भारतीय मीडिया जगत में जब 'पुस्तक' चर्चाओं के लिए जगह छीजती जा रही थी, तब इंडिया टुडे समूह के साहित्य के प्रति समर्पित डिजिटल चैनल 'साहित्य तक' ने हर दिन किताबों के लिए देना शुरू किया. इसके लिए एक खास कार्यक्रम 'बुक कैफे' की शुरुआत की गई...इस कार्यक्रम में 'एक दिन एक किताब' के तहत हर दिन किसी पुस्तक की चर्चा होती है. पूरे साल इस कार्यक्रम में पढ़ी गई पुस्तकों में से 'बुक कैफे टॉप 10' की यह शृंखला वर्ष के अंत में होती है. इसी क्रम में आज 'युवा-कलम' श्रेणी की पुस्तकों की बात की जा रही है.
साल 2021 की जनवरी में शुरू हुए 'बुक कैफे' को दर्शकों का भरपूर प्यार तो मिला ही, भारतीय साहित्य जगत ने भी उसे खूब सराहा. तब हमने कहा था- एक ही जगह बाजार में आई नई किताबों की जानकारी मिल जाए, तो किताबें पढ़ने के शौकीनों के लिए इससे लाजवाब बात क्या हो सकती है? अगर आपको भी है किताबें पढ़ने का शौक, और उनके बारे में है जानने की चाहत, तो आपके लिए सबसे अच्छी जगह है साहित्य तक का 'बुक कैफे'.
हमारा लक्ष्य इन शब्दों में साफ दिख रहा था- "आखर, जो छपकर हो जाते हैं अमर... जो पहुंचते हैं आपके पास किताबों की शक्ल में...जिन्हें पढ़ आप हमेशा कुछ न कुछ पाते हैं, गुजरते हैं नए भाव लोक, कथा लोक, चिंतन और विचारों के प्रवाह में. पढ़ते हैं, कविता, नज़्म, ग़ज़ल, निबंध, राजनीति, इतिहास, उपन्यास या फिर ज्ञान-विज्ञान... जिनसे पाते हैं जानकारी दुनिया-जहान की और करते हैं छपे आखरों के साथ ही एक यात्रा अपने अंदर की. साहित्य तक के द्वारा 'बुक कैफे' में हम आपकी इसी रुचि में सहायता करने की एक कोशिश कर रहे हैं."
हमें खुशी है कि हमारे इस अभियान में प्रकाशकों, लेखकों, पाठकों, पुस्तक प्रेमियों का बेपनाह प्यार मिला. इसी वजह से हमने शुरू में पुस्तक चर्चा के इस साप्ताहिक क्रम को 'एक दिन, एक किताब' के तहत दैनिक उत्सव में बदल दिया. साल 2021 में ही हमने 'साहित्य तक बुक कैफे टॉप 10' की शृंखला भी शुरू की. उस साल हमने केवल अनुवाद, कथेतर, कहानी, उपन्यास, कविता श्रेणी में टॉप 10 पुस्तकें चुनी थीं.
साल 2022 में हमें लेखकों, प्रकाशकों और पुस्तक प्रेमियों से हज़ारों की संख्या में पुस्तकें प्राप्त हुईं. पुस्तक प्रेमियों का दबाव अधिक था और हमारे लिए सभी पुस्तकों पर चर्चा मुश्किल थी, इसलिए 2022 की मई में हम 'बुक कैफ़े' की इस कड़ी में 'किताबें मिली' नामक कार्यक्रम जोड़ने के लिए बाध्य हो गए. इस शृंखला में हम पाठकों को प्रकाशकों से प्राप्त पुस्तकों की सूचना देते हैं.
इनके अलावा आपके प्रिय लेखकों और प्रेरक शख्सियतों से उनके जीवन-कर्म पर आधारित संवाद कार्यक्रम 'बातें-मुलाकातें' और किसी चर्चित कृति पर उसके लेखक से चर्चा का कार्यक्रम 'शब्द-रथी' भी 'बुक कैफे' की पुस्तक संस्कृति को बढ़ावा देने वाली कड़ी का ही एक हिस्सा है.
साल 2022 के कुछ ही दिन शेष बचे हैं, तब हम एक बार फिर 'साहित्य तक: बुक कैफे टॉप 10' की चर्चा के साथ उपस्थित हैं. इस साल कुल 17 श्रेणियों में टॉप 10 पुस्तकें चुनी गई हैं. साहित्य तक किसी भी रूप में इन्हें कोई रैंकिंग करार नहीं दे रहा. संभव है कुछ बेहतरीन पुस्तकें हम तक पहुंची ही न हों, या कुछ पुस्तकों की चर्चा रह गई हो. पर 'बुक कैफे' में शामिल अपनी विधा की चुनी हुई ये टॉप 10 पुस्तकें अवश्य हैं.
पुस्तक संस्कृति को बढ़ावा देने की 'साहित्य तक' की कोशिशों के प्रति सहयोग देने के लिए आप सभी का आभार.
साहित्य तक 'बुक कैफे-टॉप 10' साल 2022 की 'युवा-कलम' श्रेणी की पुस्तकें हैं ये
* 'वह साल बयालीस था', रश्मि भारद्वाज, यह एक अनूठा प्रेम-उपन्यास है. अब न तो ऐसा प्यार दिखता है न ही ऐसे किरदार. इस उपन्यास रूप और रुद्र के दारुण प्रेम के अलावा भी बहुत कुछ है, मसलन अनाहिता की मुसलमान मां-फ़ौजिया, जिसका प्रेम उसे मुक्त न रख सका और वह घुट-घुटकर मर गयी; बुआ मुक्ता- जिसका किरदार अगड़े-पिछड़े के ज़ख़्म पर लगे मरहम-सा महसूस होता है; दादा- जिसने प्रेम को इतना उदात्त और मुक्त रखा कि वह आजीवन उनसे लिपटा रहा. आज़ादी की तड़प, साम्प्रदायिक विभाजन, प्रेम के बदलते स्वरूप और युवा पीढ़ी के लिए उनके बदलते मायने के बीच भी प्यार में त्याग छिपा होता है का संदेश देती यह कृति एक भावप्रवण कवयित्री की जादुई शैली और भाषा-विन्यास से एक मधुर गीत-सी लगती है. प्रकाशक: सेतु प्रकाशन
* 'दुखांतिका', नवनीत नीरव, भूमंडलोत्तर कथा पीढ़ी की युवतम खेप के प्रतिनिधि कथाकार के इस संकलन में शामिल कहानियां अपनी सहज भाषा और समाज के सबसे कमज़ोर और वंचित व्यक्ति के प्रति अपनी निष्कंप आस्था के कारण पाठकों का ध्यान खींचती हैं. कथा-निर्मिति की प्रक्रिया में नवनीत न तो कला की अबूझ दुर्गम कन्दराओं में जाते हैं न ही यथार्थ के स्थूल और अनगढ़ प्रस्तर-खंड को ही कहानी की तरह स्थापित करते हैं. इनके विपरीत वे पात्र और परिवेश के बीच संवाद की रचनात्मक युक्तियों से एक ऐसी दुनिया की पुनर्रचना करते हैं, जहां कला और यथार्थ एक-दूसरे का मूल्य संवर्धन कर सकें. उनके इस रचनात्मक उपक्रम में कला की सूक्ष्मताएं कब यथार्थ की खुरदुरी हथेली थाम लेती हैं और कब यथार्थ की नुकीली धार कला के बारीक उपकरण का स्वरूप हासिल कर लेती है, पता ही नहीं चलता. प्रकाशक: अंतिका प्रकाशन
* 'लपूझन्ना', अशोक पाण्डेय, यह पुस्तक 1970 के दशक के उत्तरार्ध में, उत्तर भारत के एक छोटे-से क़स्बे रामनगर में बिताए गए एक शख्स के बचपन का वृत्तांत है. यह एक नौ-दस साल के बच्चे की निगाह से देखी गई ज़िंदगी है, जो इतने सारे देखे-अदेखे रंगों के साथ पाठकों के सामने आती है कि पढ़ने वाला गहरे-मीठे नॉस्टैल्जिया में डूबने-उतराने लगता है. बचपन के निश्छल खेल, जल्लाद मास्टर, गुलाबी रिबन पहनने वाली लड़कियां, मेले-ठेले, पतंगबाज़ी और फ़ुटबॉल के क़िस्सों के बीच दोस्तों से भरी एक अलमस्त दुनिया के किस्सों से भरपूर यह पुस्तक भाषा और स्मृति के बीच एक अदृश्य पुल का निर्माण करने की कोशिश करती है. प्रकाशक: हिन्द युग्म
* 'पथ ही मुड़ गया', ज्योति कुमारी, यह एक नाट्य-पुस्तक है, जिसके द्वारा लेखिका समाज को आईना दिखाने की कोशिश करती हैं. यह पुस्तक अपने अबोध नायिका के द्वारा यौन उत्पीड़न की शिकार उन तमाम बच्चे-बच्चियों को संदेश देने की कोशिश करती है, जिनका जीवन दूसरों के जुर्म के वजह से नारकीय हो गया. इस नाटक का हर पात्र अपनी एक कहानी के साथ, पाठकों को यह सोचने के लिए मजबूर करता है कि समाज में फैले यौन उत्पीड़न के कुकर्म का यह चक्र आखिर कब तक चलेगा और इस पर अंकुश लगाने के लिए और कितनी जद्दोजहद करनी पड़ेगी. प्रकाशक: प्रलेक प्रकाशन
* 'पुद्दन कथा', देवेश, यह कोरोना काल में पुद्दन, उनके गांव नरहरपुर, ससुराल नौशादपुर और इनके बीच साली की शादी के इर्दगिर्द बुना गया बेहद मार्मिक उपन्यास है, जो हमारे समय और व्यवस्था की कलई खोल देता है. वायरस के बीच उत्सवों और मेलजोल, यारी से बिंदास जिंदगी पर डर और भय, आशंकाओं का फैलता जाल, आइसोलेशन को लेकर कौतूहल और अस्पतालों में जगह की मारामारी के बीच अपनी-अपनी अच्छाई और बुराई के साथ जिंदादिल लोग इस उपन्यास की खासियत हैं. धोखे और विश्वास, प्रपंच और लगाव से भरे हुए ये किरदार मुसीबतों के बीच वे रोते-रोते हंसी-ठट्ठा भी कर लेते हैं. गीत भी गा लेते हैं. पुद्दन कथा गांव-गिरांव की कोरोनाकालीन ऐसी कथात्मक रपट है जिसे पढ़ते हुए आंखें भर आती हैं. गुदगुदी उठती है. मुस्कान चुहल करती है. प्रकाशक: राधाकृष्ण प्रकाशन
* 'लव ड्रग', इरा टाक, इश्क़ कभी भी, किसी भी रूप में दिल पर दस्तक दे सकता है, और इसकी लत कुछ-कुछ ड्रग की तरह होती है. यह इश्क़ की एक जुनूनी दास्तान है. शांत शाज़िया और चुलबुले मार्टिन की इंटेंस लव स्टोरी यह बताती है कि क्या दो अलग दुनियाओं के ये लोग इश्क़ की हद को लांघ पाएंगे? क्या शाजिया फिर से लव ड्रग को चख लेगी? प्रेम की अनोखी किस्सागोई आज के युवाओं को लुभाती है. प्रकाशक: पेंगुइन रैंडम हाउस इंडिया
* 'देहरी पर ठिठकी धूप', अमित गुप्ता, इस उपन्यास की पाठ भूमि समलैंगिक संबंधों को अलग धरातल देती है. एक तरफ LGBTQ समुदाय है, आम मनुष्य हैं, स्त्री है, इनके मन की लालसा, अभीप्सा, कामना, संघर्ष और लांछन है, तो दूसरी तरफ समलिंगी प्रेम की स्वाभाविकता और संबंधों की उलझन है. इस उपन्यास के नायक- नायिका, दोनों परिवार की मौजूदा संरचना के बीचोबीच जाकर सम्बन्धों, भावनाओं और कामनाओं के संजाल में आपसी समझ का ऐसा रास्ता निकालते हैं, जो पीड़ाजनक तो है, लेकिन आधुनिक वयस्क मन को स्वीकार्य है. सरल और संक्षिप्त कथानक के माध्यम से यह उपन्यास धारा 377 के हटाए जाने के कुछ ही समय पहले शुरू होता है, और कोर्ट के इस वक्तव्य के कुछ बाद तक चलता है, कि 'इतिहास को LGBTQ समुदाय से, उन्हें दी गई यातना के लिए माफ़ी मांगनी चाहिए.' प्रकाशक: राधाकृष्ण प्रकाशन
* 'अपने पैरों पर!', भवतोष पाण्डेय, यह उपन्यास शिक्षा माफिया और बाज़ार के क्रूर नेक्सस से लड़ते एक मध्यमवर्गीय परिवार की कहानी है. इंजीनियरिंग कर लोगे तो आपकी मार्केट वैल्यू इतनी होगी, एमबीए करोगे तो इतनी और दोनों करोगे तो इतनी! ' इस तरह से एजुकेशन अब कमोडिटी की तरह बेचा और ख़रीदा जा रहा है. पढ़ाई के लिए लिया गया लोन अधिकांश के गले की फांस बन जाता क्योंकि एडमिशन के समय दिखाए गए सब्ज़बाग या तो सूख जाते या फिर वास्तव में वो बाग न होकर एक गमले की तरह निकलते! मार्केट में लाखों के इस निवेश पर मिला रिटर्न बहुत ही कमज़ोर है. इस लोन की जकड़ से निकलकर अपने पैरों पर खड़े होने के महत्वाकांक्षी लक्ष्य को पाने हेतु नायक एक अंतहीन यात्रा पर निकल पड़ता है और हर ठहराव पर एक ही सवाल अपने आप से पूछता है कि क्या वह अपने पैरों पर खड़ा हो पाया. प्रकाशक: नोशन प्रेस
* 'उनका आखिरी गाना', रॉइन रागा और रिझ्झम रागा, बेकार या गैरज़रूरी मान ली गईं चीज़ें इस कहानी के मुख्य किरदार हैं, लेकिन यह कहानी यहीं नहीं रुकती दस दिन की यह कहानी जीना-मरना, यारी-दोस्ती और आख़िरी ख़्वाहिश सब कुछ सिखा जाती है. उनका यह उपन्यास लेखक बंधुओं के प्रकृति से लगाव को उजागर करता है. एक वृक्ष, उस पर निवासरत पक्षियों के बहाने यह उपन्यास अपने समय, सोच, मानवता और व्यवस्था पर सवाल खड़े करता है और यह सोचने के लिए बाध्य करता है कि नगरीय संस्कृति के नाम पर हम कहां जा रहे हैं. प्रकाशक: कलामोस लिटरेरी सर्विसेज
* 'घासी: लाल कैंपस का भगवाधारी', ललित फुलारा, यह उपन्यास ऐसे जीवंत क़िरदारों पर आधारित है, जो इतने सच्चे हैं कि लेखक के साथ उठते-बैठते, खाते-पीते और चलते हैं. लेखक ने करीने से इनको इस भ्रम में रखा था कि तुम्हारे बारे में झूठ लिखा जा रहा है. ये पात्र क़रीब एक दशक से लेखक के दिमाग़ में बेताल की तरह बैठे हुए थे, कि अचानक पूरी दुनिया रहस्यमय वायरस के तूफ़ान में फंस गई और उनके मन के कोने से उठकर ये पन्नों पर छटपटा उठे. प्रकाशक: यश पब्लिकेशंस
सभी लेखकों, प्रकाशकों, अनुवादकों को बधाई!