राजधानी दिल्ली के मेजर ध्यानचंद स्टेडियम में चल रहे साहित्यिक महाकुंभ 'साहित्य आजतक 2025' का आज अंतिम दिन रहा. कला, कविता और कहानियों की इस तीन दिवसीय महफिल में देशभर के जाने-माने साहित्यकार शामिल हुए. प्रोफेसर खालिद जावेद का विशेष सत्र 'उर्दू अदब का नया शहंशाह...' चर्चा का केंद्र रहा. 'आखिरी दावत', 'नेमतखाना' और 'मौत की किताब' जैसी कृतियों के लेखक खालिद जावेद ने अपने निजी सफर, दर्शनशास्त्र के साथ अपने गहरे जुड़ाव और एक सच्चे लेखक के निर्माण की प्रक्रिया पर खुलकर बात की.
अपने लेखन की शुरुआत से लेकर अस्तित्व की तलाश तक, उन्होंने साहित्य और जीवन के गहरे रहस्यों को उजागर किया.
प्रोफेसर खालिद जावेद ने अपनी साहित्यिक यात्रा की शुरुआत के बारे में बताया कि जैसे ही होश संभाला, वैसे ही शुरुआत हो गई, हालांकि शब्दों में यह अभिव्यक्ति बाद में आई. उनके अनुसार, किसी चीज की खास संवेदना ही लेखन की असली शुरुआत होती है. वह स्पष्ट करते हैं कि लेखक बनाए नहीं जाते हैं, जैसे मैनेजर या डॉक्टर प्रशिक्षित होकर बनते हैं.
प्रोफेसर खालिद को दर्शन शास्त्र में गहरी दिलचस्पी थी और उन्होंने साइंस से ग्रेजुएशन किया था. साइंस से ग्रेजुएशन के बाद उन्हें समझ आया कि इसका और दर्शन का गहरा ताल्लुक है. वह बताते हैं कि क्वांटम फिजिक्स पढ़ने के बाद उन्हें महसूस हुआ कि मैटर और एनर्जी के बीच एक दार्शनिक संबंध है, जहां यह कोई नहीं बता सकता कि पदार्थ कब ऊर्जा में बदल जाएगा. इसी जिज्ञासा ने उन्हें साइंस छोड़कर दर्शन शास्त्र में मास्टर्स डिग्री लेने के लिए प्रेरित किया और बाद में उन्होंने पांच साल तक दर्शन शास्त्र का अध्यापन भी किया.
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खालिद जावेद ने साहित्य और दर्शन के बीच का फर्क और जुड़ाव बहुत खूबसूरती से समझाया. उनके अनुसार, दर्शन में जो विचार होते हैं, वे सार्वभौमिक विचार होते हैं. वह कहते हैं, "यही अमूर्त विचार जब इंसानी जिंदगी से जुड़ जाते हैं, तो ये 'इंप्रेशन' की शक्ल ले लेते हैं." उनका मानना है कि जो सिर्फ अमूर्त विचार हैं, जब वे इंसान की जिंदगी में शामिल होते हैं, तो उनमें मानवीय कोण पैदा हो जाता है. इसी एहसास ने उन्हें 'दुख के गड्ढे' को भरने और साहित्य की ओर मुड़ने के लिए प्रेरित किया. उनके लिए, साहित्य और दर्शन एक ही नदी के दो किनारे हैं और वह किसी एक जगह ठहर नहीं पाए, बल्कि दोनों किनारों के बीच बहते रहते हैं.
प्रोफेसर खालिद जावेद पाश्चात्य लेखन पैटर्न को फॉलो नहीं करते, बल्कि भारतीय लेखन की शैली को आगे बढ़ाते हैं. उनका मानना है कि कोई भी राइटर बंद कमरे में बैठकर नहीं लिख सकता, क्योंकि साहित्य का ताल्लुक मानवीय संवेदनाओं से है. वह कहते हैं कि सारी दुनिया के मानव एक हैं, भले ही उनके कल्चर अलग-अलग हों. हो सकता है कि अभिव्यक्ति का तरीका अलग हो, लेकिन प्रेम का स्वरूप हर जगह एक जैसा है. इतना ही नहीं अस्तित्ववाद पर बोलते हुए, उन्होंने स्पष्ट किया कि यह कोई पश्चिमी फिलॉसफी नहीं है, बल्कि यह पहले और दूसरे विश्व युद्ध के बीच 'स्कूल ऑफ थॉट' की तरह जन्मी थी.
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खालिद जावेद ने अस्तित्व की तलाश पर कहा कि अस्तित्व के रास्ते वे रास्ते हैं, जो कभी खत्म नहीं होंगे. मंजिल सिर्फ एक पड़ाव होती है. मृत्यु पर उनका दर्शन और भी गहरा है, क्योंकि मृत्यु का कोई फुलस्टॉप नहीं है. जिस दिन हम पैदा होते हैं, उसी दिन मृत्यु भी साथ पैदा हो जाती है, लेकिन मानते हम कहीं आगे जाकर हैं. बुद्ध से सर्वाधिक प्रभावित खालिद जावेद का मानना है कि कला का काम हमेशा यह है कि वह वास्तविकता को उल्टा करके दिखाएगी.
बुढ़ापे से बचपन की ओर बढ़ना एक उलटी विकासियत है. इस पर वह कहते हैं कि अगर आपको फिर से मासूम होना है, तो उसके लिए आपको बूढ़ा होना पड़ेगा, क्योंकि जैसे-जैसे उम्र बढ़ती है, वह आपको 'आलूदा' करती जाती है.
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प्रोफेसर खालिद कहते हैं कि अगर आप किस्सा नहीं कह सकते, तो आप राइटर नहीं बन सकते. एक राइटर अपनी रचनात्मक प्रक्रिया के बारे में पूरी तरह जानता नहीं है, क्योंकि उसमें इतना दबाव होता है कि आपको लगता है कि आप सोच-समझकर लिख रहे हैं. दूसरी बात यह है कि लिखते समय लेखक को एकांत और स्पेस चाहिए, क्योंकि आपको अपने 'अहंकार' को काटकर फेंक देना होता है, वरना आप फिक्शन राइटर नहीं बन सकते.
उन्होंने बताया कि उनके लेखन में भाषा का गुण पढ़ने से आया है और उन्होंने पॉपुलर लिटरेचर बहुत पढ़ा है. इतना ही नहीं 9 साल की उम्र में उनकी कहानी छप भी गई थी. इसके अलावा, वह अपने लेखन शैली का श्रेय खुद को देते हैं और कहते हैं कि अगर कोई उनके लेखन स्टाइल को कॉपी करने का दावा कर दे, तो वह लिखना छोड़ देंगे.
युवाओं पर सोशल मीडिया के प्रभाव पर उन्होंने कहा कि इससे एक नई तरह की संवेदनशीलता पैदा हो रही है. सोशल मीडिया के बड़े फायदे हैं, लेकिन इसने एक तरह की तात्कालिकता पैदा की है, जो पानी के बुलबुले की तरह जल्दी चली भी जाती है.
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