मैं, हम दोनों वहीं रुक गए।
हम दरवाज़े के पास रखे एक घुमावदार लकड़ी के दीवान पर बैठ गए और कांच से उस तरफ कमरे को अंदर देखने लगे। मुझे अंदर उस ऊंचे बिस्तर पर लेटा हुआ, सोलह-सतरह साल का यक्षित दिख रहा था... और साथ ही उसका कांपता हुआ जिस्म भी। बिस्तर के किनारे एक मशीन लगी थी जिसकी स्क्रीन पर तमाम आड़ी-तरछी लकीरें उभर रही थीं और लाल-पीली बत्तियां जल-बुझ रही थीं। मशीन से निकली कुछ मोटी-पतली नलियां यक्षित के जिस्म से जुड़ी हुई थीं। पर उसे ठीक से सांस नहीं आ रही थी... वो बेइंतिहा तकलीफ में लग रहा था। मैं उसके गले पर उभरी हुई नीली नसें देख पा रहा था। जो बता रही थीं कि दर्द उसके खून में बह रहा है। उसके खून में ज़िंदगी की रवानगी को मौत धीरे-धीरे अपनी आगोश में ले रही थी। वो सांस लेने की जद्दोजहद में अपने बिस्तर से हर बार कुछ उठ जाता था। उसके होठों के दाईं तरफ, और बिस्तर के एक किनारे खून का थक्का था, जो सूख चुका था। और बिस्तर के पास, नीचे ही, खून से सना हुआ एक तौलिया भी था... जो शायद थोड़ी देर पहले इस्तेमाल हुआ था, जब उसने खून थूका था।
राय साहब दीवान पर आधे टिके हुए अपनी आंखों के कोरों पर ढलक आई नमी को बार-बार शाल से सोकने की कोशिश कर रहे थे। मैं देख रहा था, मेरे ठीक बगल में सिमटी हुई बेबसी को, जो एक इंसान की शक्ल में बैठी थी। राय साहब अपने कांपते होठों के संभालते हुए, अपनी धुंधलाई आंखों से उस चमकीली दुनिया को देख रहे थे जो अपनी बेशुमार कुव्वतों और सकत के बावजूद भी तड़पते हुए इकलौते बेटे की ज़िंदगी नहीं बचा सकती थी।
यासमीन ने सुनहरे कुंडे वाले उस कांच के दरवाज़े को अंदर ढकेला और तेज़ कदमों से यक्षित के पास पहुंची। मैं और राय साहब, हम दोनों इधर से देख रहे थे कि उसने जैसे ही यक्षित का माथा छुआ, यक्षित की आंखें खुल गयीं और उसके दर्द से टूटते हुए चेहरे पर मुस्कुराहट की एक कांपती हुई लकीर सी उभरी।
“मैं जानता हूं, अब उसे कोई नहीं बचा सकता, वो... वो मर जाएगा” अचानक राय साहब की आवाज़ सुनकर मैं चौंक गया। मैंने उनकी तरफ देखा तो आंसू उनकी आंखों से ढलक कर गालों पर लकीर बन कर बह रहा था। मैंने उनके कंधे पर हमदर्दी का हाथ रखा, वो आगे बोले, यक्षित, यक्षित नाम रखा हमने इसका। यक्षित... यानि वो जो, जो हमेशा रहेगा। पर देखिए, ये तो हमें छोड़ कर जा रहा है, अभी से... कहते हुए वो सुबकने लगे।
- “राय साहब.... आप हिम्मत रखिए... हो सकता है कि...”
- “कुछ नहीं हो सकता, कुछ भी नहीं...” उन्होंने मेरी बात काटते हुए कहा, “यक्षित की बीमारी उस स्टेज पर है कि अब कोई करिश्मा भी उसे नहीं बचा सकता। अब कोई नहीं रोक पाएगा उसे... लेकिन... लेकिन डॉ यासमीन को देखते ही... उसे बहुत खुशी मिलती है” मेरे पैर पर हाथ रखते हुए उन्होंने मेरी तरफ संजीदगी से देखा फिर कहा, “माफ कीजिएगा, ये बात आपके लिए कुछ नागवार हो सकती है, पर... पर... डॉ साहिबा को देखकर, पता नहीं कैसे यक्षित की तबियत में कुछ राहत हो जाती है। मैंने बीते तीन सालों में यक्षित के चेहरे पर सिर्फ तब तब मुस्कुराहट देखी है जब डॉ यासमीन सामने होती हैं। दर्द भले तब भी कम ना हो, पर उसे सहने की ताकत उसमें थोड़ी बढ़ जाती है. मैं उन्हें बुलाता हूं क्योंकि... क्योंकि मैं बस यही चाहता हूं कि यक्षित जब इस दुनिया से जाए तो कम से कम मुस्कुराता हुआ जाए...”
मुझे ये बात सुनकर कुछ बुरा तो लगा लेकिन शरीफ लोगों की एक दिक्कत ये भी होती है कि वो अचानक से नाराज़ नहीं हो पाते। पहले अपनी नाराज़गी को अंदर ही अंदर सलीके से संवारते हैं, गढ़ते हैं, फिर ज़ाहिर करते हैं। शायद इसीलिए उस वक्त मैं बस झूठ-मूठ मुस्कुरा दिया। और वहां से उठकर कांच के दरवाज़े के उस तरफ देखने लगा।
मैंने देखा कि यासमीन उसके हाथ को अपने हाथ में थामे उसकी नब्ज़ को जांच रही थी और यक्षित एकटक कांपती मुस्कुराहट के साथ यासमीन के चेहरे को देख रहा था। यासमीन ने अपने पीले फूल वाले मेडिसन बैग से एक दवा निकाली और उसे चम्मच में घोलने लगी। फिर यक्षित के सर को अपने हाथ में गोद बनाकर थोड़ा सा उठाया और दवा उसे पिलाने लगी। वो एक बार ज़ोर से खांसा तो दवा बिखर गयी।
मैं यासमीन के चेहरे को ग़ौर से पढ़ने की कोशिश कर रहा था। मैंने उसके चेहरे पर पहले कभी किसी मरीज़ को देखते हुए इस तरह की बेसब्री, बदहवासी नहीं देखी थी। मैंने देखा कि जब यक्षित के चेहरे को पोंछने के बाद यासमीन ने उसे वापस लिटाया... तभी.. तभी उसने अपनी आंख के किनारे पर अपनी उंगली को फिराया। मैं चौंक गया। “क्या यासमीन रो रही है?” मैंने खुद से पूछा और फिर खुद को झुठलाया भी, “नहीं ऐसा नहीं है... आंख में कुछ पड़ गया होगा”
यक्षित के बिस्तर के बाई तरफ कत्थई गमले में एक सदाबहार का पौधा था जिसमें अब कुछ ही सफेद फूल बाकी थे और दाईं तरफ दीवार पर बनी शेल्फ में कुछ किताबें रखी थीं। जिनकी तरफ इशारा कर के वो कुछ कहने की कोशिश कर रहा था। यासमीन उसे न बोलने को कह रही थी पर वो उन किताबों की तरफ जिनके कवर पर उर्दू में कुछ लिखा था... और एक नौजवान शायर की ब्लैक एंड व्हाइट तस्वीर थी, उस तस्वीर की तरफ इशारा करके कुछ कहने की कोशिश कर रहा था। यासमीन ने वो किताब उठाई और उसका एक पन्ना खोला। राय साहब भी दीवान से उठकर मेरे पीछे खड़े हो गए।
“आनिस मोइन को पढ़ने लगा है आजकल” उन्होंने मुझसे कहा, “आप जानते हैं आनिस मोइन को?”
“नहीं, मैंने ये नाम पहली बार सुना” मैंने छोटा सा जवाब दिया। वो बोले, “एक नौजवान शायर था, आनिस मोइन... बहुत कम वक्त ही इस दुनिया में रहा। उसने बहुत ही छोटी उम्र में सुसाइड...”
- “बाहर चलें हम लोग” मैंने उनकी बात काटते हुए कहा, उन्होंने एक नज़र कमरे में देखा जहां यासमीन एक हाथ से किताब थामें और दूसरे से यक्षित की हथेली पकड़े, उसे किताब से कुछ पढ़कर सुना रही थी। मेरी बेचैनी समझते हुए बोले, “आ... हां ज़रूर.. आइये... हम बाहर बैठते हैं।”
एक नौकर को बाहर चाय भेजने के लिए कहकर वो मेरे साथ बाहर आ गए। हम लोग एक बड़े से लॉन में रखी बेंच टेबल पर बैठ गए। राय साहब मुझे यक्षित के बारे में बताते रहे.. और कभी उसकी बीमारी को लेकर ऊपर वाले को कोसते रहे। इसी में पूरा वक्त निकल गया और अंधेरी रात सुबह रौशनी की उबासी लेते हुए बादलों से झांकने लगी।
रक्षित उस रात नहीं मरा। हम लोग वापस अपने घर आ गए। पर राय साहब के घर में यासमीन को मैंने जिस तरह बदहवास और परेशान देखा था वो मेरे लिए एक अजब कैफियत थी। खुदा जाने ये मेरा शक था या बदगुमानी कि मुझे लगने लगा था कि मेरी बीवी यासमीन के लिए यक्षित सिर्फ एक मरीज़ नहीं है।
उस एक रात के बाद मेरी ज़िंदगी बदल गयी। सुबह जब मेरी स्कूटर की पिछली सीट पर बैठकर क्लीनिक जाते हुए अपना हाथ मेरी कंधे पर रखती थी... तो न जाने क्यों ये लगता था कि ये वो लम्स नहीं है जो कई सालों से मैं कंधे पर महसूस करता हूं। स्कूटर के साइड मिरर में यासमीन के चेहरे की उदासी मुझे अखरती थी।
“क्या हुआ है, सब ठीक है न” मैंने स्कूटर को एक किनारे पर रोकते हुए पूछा
“क्या हुआ मतलब?”
“तुम कुछ दिनों से बहुत गुमसुम क्यों लग रही हो। पहले कभी तो इस तरह खामोशी से नहीं बैठती थी। मैं बस फिक्रमंद हूं इसलिए पूछ रहा हूं”
“नहीं, नहीं... सब ठीक तो है... वो बस कल से थोड़ा सिरदर्द है इसलिए...” फिर रुक कर थोड़ा मुस्कुराते हुए कहा, “अरे सब ठीक है, चलिए देर हो रही है, चाबी मेरे पास है। गनेश क्लीनिक के बाहर वेट कर रहा होगा” फिर मेरी गर्दन आगे मोड़ते हुए “अरे चलिए” कहते हुए वो खिलखिलाई तो मैंने भी बात रफा-दफ़ा कर दी।
वक्त अपनी रफ्तार से गुज़रने लगा और मैं अपने कारोबार में। मेरे पास एक बड़ी साईकल कंपनी की एजेंसी थी। ये बात आज शायद उतनी बड़ी न लगे लेकिन उस दौर में साईकल एजेंसी एक बड़ी चीज़ थी। ज़िंदगी मुतमइन थी ऐसी कोई कमी नहीं थी और मैं यक्षित वाली बात भूल भी गया। पर एक रोज़ जब मैं कुछ पैसे निकालने के लिए लॉकर की चाभी ढूंढ रहा था तो मैंने जल्दबाज़ी में दीवार की खूंटी पर टंगा यासमीन का पर्स उठाया और उसकी पिछली जेब खोली। एक खुश्बू सी मेरी नाक में समा गयी। मैंने हाथ जेब में डाला और बाहर निकाला तो मेरे उंगलियों में एक सफेद फूल था। मुर्झाया हुआ, सदाबहार का फूल
“सदाबहार का फूल?” मैं खुद से बुदबुदाया और तभी जाने कहां से और कैसे और उससे भी ज़रूरी सवाल कि क्यों, क्यों मुझे याद आया यक्षित के बिस्तर के बगल में रखा कत्थई गमले वाला वो सदाबहार का पौधा जिसमें अब कुछ ही फूल बचे थे। मेरी उंगलियां कांप रही थीं। ये उसी दिन यक्षित ने यासमीन को दिया होगा। मैंने फूल वापस अंदर रखा और कुछ कड़वाहट चेहरे पर लिए वहां से चला गया। इस बात के बाद कई दिन मुझे मन ही मन ये तय करने में गुज़र गए कि क्या ये यासमीन की मुझसे बेवफ़ाई थी? या सिर्फ एक मरने वाले की आखिरी ख्वाहिश का सम्मान। राय साहब हमेशा से ये जानते थे कि यक्षित, उनका बेटा अपने से बड़ी उम्र की यासमीन को पसंद करता है। यक्षित के लिए यासमीन ही थी जो उसकी ज़िंदगी में मुस्कुराहट की इकलौती वजह थी। राय साहब की बेशुमार दौलत, हैसियत सब कुछ यासमीन की एक मुस्कुराहट के आगे छोटी पड़ जाती थी। इसलिए राय साहब जो कर रहे थे वो तो समझ आता है लेकिन मेरे लिए ज़रूरी था ये समझना कि यासमीन के मन में क्या है। क्या ये सिर्फ उसका फर्ज़ था या उसके मन में भी आहिस्ता अहिस्ता यक्षित के लिए कुछ बदल रहा था?
“यासमीन... जल्दी आओ... इधऱ, यहां हूं” एक दोपहर मैंने कमरे से आवाज़ लगाई तो यासमीन जो बरामदे में बैठी कुछ पढ़ रही थी, भागती हुई मेरे पास आई। उसने देखा कि मेरी तर्जनी उंगली से खून बह रहा है। और पास में खुला हुआ पुराना रेडियो और पेंचकस पड़ा है।
“अरे क्या करते हो तुम भी” कहते हुए उसने मेरी उंगली थाम ली। फिर जाकर मेडिसन बॉक्स ले आई और दवा लगाने लगी।
- “जब नहीं आता है ये काम तो क्यों मकैनिक बनते हो, लगा ली चोट। पता नहीं इस पुराने ज़ंग खाए रेडियो में क्या है”
- “पुराना है तो क्या हुआ। हर पुरानी चीज़े बेकार थोड़ी हो जाती है” फिर मैंने थोड़ा रुक कर कहा, “बल्कि पुरानी चीज़ तो पुरानी ही होती है, नई से बहुत बेहतर”
रूई से मेरी उंगली पर लगा खून पोंछते हुए यासमीन की उंगलियां एक पहल को ठहर गयीं। उसने मेरी तरफ देखा। दोनों की आंखों ने कुछ अनकहा सा महसूस किया और फिर वापस वो कॉटन बैंडेज बांधने लगी। बोली, “टिटनेस का इंजेक्शन लगाना पड़ेगा, ज़ंग लगा है उसमें”
मैंने उसे मना किया पर मेरी नहीं चली। कुछ देर के बाद वो इंजेक्शन के साथ तैयार थी। उसने मेरी आस्तीन मोड़ी और इंजेक्शन की टिप से निकलती दो-दो बूंदों को ग़ौर से देखने लगी। मैंने आंखे मिचमिचा कर नाक सिकोड़ ली। पर उस पल मैंने एक बात ग़ौर की। मैंने देखा कि वही यासमीन जो अपनी क्लीनिक में लोगों को फटाफट इंजेक्शन लगाती है, आज उसका हाथ कांप रहा था। बार-बार सूई पास ले जाती, फिर बहाने से वापस इंजेक्शन में भरी दवा को उंगली से थपथपाती, फिर मेरी बांह पर रूई रगड़ती।
“क्या हुआ, हाथ क्यों कांप रहा है?” मैंने पूछा तो वो मुस्कुराकर बोली, “किसी अपने को इंजेक्शन लगाने में हाथ कांपता ही है।” मेरे चेहरे पर मुस्कुराहट तैर गयी। वो बोली, “डॉ जतिन खुद चाइल्ड स्पेशलिस्ट हैं, पर अपनी बेटी को इंजेक्शन लगवाने मेरे पास लाए थे। होता है। हाथ सीधा रखो।”
इंजेक्शन मुझे कब लगा पता ही नहीं चला, मेरे दिल में खुशी के अजीब से फूल महक रहे थे। यासमीन का हाथ कांपना मेरे लिए उस रोज़ इतना खास लम्हा था कि मेरे मन से वो सारी तल्खियों धुलने लगीं। मैं खुश था और उसी खुशी-खुशी में मैंने यासमीन से कहा, “अच्छा एक बात पूछूं?”
वो इंजेक्शन लगाने के बाद उस जगह पर रूई रगड़ते हुए लापरवाही से बोली, “हम्म”
मैंने कहा, “ये आनिस मोईन कौन है?”
- “आनिस मोइन?”
- “हां जिसकी किताब यक्षित के सिरहाने रखी है, तुम उसे पढ़ कर सुना रही थी। राय साहब भी ज़िक्र कर रहे थे।”
मैनं पूछा तो वो बोली, “ओह वो... एक शायर था, बहुत मशहूर और कामयाब। पर एक दिन उसने खुदकुशी कर ली।”
“लेकिन क्यों”
“अपने ही घर में फांसी के फंदे से झूल गया था। वो जब इस दुनिया से गया तब वो शायरी के अपने करियर के टॉप पर था। लोग उसकी शायरी के मुरीद थे, आज भी उसकी गज़लें कोट की जाती हैं। पता है? उसे कोई तकलीफ नहीं थी, बस वो अपनी एक जैसी ज़िंदगी से उकता गया था। और यही उसने अपने सुसाइड नोट में भी लिखा। उसने लिखा था कि मैं अपनी ज़िंदगी की यक्सानियत से ऊब गया हूं, वही भीड़, वही शोर, वही तालियां, वही सुबह, वही शाम। ऐसा लगता है ये तस्वीर हर रोज़ दिखा रही है ज़िंदगी मुझे। मैं ऊब गया हूं, हालांकि मुझे कोई खास ग़म नहीं है। बस ज़िंदगी की ख़्वाहिश नहीं बची। इसलिए इस दुनिया से जा रहा हूं। और वो चला गया अपनी अम्मी को ख़त लिखकर और अपने कफन-दफन के लिए कुछ पैसे छोड़कर ... उसका एक शेर है -
“वो कुछ गहरी सोच में ऐसे डूब गया है
बैठे बैठे नदी किनारे डूब गया है
आज की रात न जाने कितनी लम्बी होगी
आज का सूरज शाम से पहले डूब गया है....”
- “यासमीन, तुम राय साहब के घर मत जाया करो।” मैंने उसका शेर खत्म होते ही कहा तो वो चौंक गयी। मैंने उसकी आंखों में देखा और कहा, प्लीज़ उसके हाथ थम गए। होठों पर आहिस्ता सी आवाज़ गूंजी “क्यों”
- “पता नहीं क्यों, बस मुझे नहीं अच्छा लगता। देखो मैं जानता हूं कि वो लड़का, यक्षित बीमार है और तुम बहुत पहले से उसका केस फॉलो कर रही हो लेकिन, लेकिन तुम्हारा वहां जाना मुझे ख़लता है। कुछ वजहें हैं मैं, मैं समझा नहीं पाऊंगा लेकिन, तुम, बस...”
मैंने जब इतना कहा तो यासमीन के चेहरे का रंग बदल गया। ऐसा लगा जैसे वो मेरी बात से इंकार करना चाहती हो पर कर नहीं सकी। बस इतना ही बोली, “ठीक है, आज के बाद नहीं जाऊंगी।” और अपना मैडिसन बॉक्स उठा कर दूसरे कमरे में चली गयी।
पता नहीं मुझे यासमीन से ऐसा कहना चाहिए था या नहीं, पर मैंने कह दिया और उसके बाद मैंने कई बार देखा कि राय साहब के मुलाज़िम कार लेकर कभी क्लीनिक और कभी घर आता, और राय साहब की लिखी सिफारिशी चिट्ठी उन्हें देता... पर वो हर बार मना कर देती। शहर में लोग बताते थे कि यक्षित कि तबियत ज़्यादा बिगड़ गयी है और वो अब नहीं बचेगा। पर मैं इसी बात से खुश था कि यासमीन मेरे कहे की इज़्ज़त कर रही है।
शहर में आते-जाते जब कभी किसी से राय साहब का ज़िक्र होता तो पता चलता कि राय साहब के बेटे यक्षित की तबियत अब कुछ और बिगड़ गयी है और वो किसी भी पल उसकी मौत की खबर आ सकती है। शाम को साइकल स्टोर से लौटते वक्त मैं जानबूझ कर राय साहब के बंग्ले की तरफ से गुज़रता था। बीते कुछ दिन से उस बंग्ले पर चहल-कदमी बढ़ गय़ी थी। शायद राय साहब के नज़दीकी रिश्तेदार आ गए थे। पर मुझे इससे क्या मतलब था। कुछ भी तो नहीं।
ज़िंदगी अच्छी भली गुज़र रही थी। शब ए रोज़ के मसलों में उलझे हम लोग अपनी ज़िंदगी के रास्तों से गुज़र रहे थे कि एक शाम जब मैं और यासमीन चाय पी रहे थे और यासमीन मुझे क्लीनिक में आए किसी मेडिकल रिप्रेज़ेनटेटिव के बारे में बता रही थी, ठीक उसी वक्त बाहर की तरफ एक कार रुकने की आवाज़ आई। मैंने पैर से पैर हटाया और कप मेज़ पर रखते हुए बाहर की तरफ झांका। राय साहब की गाड़ी थी। उठकर दरवाज़े पर पहुंचा। यासमीन मेरे पीछे दरवाज़े पर आ गयी। कार का दरवाज़ा खुला तो उसमें से राय साहब उतरे।
“राय साहब?” यासमीन बुदबुदाई और मेरी आढ़ से निकलते हुए दरवाज़े से लगभग भागते हुए बाहर चली गयी।
“क्या हुआ राय साहब, सब ठीक तो है” मैं दरवाज़े पर खड़ा यासमीन के चेहरे पर आई बदहवासी देख रहा था। उसकी तेज़ होती आवाज़ सुन रहा था।
“बताइये... क्या हुआ...” यासमीन ने उनके कंधे हिलाते हुए कहा तो सर झुका कर खड़े राय साहब ने चेहरा ऊपर उठाया। उनकी आंखें आंसुओं से लाल थीं। मैंने पहली बार उन्हें इस तरह रोते हुए देखा था। दाएं-बाएं सर हिलाते हुए यासमीन से कहा, “जा रहा है यक्षित” यासमीन को एक धक्का सा लगा “सांसे उखड़ रही हैं। आप आखिरी बार अगर...”
मैंने यासमीन की तरफ देखा कि अब वो मेरी तरफ देखेगी तो मैं उसे क्या कहूंगा। पर ऐसा हुआ ही नहीं। यासमीन फौरन “चलिए, जल्दी चलिए” कहते हुए खुद कार में बैठ गयी। उसने कार में बैठे-बैठे मेरी तरफ एक उदास नज़र से देखा। हमारे नज़रों के बीच में कांच था। मैं दरवाज़े की टेक लिए वैसे ही खड़ा रह गया। और गाड़ी धूल उड़ाती हुई चली गयी।
मायूस कदमों से मैं वापस कमरे में आया और सोफ़े पर बैठ गया। मेरी सांसे ऊपर नीचे हो रही थीं। पता नहीं मुझे गुस्सा यक्षित पर आ रहा था, यासमीन पर आ रहा था, राय साहब पर आ रहा था या खुद पर।
मैं उठा और दरवाज़े बंद कर लिए। पर दरवाज़े बंद करके लौटते वक्त मेरी नज़र दीवार पर लटके एक कपड़े से बनी जेब नुमा वॉल-हैंगिग पर गयी। जिसकी जेबों में बिजली के पुराने बिल, किराने के सामान की लिस्ट, शादी के पुराने कार्ड वगैरह रखे थे। पर उसी की सबसे निचली जेब से एक सफेद लिफाफा झांक रहा था, जिस पर राय साहब की खानदानी मुहर, दो तलवार और एक शेर का निशान था। मैंने वो लिफाफा खींचा और पढ़ने लगा। पहली लाइन पढ़ते ही मेरे माथे पर पसीने की बूंदे उभर आंई। वो खत राय साहब का नहीं, यक्षित का था। उसकी के हाथों से लिखा हुआ।
यासमीन,
मैं यक्षित आपको ये ख़त लिख रहा हूं क्योंकि मेरे सिरहाने रखे सदाबहार में इस वक्त सिर्फ दो फूल बचें हैं। मैं हल मुलाकात पर इसी सदाबहार से एक फूल आपको देता हूं। पर अब इसमें नए फूल आना बंद हो गए हैं, मुझे लगता है इन्हें पता है कि अब नए फूलों की ज़रूरत नहीं है। मेरी-आपकी दो से ज़्यादा मुलाकातें बची भी नहीं हैं। आजकल सीने के दाएं तरफ से दर्द उठता हुआ बीच में ऐसे फंस जाता है कि लगता है मौत मेरे बस में हो तो अभी मर जाऊं। मुझे पता है मेरा मरने की बातें करना आपको पसंद नहीं है, आपने आनिस मुईन की किताब भी दूर रखवा दी है। पर मैं क्या करूं, मैं भी आनिस मुईन की तरह एक जैसी ज़िंदगी से उकता गया हूं... एक ही मंज़र देखते-देखते थक गया हूं। वही एक कमरा, वही बिस्तर, वही किनारे से सुबह की चढ़ती हुई घूप, वही शाम की उतरती रौशनी, सामने की पीली दीवार, दवा की वही महक, मशीन की वही बीप और मौत का लंबा इंतज़ार। पता है यासमीन? इंसान की ज़िंदगी में जो सबसे कीमती चीज़ होती है, वो होती है उसकी उम्मीद। और उम्मीद इसलिए बंधती है क्योंकि इंसान उसकी मौत की तारीख नहीं जानता। अगर उसे पता हो उसे न कोई खुश्बू महसूस होती है, न कोई रंग दिखता है, न कोई एहसास होता है क्योंकि उसकी उम्मीद मर जाती है, जैसे मेरी मर चुकी है। मैं कुछ दिनों में इस दुनिया से उठ जाउंगा, कुछ ऐसे कि मेरा निशान भी बाकी नहीं रहेगा। पर हां, अगर कुछ बचेगी तो सिर्फ आपके ज़हन में झिलमिलाती हुई मेरी याद। आप मेरी पहली और आखिरी मोहब्बत हैं यासमीन। मेरी आखिरी ख़्वाहिश भी बस यही है कि जब मैं इस दुनिया से जाऊं तो आप मेरे सीने की बुझती हुई धड़कनों को गले लग कर महसूस कर रही हों, आनिस मुईन की कोई गज़ल बुदबुदाते हुए। बिना आंसू, बिना किसी ग़म के, मुस्कुराते हुए जाना चाहता हूं। लगेगा कि इस दुनिया में आना सुवारत हो गया। बस यहीं मेरी मुहब्बत मुकम्मल हो जाएगी।
अलविदा
आपका यक्षित
मेरी आंखों में नमकीन कतरें झिलमिलाने लगे थे। हाथ कांप रहे थे, होठों पर जुम्बिश थी। मैं कुछ कदम पीछे हुआ और अपने पूरे वज़न के साथ धम्म से सोफे पर बैठ गया। इधर राय साहब के बंग्ले पर हलचलें तेज़ थीं। उस बड़े से दरवाज़े के बाहर लोग जमा होने लगे थे। कुछ लोग बड़े दरवाज़े की दरार से अंदर झांक कर देख रहे थे। तभी राय साहब की लंबी सी कार दरवाज़े के नज़दीक पहुंची। पिछली सीट पर राय साहब और डॉ यासमीन थे। भीड़ ने रास्ता दिया। दरवाज़ा खुला और कार अंदर चली गयी। कुछ देर बाद यासमीन यक्षित के कमरे के दरवाज़े के पास खड़ी थी। आज पहली बार दरवाज़े के उस सुनहरे हैंडल को अंदर की तरफ ढकेलते हुए उसके हाथ और होंठ दोनों कांप रहे थे।
वो कमरे में पहुंची तो यक्षित अकेला था। उसके बगल में रखी उस मशीन की बीप-बीप लड़खड़ाती आवाज़ में गूंज रही थी और स्क्रीन पर छोटी-बड़ी लकीरें, उठ-उठ कर गिर रही थी।
“यक्षित...” डॉ यासमीन की आवाज़ कमरे में गूंजी तो यक्षित ने गर्दन को आहिस्ता से इस तरफ घुमाया। और उसके चेहरे पर दर्द की अनगिनत नीली लकीरों के बीच एक कांपती हुई मुस्कुराहट की लकीर भी थी। उसके चेहरे का रंग बदल गया था। पैर से निकलने लगा था। हाथ की उंगलियां अकड़ी थीं और ज़बान ऐंठी हुई थी। वो सांस लेते हुए झटके ले रहा था जैसे उसके जिस्म से ज़िंदगी हर सांस के साथ घट रही थी। डॉ यासमीन को सिरहाने देखकर उसने मुस्कुराने की कोशिश की। और फिर अकड़ी हुई उंगलियां ज़रा सी खुलीं और उनमें यासमीन का हाथ कस गया। एक डॉक्टर हर हाल में मरीज़ को बचाने की कोशिश करता है, चाहे हालात कैसे भी हों। यासमीन ने हड़बड़ा कर दाए बाएं देखा। वो शायद उसे कोई दवा या इंजेक्शन देना चाहती थी ताकि जाते-जाते उसका दर्द कुछ मद्धम हो सके। उस वक्त उसे ख्याल आया कि वो हड़बड़ी में अपना मैडिसन बॉक्स तो लाई ही नहीं। उसने अफसोस करते हुए आंखे मिचमिचाईं और यक्षित के सीने पर हाथ फिराने लगे जहां उसे सबसे ज़्यादा तकलीफ हो रही थी।
ठीक उसी वक्त कमरे का दरवाज़े पर आहट हुई। दरवाज़ा खुलने की चरमराहट पर यासमीन ने पलट कर देखा। दरवाज़े पर... मैं खड़ा था। हाथ में मैडिसन बॉक्स और आंखों में आंसू लिए हुए।
राय साहब बाहर कांच से हमें देख रहे थे। यासमीन के चेहरे पर हैरानी थी। मैं उसके पास पहुंचा। बॉक्स उसकी तरफ बढ़ाया और वापस किनारे एक दीवार से पीठ सटा कर खड़ा हो गया। यासमीन ने हड़बड़ाते हुए बॉक्स खोला, उसमें से एक कांच की शीशी और एक इंजेक्शन निकाला और भर कर उंगली से थपथपाया। फिर इंजेक्शन की नोक यक्षित की बांह पर सटाया... और ठीक उसी वक्त मैंने वो देखा, जो मैं कभी नहीं भूल पाऊंगा। मैंने देखा कि यासमीन के हाथ कांप रहे थे। ठीक उसी वक्त उसकी वो बात मेरे ज़हन में कौंध गयी “जब किसी अपने को इंजेक्शन लगाते हैं तो लगाने वाले को भी दर्द महसूस होता है, इसलिए हाथ कांपते हैं”
यासमीन की आंखों से मुसलसल आंसुओं की कतार बह रही थी। यक्षित के इंजेक्शन लगने के बाद उसे दर्द में कुछ आराम हुआ था... पर ये साफ था कि अब वो जा रहा था... यासमीन की उंगलियों के बीच कसी उसकी उंगलियां ढीली पड़ने लगी थीं। गले पर उभरी नीली नसों का तनाव घटने लगा था। यक्षित ने एक बार बहुत मुश्किल से गर्दन को यासमीन की तरफ घुमाया... आंखे चढ़ी हुई थीं। पता नहीं वो देख पा रहा था या नहीं, पर फिर उसने एक बार झटका सा लिया। और फिर उसका हाथ फिसलने लगा। मशीन की बीप-बीप की आवाज़ में यासमीन की सिसकियां घुल गयीं। और वो... वो यक्षित के सीने पर झुक गयी, शायद उसकी बुझती हुई सांसों को आखिरी बार सुनने के लिए।
मशीन खामोश हो गयी। कमरे में यासमीन की सिसकियों के अलावा बिल्कुल खामोशी पसर गयी थी। मौत की खामोशी। तभी कमरे में मेरी आवाज़ गूंजी। यासमीन ने पलट कर देखा। मेरे कमरे के किनारे खड़ा था और मेरे हाथ में आनिस मुईन की किताब थी।
“ये क़र्ज़ तो मेरा है चुकाएगा कोई और
ग़म मुझ को है और आंसू बहाएगा कोई और
तब होगी ख़बर कितनी है रफ़्तार-ए-तग़य्युर
जब शाम ढले लौट के आएगा कोई और
अंजाम को पहुँचूँगा मैं अंजाम से पहले
ख़ुद मेरी कहानी भी सुनाएगा कोई और”
मेरी कांपती हुई आवाज़ कमरे में गूंज रही थी और यक्षित… यक्षित जा चुका था और उसके सिरहाने रखे सदाबहार का आखिरी फूल टूट कर गिर गया था।
(जमशेद क़मर सिद्दीक़ी की लिखी इसी तरह की और कहानियां सुनने के लिए SPOTIFY या APPLE PODCAST पर लिखें - STORYBOX WITH JAMSHED)