
Sahitya Aajtak 2025: देश की राजधानी दिल्ली के मेजर ध्यानचंद नेशनल स्टेडियम में 21 से 23 नवंबर 2025 तक चल रहे 'साहित्य आजतक 2025' के दूसरे दिन भाषा, साहित्य, विचार और कला को लेकर कई अहम सत्र हुए. इन्हीं में से एक था 'साहित्य संस्कृति- कितनी खास, कितनी आम.'
इस सत्र में 'गजपति: ए किंग विदआउट किंगडम' के लेखक और पूर्व IRS अफसर अशोक कुमार बल, संगीत नाटक अकादमी की चेयरमैन, कोरियोग्राफर और लेखक डॉ. संध्या पुरेचा और लेखक, सामाजिक कार्यकर्ता, प्रभा खेतान फाउंडेशन के ट्रस्टी संदीप भूतोड़िया ने अपने विचार रखे.
जगन्नाथ हमारे खास और आम दोनों हैं: अशोक कुमार बल
पूर्व IRS अधिकारी और लेखक अशोक कुमार बल ने चर्चा की शुरुआत में कहा कि वह आज खुद को 'खास' महसूस कर रहे हैं, क्योंकि वह जगन्नाथ देश (ओडिशा) से हैं. उन्होंने बताया कि जगन्नाथ हर ओड़िया के दिल में बसते हैं और उन्हें एक 'पारिवारिक देवता' माना जाता है.
गजपति और अद्वितीय संस्कृति
उन्होंने अपनी पुस्तक 'गजपति: ए किंग विदाउट ए किंगडम' के बारे में बताया. यह किताब लिखने की प्रेरणा उन्हें अपनी जन्म कुंडली से मिली, जिसमें ओडिशा के तत्कालीन गजपति (राजा) का उल्लेख था.
उन्होंने बताया कि सूर्यवंशी गजपतियों से पहले, गंगा वंशी गजपति कभी खुद को राजा नहीं मानते थे. वे हमेशा जगन्नाथ को सर्वोच्च संप्रभु और खुद को 'आद्य सेवक' (प्रथम सेवक) मानते थे.
बल ने कहा कि जगन्नाथ संस्कृति अद्वितीय है क्योंकि यह असाधारण रूप से मानवीकृत है. देवता सोते हैं, जागते हैं, बीमार पड़ते हैं, दवा लेते हैं और हर 12-13 साल में अपना आकार (नव-कलेवर) बदलते हैं.

उन्होंने मुस्लिम भक्त साल बेग का उदाहरण दिया, जिनके गीत आज भी हर ओड़िया घर में गाए जाते हैं. यह दिखाता है कि ओडिशा की संस्कृति, जो जगन्नाथ से प्रेरित है, असाधारण रूप से सहज और सहिष्णु है.
बल ने चिंता जताई कि अधिकांश साहित्यिक महोत्सव शहरी-केंद्रित और अंग्रेजी-केंद्रित हैं, जो भारत के बहुलवाद को बढ़ावा नहीं देते हैं.
डॉ. संध्या पुरेचा बोलीं- संस्कृति की समृद्धि उसकी निरंतरता में है
संगीत नाटक अकादमी की चेयरमैन डॉ. संध्या पुरेचा ने शास्त्रीय संगीत, नृत्य और संस्कृति को आम जन से जोड़ने के विषय पर बात की. उन्होंने कहा कि किसी भी देश की संस्कृति को उसकी ललित कलाओं से जाना जाना चाहिए. ललित कलाएं सिर्फ एस्थेटिक (सौंदर्यबोधक) नहीं हैं, बल्कि जीवन के सामान्य प्रज्ञा (जैसे पैर छूना, सच बोलना, रोना, हंसना) से बनी हुई हैं.

डॉ. पुरेचा ने कहा कि साहित्य संस्कृति को शब्द देता है और संस्कृति साहित्य को संदर्भ देती है. आम संस्कृति सामान्य प्रज्ञा से जुड़ी है, जिसमें त्योहार, लोक नृत्य, लोक संगीत, दादी-नानी की कहानियां, पॉडकास्ट और स्ट्रीट थिएटर शामिल हैं. जबकि खास संस्कृति विशिष्ट प्रज्ञा से जुड़ी है, जिसमें शास्त्रीय धरोहर जैसे ऋग्वेद (प्रकृति पूजा), उपनिषद (दार्शनिक बातें), महाभारत (समाज और राजनीति), और रामायण (आदर्श और मर्यादा) शामिल हैं. आम और खास ये दोनों एक ही संस्कृति के दो पहिये हैं, एक-दूसरे के पूरक और प्रेरक हैं.
युवा पीढ़ी और डिजिटल माध्यम
संध्या पुरेचा ने डिजिटल युग को केवल माध्यम का परिवर्तन बताया. उन्होंने कहा कि युवा पीढ़ी दूर नहीं है, बल्कि उनके पास माध्यम अलग हैं. उन्होंने उदाहरण दिया कि पिछले गणतंत्र दिवस की परेड (26 जनवरी) में 5900 जनजातीय और लोक कलाकारों ने कर्तव्य पथ पर प्रदर्शन किया, जिसे लोगों ने खूब सराहा और गिनीज बुक ऑफ वर्ल्ड रिकॉर्ड बना.
अभिनय दर्पणम् और लोक प्रमाण
डॉ. पुरेचा ने नन्दिकेश्वर रचित अभिनय दर्पणम् (नृत्य का पाठ्य पुस्तक) और भरत मुनि के नाट्यशास्त्र का उल्लेख किया. उन्होंने जोर देकर कहा कि भारतीय शास्त्र रचनात्मकता को दबाते नहीं हैं, बल्कि लोक प्रमाण को सर्वोच्च स्थान देते हैं.
नाट्यशास्त्र का संदेश
उन्होंने बताया कि नाट्य समाज के व्यवहार का अनुसरण करता है और लोक उपदेश देता है. शास्त्रों में यह स्पष्ट कहा गया है कि आप अपने समाज में प्रचलित किसी भी चीज को समाहित कर सकते हैं. यह दर्शाता है कि भारतीय कला और साहित्य हमेशा समकालीन रहे हैं.
साहित्य को सही माहौल में परोसना जरूरी: संदीप भूतोड़िया
लेखक और प्रभा खेतान फाउंडेशन के ट्रस्टी संदीप भुटोरिया ने बताया कि कैसे उनका फाउंडेशन लेखकों को फाइव स्टार होटलों में ले जाकर अभिजात वर्ग को भारतीय भाषाओं के साहित्य से जोड़ने का प्रयास कर रहा है. उन्होंने कहा कि किसी भी चीज की आवश्यकता आपको अपनी व्यवस्था के अनुरूप आप जिस माहौल में उस चीज को देखना चाहते हैं, उस हिसाब से अगर परोसी जाए तो शायद आप उसको अनुग्रह करना या अनुभूति करना ज्यादा पसंद करते हैं.

इसी विचार के तहत उन्होंने भारतीय भाषाओं के कार्यक्रमों को उसी बुटीक माहौल में आयोजित करना शुरू किया, जैसा कि अंग्रेजी कार्यक्रमों के लिए किया जाता है. यह प्रयास एक शहर से शुरू होकर आज 60 शहरों तक पहुंच चुका है.
भूतोड़िया ने स्वीकार किया कि क्षेत्रीय भाषाओं की पब्लिशिंग इंडस्ट्री अंग्रेजी के मुकाबले बहुत अव्यवस्थित है. कई बार उन्हें लोकप्रिय गीतों की फोटोकॉपी करके दर्शकों को देनी पड़ी, क्योंकि मूल पुस्तकें उपलब्ध नहीं थीं.
भोजन और संस्कृति का रिश्ता
संदीप भूतोड़िया ने यात्राओं और खान-पान के माध्यम से संस्कृति के फैलाव पर जोर दिया. उन्होंने कहा कि इतिहास से वर्तमान तक भारतीय फिल्में, पोशाक और खान-पान अप्रवासी भारतीय अपने साथ ले गए हैं. उन्होंने ब्राजील के साओपालो में तंदूर रेस्टोरेंट का उदाहरण दिया, जहां मिर्च-मसाले उपलब्ध नहीं थे, लेकिन अप्रवासी भारतीय अपनी संस्कृति के लिए रियो और अमेरिका से मसाले मंगाते थे. यह सिद्ध करता है कि खान-पान अपनी संस्कृति को जीने का एक महत्वपूर्ण माध्यम है.
अफ्रीकी गांव का संस्मरण सुनाया
भूतोड़िया ने अफ्रीका का एक संस्मरण सुनाया, जहां एक छोटे से अफ्रीकी गांव में भारतीय समुदाय एक मूर्ति को शंकर भगवान की मूर्ति मानकर पूजा कर रहा था, जबकि वह वास्तव में काली माता की मूर्ति थी, क्योंकि उनकी जीभ बाहर थी. यह दर्शाता है कि श्रद्धा और भक्ति का भाव अक्सर तर्क से परे होता है और कई बार सत्य जानते हुए भी भावनाओं के कारण नहीं बोला जाता.
युवाओं के लिए संदेश
सत्र के अंत में, पैनलिस्टों ने युवा पीढ़ी के लिए ये संदेश दिए. अशोक कुमार बल ने कहा कि आर्ट, लिटरेचर और कल्चर को अपनी प्राथमिकता सूची में ऊपर लाएं. हमें ये सुनिश्चित करना चाहिए कि साहित्य महोत्सव जैसे मंच शहरी-केंद्रित न रहें, बल्कि हाशिये पर खड़ी भाषाओं और लोगों तक भी पहुंचें.
डॉ. संध्या पुरेचा बोलीं कि संस्कृति की समृद्धि प्राचीनता में नहीं है, बल्कि उसकी निरंतरता में है. इसलिए, निरंतर अपनी संस्कृति और साहित्य से जुड़ते रहिए.
वहीं, भूतोड़िया ने युवा पीढ़ी को संदेश दिया कि आवाज को शब्द बनाएंं और जो शब्द लिखे हुए हैं उनको अपनी आवाज न बनने दें.