कहानी - बदनाम सा एक शायर
जमशेद क़मर सिद्दीक़ी
वो गर्मियों की शाम थी, फिज़ा में उमस थी, पुराने लखनऊ के एक दो मंज़िला मकान में चहल-पहल थी। ये मकान था Progressive Writer Association के फाउंडर सज्जाद ज़हीर का, जो एक उर्दू अदीब और कम्यूनिस्ट आइडियोलॉग भी थे। सज्जाद साहब घर के इंतिज़ामात में लगे हुए थे क्योंकि उस शाम उनके सबसे अज़ीज़ दोस्त और कम्यूनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया के वीकली उर्दू अखबार कौमी जंग के इडिटर कैफी आज़मी का निकाह था। इस मौके पर अली सरदार जाफरी, जोश मलीहाबादी समेत तमाम बड़े शायर मौजूद थे। क़ैफी आज़मी का निकाह हैदराबाद की शौकत साहिबा से तय हुआ था जो IPTA यानि Indian People's Theatre Association की important सदस्य थी। हालांकि कोई बड़ा जलसा नहीं था, सब कुछ बहुत सादगी से हो रहा था। (इसी कहानी को आगे पढ़ने के लिए नीचे स्क्रॉल करें या इसे ऑडियो में सुनने के लिए ठीक नीचे दिए लिंक पर क्लिक करें)
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“बिस्मिलाह हिर्ररहमानी रहीम.. अल्हम्दो लिल्लाही रब्बिल आलमीन...” काज़ी साहब निकाह पढ़ा रहे थे, क़ैफी और शौकत एक दूसरे की आंखों में अपनी ज़िंदगी की हसरतों को अंगड़ाई लेते हुए महसूस कर रहे थे। आइने से शफ्फाक दो दिल वक्त की एक ही लय पर साथ धड़क रहे थे। कैफ़ी आज़मी की मुलाकात शौकत साहिबा से कुछ महीनों पहले हैदराबाद के एक मुशायरे में हुई थी। मुशायरे में कैफ़ी आज़मी ने हिंदुस्तान की ज़ंग ए आज़ादी में औरत की अहमियत पर पर लिखी गई वो खास नज़्म पढ़ी थी, जो इंतिहाई मशहूर हुई। उस दिन, हैदराबाद के उस Auditorium में पैर रखने को जगह नहीं थी, इस सिरे से उस सिरे तक लोग ही लोग थे, और कैफ़ी की आवाज़ दूर तक गूंज रही थी।
क़द्र अब तक तेरी तारीख़ ने जानी ही नहीं - तुझ में शोले भी हैं बस अश्कफ़िशानी ही नहीं
तू हक़ीक़त भी है दिलचस्प कहानी ही नहीं - तेरी हस्ती भी है इक चीज़ जवानी ही नहीं
अपनी तारीख़ का उनवान बदलना है तुझे - उठ मेरी जान! मेरे साथ ही चलना है तुझे
तालिया का शोर कई मिनट तक गूंजता रहा, ये एक तारीख़ी लम्हा था, महज़ इसलिए नहीं क्योंकि एक खूबसूरत नज़्म इस वक्त की नज़र हुई थी, बल्कि इसलिए क्योंकि तालियों के इस शोर में एक आवाज़ उन हथेलियों की थी। जिन्होंने उसी एक नज़र में कैफ़ी आज़मी का हमराह बनाने का फैसला कर लिया था। ये छोटी सी मुलाकात कई सिलसिलों से होते हुए आगे बढ़ी और दो लोगों के बीच की खाली जगह में इश्क़ चुपचाप परवाज़ भरता रहा। “निकाह मुकम्मल हुआ” काज़ी साहब ने मुस्कुराकर इक्तिला दी तो पूरा घर मुबारक हो - मुबारक हो के शोर से गूंजने लगा। सज्जादा ज़हीर, जोश साहब, अली सरदार जाफरी जैसे तमाम शायरों ने गले मिलकर कैफी साहब को मुबारकबाद दी। ये कैफी और शौकत के एक नए सफर का आग़ाज़ था। लेकिन ये सफर आने वाले वक्त की तहों में कौन सी चुनौतियां छुपाए था, इसकी फिक्र किसको थी? अभी तो ज़िंदगी के इस सिरे से उस सिरे तक सिर्फ फूल ही फूल बिखरे थे और वो दोनों ज़िंदगी की एक नई और अहम मंज़िल की तरफ पहला कदम बढ़ा रहे थे।
शादी के शुरुआती दिनों के बाद जब ज़िंदगी ने सख्त रास्तों पर होश संभाला तो उनके गिर्द तमाम ज़िम्मेदारियां थीं, ज़िम्मेदारियां थीं, परेशानियां थी। लेकिन क्म्यूनिस्ट पार्टी के अखबार के एडिटर और ज़हन से खालिस कम्यूनिस्ट कैफी आज़मी, ज़िंदगी और इंकलाब का बैलेंस बनाते-बनाते अपनी ज़िंदगी को ही इंकलाब बना बैठे। शादी के कुछ महीनों के बाद ही उन्हें पार्टी ने मुंबई हेड ऑफिस बुलाया तो वो इंकार नहीं कर पाए। आज़मगढ़ के एक कस्बे मिजवा से चला वो शख्स, बंबई शहर के भागती-दौड़ती बेरम दुनिया का हिस्सा बनने जा रहा था। एक तवील सफर के बाद कैफी साहब शौकत साहिबा के साथ बंबई पहुंच गए। इस शहर की हवा लखनऊ और कानपुर से अलग थी। यहा का शोर में कारोबारी आवाज़ें ज़्यादा थीं। बर्ताव भी अलग था। शायद यही दिन थे जब उन्होंने अपने खास दोस्त फैज़ अहमद फैज़ को लिखे एक खत में इस शहर का ज़िक्र इस शेर से किया था।
लग गया एक मशीन में मैं भी, शहर में लेके आ गया कोई
मैं खड़ा था कि पीठ पर मेरी, इश्तिहार एक लगा गया कोई
ज़िंदगी तेज़ चल रही थी, बहुत तेज़। कैफ़ी पूरी तरह पार्टी के काम में जुट गए, उन्हे कम्यूनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया के ही दफ्तर में एक छोटी सा कमरा दे दिया गया। जहां उनकी नई और शादीशुदा ज़िंदगी इश्क़ और इंकलाब के नए आयाम तलाश रही थी। आमदनी कम थी पर गुज़ारा करते रहे। पार्टी की तरफ से उन्हे महज़ 45 रूपये महीना मिलते थे, जिसमें से तीस रुपये खाने के लग जाते थे। ज़िंदगी इतनी तंग कि दम घुट जाए लेकिन ख्यालों का फैलाव अब भी इतना वसीह था कि ज़माने की सारी हकीकतें उसमे सांस ले रही थी। कैफी की लड़ाई Social Equality की लड़ाई थी, मज़दूरों के हक की लड़ाई थी, इंसान के इंसान बने रहने की लड़ाई थी। Progressive Writer मूवमेंट भी इसी मुहिम का हिस्सा थी, जिसके सदस्यों में मुंशी प्रेमचंद, सआदत हसन मंटो और इस्मत चुगताई भी थी। लंबे वक्त तक, कैफ़ी और उनके साथी इस इंकलाब का ईंधन बने रहे। ज़िंदगी की झुलसा देने वाली इसी तेज़ धूप में एक रोज़ उन्हें एक खुशखबरी मिली... ये खबर उनके लिए उतनी ही खास थी जितनी दुनिया के किसी भी बाप के लिए होती है। शौकत साहिबा उम्मीद से थी। कैफी पिता बनने वाले थे।
म्यूज़िक
ज़ाहिर है कैफी भी बहुत खुश थे लेकिन वो ये भी जानते थे कि ये खुशी बहुत सारी ज़िम्मेदारी के साथ दस्तक दे रही है। उनके खास दोस्तों ने भी उनको मशवरा दिया कि अब आमदनी के कुछ दूसरे ज़रियों को भी तलाशना शुरु करें। कैफी ने मुंबई से छपने होने वाले तमाम अख़बारों के दफ्तरों के चक्कर लगाने शुरु किये। कुछ जगहों पर बात भी बन गई। एक रोज़ एक डेली न्यूज़पेपर से उन्हें बुलावा आया... कैफ़ी वहां पहुंचे तो सामने अखबार का एडिटर था... कैफ़ी को अंदाज़ा था कि वो उनकी शेरी हैसियत से मतासिर होकर उन्हें कुछ काम देंगे...
- आइये... आइये कैफी साहब.... भई आप यहां हमारे यहां आए... ये तो हमारी किस्मत है
- जी बहुत नवाज़िश आपकी...बताइये फिर कैसे याद किया
- भई आपकी कलम के तो हम लोग बड़े कायल हैं... काफी सुना है आपके बारे में... इसलिए मैंने सोचा कि ये काम आपको ही दिया जाए...
- जी बहुत शुक्रिया.. तो बताइये क्या लिखना है मुझे.... कोई गज़ल शेर या न्यूज़ रिपोर्ट...
- कॉमेडी लिख लेते हैं? जैसे ही एडिटर ने पूछा तो कैफ़ी साहब चौंक गए। बोले, कॉमेडी नहीं वैसे तो नहीं लिखा... पर हां एक आध नज़्म कही हैं...
- बस बस वही लिखना है... एडिटर ने कहा आपको हमारे यहां मज़ाहिया नज़्म लिखिए... वो क्या है कि हमारे पेपर में सारी खबरें संजीदा रहती हैं... हम चाहते हैं कि लोग ज़रा हलका फुल्का हंसे भी...
कोई और दिन होते तो शायद कैफ़ी साहब उसे ऐसा जवाब देते कि उम्रभर याद रखते। पर जब ज़िम्मेदारियों का बोझ सर पर हो तो लोग ज़िंदगी जो राह दिखाती है, उधर चल देते हैं। लेकिन शायरी की समझ रखने वाले इस बात के गवाह हैं कि कैफ़ी साहब ने उस अखबार के लिए जो मज़ाहिया नज़्में भी कही, वो मयार की थीं। और उसकी चर्चा अदबी दुनिया में हुई। इस काम के अलावा वो कौमी जंग के लिए और दूसरे अखबारों के लिए भी लिखने लगे। कैफ़ी पूरी-पूरी रात ब्लैक कॉफी पीते हुए काम में जुटे रहते। उन्होने अपनी शरीक ए हयात शौकत साहिबा का खास ख्याल रखना भी शुरु कर दिया। ज़िंदगी पटरी पर आने लगी थी। लेकिन तभी हालात ने एक करवट ली। ये करवट थी हिंदुस्तान के सीने पर खिंचने वाली एक लकीर, जिसे तक्सीम कहा गया। यानि हिंदुस्तान और पाकिस्तान का बंटवारा।
ये वही दौर था जब ब्रिटिश हुकूमत ने कैफ़ी औऱ उनके साथ के कम्यूनिस्ट वर्करों को गिरफ्तार करना शुरु कर दिया था। इसलिए वो औरंगाबाद में एक जगह अंडरग्राउंड हो गए। यूं तो मुसीबत सभी कॉमरेड्स थे, लेकिन कैफी आज़मी के लिए ये मुसीबत ज्यादा ही घनी थी, इसलिए क्योंकि शौकत उम्मीद से थी। आमदनी के ज़रिये भी आहिस्ता-आहिस्ता बंद हो गए। औरंगाबाद के इसी ख़ूफिया ठिकाने पर कैफी साहब के साथी S M Mehdi और Ali Sardar Jafri भी थे। ये लोग जिस इंकलाब की लड़ाई लड़ रहे थे, उसी इंकलाब का दूसरा हिस्सा था Progressive Writer Movement. राइटर्स का काम दुनिया बदलना नहीं होता, उनका काम बस इतना होता है कि वो ये बता सकें कि दुनिया को क्यों बदल दिया जाना चाहिए। और यही काम था इस मूवमेंट का। इसके ज़रिये कोशिश की जा रही थी कि हिंदुस्तान के राइटर्स इश्क-मुहब्बत, गुल ओ बुलबुल और कसीदेबाज़ी से बाहर निकलकर, Social equality, Social justice और unity पर लिखें, मज़दूरों के हक के लिए लिखें, पूजीवांद और सामंतवाद के खिलाफ लिखें। इस आज़ाद ख्याल तंज़ीम का मकसद कमकारों की कलम से निकलने वाली खुश्बू को आग में तब्दील करना था। इस आर्गनाइज़ेशन के मेमबरान में – हबीब जालिब, अहमद फराज़, फिराक गोरखपुरी, अमृता प्रीतम, मजरूह सुल्तानपुरी और.....इस्मत चुगताई भी थी।
इस्मत चुगताई कैफी और शौकत को बेहद करीब से जानती थी। इस्मत के शौहर शाहिद लतीफ फिल्म प्रोड्यूसर थे। जब इस्मत को शौकत साहिबा के हाल का पता चला तो उन्होने तमाम दोस्तों को खत लिखा, जिनमें मजाज़ लखनवी, प्रेमचंद, और साहिर लुधयानवी भी थे। सभी दोस्त यार मदद करना तो चाहते थे लेकिन किसी के भी पास इतना इंतज़ाम नहीं था कि कोई हाथ आगे बढ़ा पाता। शौकत साहिबा का हालत लगातार बिगड़ रही थी, उनके पास बंबई में ना छत थी, ना रुपये। हां, पेट में एक उम्मीद ज़रूर सांस रही थी। शौकत साहिबा ने एक रोज़ कैफी आज़मी को एक खत लिखा -
कैफी,
कई बार सोचा कि तुम्हे खत लिखूं लेकिन फिर ये सोचा कि जाने तुम कौन सी पसोपेश में डूबे होगे। जो लड़ाई तुम लड़ रहे हो वो दुनिया के एक बेहतर हिस्से को बचाए रखने की ज़िद है, और इसमें मैं भी तुम्हारे साथ हूं, हमेशा की तरह। यकीन है कि तुम भी मुझे उतना ही याद करते होगे, जितना मैं तुम्हे। मैं ठीक हूं, फिक्र मत करना।
तुम्हारी शौकत
शौकत साहिबा के इस खत में ना उदासी थी ना मायूसी। लेकिन कैफी जानते थे कि वो ज़िंदगी के उन नुकीले एहसास को जी रही हैं जिन्हे महसूस करना किसी के लिए आसान नहीं होता। वो कमज़ोर हो गई थी। एक रोज़ इस्मत चुगताई ने अपने शौहर और फिल्म प्रोड्यूसर शाहिद लतीफ से इस बारे में बात की। शाहिद ने उसी वक्त तय कर लिया की जैसे भी हो वो कैफी और शौकत की मदद करेंगे। उन्होने पार्टी के लोगों से मुलाकात कर कैफी का पता पूछा। क्योंकि पार्टी के लोग जानते थे कि शाहिद पार्टी के खैर ख्वाह हैं, उन्हे कैफी आज़मी का खूफिया पता बता दिया गया। शाहिद लतीफ कैफी आज़मी से मुलाकात करने के लिए औरंगाबाद में उस जगह पर पहुंच गए। वो एक सकरी सी गली थी और वो उस गली में एक अंडर ग्राउंड कमरा था, जिसकी सीढ़ियां इमारत के अंदर से ही थी। शाहिद उस तहखानेनुमा कमरे में एहतियात से उतर गए। उस कमरे में दो कुर्सी, एक मेज़, एक घड़ा, एक बिस्तर, किताबें और अखबार थे। कैफी और शाहिद कुर्सी पर आमने-सामने बैठ गए। उन्होने कैफी आज़मी से कहा-
“कैफ़ी साहब, मुझे आपकी मदद चाहिए”
“जी, अर्ज़ कीजिए शाहिद साहब” – कैफी साहब ने कहा
“वो.. दरअसल मैं एक फिल्म बना रहा हूं.. नाम है – ‘बुज़दिल’… फिल्म के गाने शैलेंद्र लिख रहे हैं, लेकिन मैं चाहता हूं कि आप और शैलेंद्र मिलकर लिखें, या फिर एक गाना आप अकेले ही लिखें। पता नहीं क्यों मुझे लग रहा है कि आप लिखेंगे तो..
ये मुख्तसर मुलाकात चंद घंटे तक खिंच गई। कैफी साहब ने पहले तो इंकार कर दिया लेकिन काफी मेहनत के बाद शाहिद लतीफ ने उन्हे मना ही लिया। फिर उन्होने कहा -
“कैफी साहब, एक बात और थी”
“जी कहिए”
“मैं फिल्म के लिए आपका मेहनताना आपको नहीं, आपकी बीवी शौकत को दूंगा”
कैफी साहब ने उनकी आंखों में गौर से देखा औऱ वो समझ गए कि ये सब सिर्फ शाहित लतीफ का एक तरीका था उनकी मदद करने का, उन आंखों में आंसू आ गए।
बहरहाल, ये सिलसिला आगे बढ़ा और कुछ दिन के बाद कैफी साहब ने फिल्मों के लिए अपना पहला गाना लिखा। बुज़दिल फिल्म के लिये लिखा। गाने के बोल थे– रोते रोते गुज़र गई रात रे...इस गाने ने फिल्म इंडस्ट्री में कैफी आज़मी को पहचान दिला दी। हालांकि फिल्म बॉक्स ऑफिस पर कुछ खास कमाल नहीं कर पाई लेकिन ये कैफी आज़मी और शौकत की ज़िंदगी के पटरी पर लौटने की शुरुआत थी। वक्त गुज़रता गया। धीरे-धीरे वक्त बदला, मुल्क का निज़ाम बदला। कैफ़ी आज़मी और शौकत साहिबा फिर से साथ थे। कैफ़ी ने कम्यूनिस्ट पार्टी के लिए दोगुने जोश से काम करना शुरु कर दिया। अब वो फिल्मों के लिए भी लिखने लगे थे। इस बीच शौकत साहिबा ने एक प्यारी सी बेटी को जन्म दिया, जिसका नाम रखा – शबाना...
अब तक कैफी आज़मी फिल्मों में कई गाने लिख चुके थे, धीरे-धीरे उनकी पहचान भी बनने लगी थी। लेकिन इस बीच एक अजीब बात हो रही थी, कैफी जिस भी फिल्म के गाने लिखते थे उस फिल्म के गाने तो सुपरहिट हो जाते थे.. लेकिन फिल्म फ्लॉप हो जाती थी। ये एक अजीब बात थी। अब ये बात धीरे धीरे इस तरह इंडस्ट्री में इस्टैबलिश हो गयी कि उनके गाने इतने अच्छे हैं कि उसकी वजह से फिल्म कमतर लगने लगती है... और लोग नाउम्मीद हो जाते हैं। अब कैफ़ी साहब से जब कोई कहता
भई वाह, फलां फिल्म में आपने जो गाना लिखा.... वाह भई वाह
तो वो कहते.... भाई तारीफ करके क्यों हमारा नुकसान करवा रहे हो
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