यह दौर जीवनियों, संस्मरणों और आत्मकथाओं का है. पर आत्मकथाएं जीवनियां और संस्मरण तो नायकों के होते हैं. लोगों की दिलचस्पी उनके नायकत्व में होती है, किन्तु एक ऐसा शख्स जिसने बालीवुड की फिल्मों में केवल खलनायक के रोल किये हों, बुरे से बुरे किरदारों को निभाया हो, बलात्कार, हत्या और ऐसी ही भूमिकाओं में जिसने अपनी पूरी जिन्दगी बिता दी हो, उसकी जीवनी भी लोगों के लिए दिलचस्पी का विषय हो सकती है यह सिद्ध किया है हाल ही यश पब्लिकेशंस से छपी फिल्मी खलनायक प्रेम चोपड़ा के जीवन पर उनकी बेटी रकिता नंदा की लिखी किताब- प्रेम नाम है मेरा- प्रेम चोपड़ा ने.
प्रेम चोपड़ा की जीवनी उनके बचपन, उनके संघर्ष, फिल्मी दुनिया में उनकी जद्दोजेहद, खलनायक के रूप में उनकी सफलताओं, उनकी गृहस्थी, उनके दोस्त, अपने समय के फिल्मी अभिनेताओं के साथ उनकी विभिन्न यादगार भूमिकाओं, उनके बारे में उनके दोस्तों, बालीवुड के लोगों के संस्मरणों से भरी है. यह पुस्तक एक ऐसे शख्स के बारे में बताती है जो जाती जिन्दगी में बहुत नेकदिल है. जिसकी ख्वाहिश थी कि अभिनय की दुनिया में वह एक हीरो के रूप में कामयाब हो, उसे एक आदर्श अभिनेता के रूप मे शोहरत मिले पर कुदरत ने उसके लिए जो भूमिकाएं तय की थीं, वे थीं खलनायक की. पर इस सदाबहार अभिनेता ने खलनायक के रोल में भी जिन-जिन किरदारों को निभाया और अभिनीत किया उन्हें सिनेपट पर अमर कर दिया।
उनका यह डायलॉग 'प्रेम नाम है मेरा...प्रेम चोपड़ा' जिसे कभी 'बॉबी' फिल्म की शूटिंग के दौरान राजकपूर ने उनसे बुलवाया था, बाद में उनकी पहचान का केंद्र बन गया. एक बार डलहौजी से शूटिंग कर ट्रेन से लौटते हुए टीटी ने उन्हें पहचान लिया तो अगले स्टेशन पर सिने प्रेमियों की भीड़ जुट गयी तथा इसरार कर उनके मुंह से यह डायलाग सुनकर अभिभूत हो गयी. प्रेम चोपड़ा को यह अनुमान नहीं था कि लोग खलनायकों के किरदार निभाने वाले अभिनेताओं को भी इतना पसंद करते हैं. वे ऐसे अनेक मौकों पर भीड़ में घिर कर अपनी शोहरत का मजा लेते और ईश्वर का धन्यवाद अदा करते कि उन्हें चाहने वाले देश दुनिया में करोड़ों लोग हैं. हाल ही विश्व पुस्तक मेले में यह किताब आई तो लेखक मंच पर उन्हें सुनने वालों की भीड़ जमा हो गयी. अपनी ही शादी के बारे में बताते हुए वे यह बात भी बताना नहीं भूलते कि बुरे किरदारों को निभाने के कारण इस बारे में उनके बारे में लड़कियों व उनके पिता के क्या खयाल होते.
रकिता नंदा ने इस पुस्तक का एक-एक अध्याय बहुत धीरज से लिखा है, जिसका उतनी ही प्रवाहमयी भाषा में श्रुति अग्रवाल ने अनुवाद किया है. इस बहाने न केवल अपने पिता प्रेम चोपड़ा पर बल्कि गए पांच दशकों की फिल्मी दुनिया पर भी रकिता नंदा ने रोशनी डाली है. शुरुआती सफरनामे से लेकर बंबई की कठिन डगर, 60 के दशक की बंबई, शुरुआती फिल्मों, विभिन्न अभिनेताओं के साथ की गयी फिल्मों के बारे में, अपनी शादी और गृहस्थी, खलनायक बनने की दास्तान, बहन की शादी के प्रसंग, बेटियों की शादी में उनकी कुख्याति से होने वाली अड़चनों, कई पीढ़ियों के कलाकारों के साथ अभिनय करने, बेटियों, बच्चों, परिवारजनों, यादगार फिल्मों के साथ दिलीप कुमार, मनोज कुमार, अमिताभ बच्चन, धर्मेंद्र, राजेश खन्ना, रणधीर कपूर, केतन देसाई, राजीव कपूर और अनेक समकालीनों के साथ उनके रिश्तों व उनके बारे में व्यक्त विचारों का यह एक ऐसा अनुष्ठान है, जो बड़े-बड़े नायकों को नसीब नहीं होता, और जब पुस्तक किसी अभिनेता के बारे में उसकी बेटी ही लिख रही हो तो यह जीवनी बहुत महत्त्वपूर्ण और विश्वसनीय हो जाती है. प्राय: खलनायक का किरदार निभाने वाले अपने पिता के भीतर के नायकत्व को खंगालने वाली रकिता ने अंतत: यह पुस्तक लिख कर सिद्ध किया है कि किरदार कोई हो, व्यक्ति को उसके वास्तविक जीवन-प्रसंगों से समझा जाना चाहिए.
अपनी भूमिका में रकिता नंदा इस पुस्तक को लिखवाने का श्रेय अपने पति राहुल नंदा को देती हैं. उन्होंने इसे पिता के आत्मकथ्य के रूप में दर्ज किया है. पूरे पांच दशकों तक फिल्मी दुनिया में कामयाबी के साथ अभिनय करने वाले प्रेम चोपड़ा के जीवन को लिपिबद्ध करना आसान नहीं था. पिता को फ्लैश बैक में ले जाने, उनकी यादों को समेटने, पिता के विभिन्न रूपों, पिता, दोस्त, किरदार, भाई, खलनायक हर रूप को आत्मसात करना रकिता के लिए एक नया अनुभव था, जैसे कि वह उनके पदचिह्नों पर उन्हीं रास्तों से फिर गुजर रही हैं, जिनसे होकर वे गुजरे हैं. इस काम में मां उमा ने काफी मदद की जिन्होंने 1969 से पिता के बारे में पत्र-पत्रिकाओं में निकली हर खबर प्रोफाइल आदि को सहेज कर रखा था. इससे रकिता को पिता के जीवन की ओर मुड़ कर देखने में आसानी हुई. यह कहानी भले ही पिता की जबानी है पर रकिता ने इसे लिखते हुए जैसे अपने ही पिता का अपने भीतर पुनर्जन्म होना महसूस किया है.
यों तो पुस्तक संस्मरणों से भरी पड़ी है. पग-पग पर मुंबई की फिल्मी दुनिया, फिल्मों और जीवन के अनेक प्रसंगों उनकी यादों में जीवंत हो उठते हैं. पर उनके व्यक्तित्व के अनेक उतारचढ़ावों भरी जिन्दगी की यहां एक से घटनाएं हैं जो यादगार भी हैं तथा प्रेरक भी. खलनायक के रूप में उन्हें उपकार, वारिस, दो रास्ते, कटी पतंग, पूरब और पश्चिम, बॉबी, प्रेम नगर, काला पत्थर, त्रिशूल, दोस्ताना, क्रांति, सौतन, मर्द, फूल बने अंगारे, एजेंट विनोद जैसी फिल्मों के लिए याद किया जाता है, तो सिकंदरे आजम, कुंवारी, शहीद, जादू टोना, प्रेम प्रतिज्ञा आदि में कुछ सकारात्मक चरित्र भूमिकाओं के लिए भी.
पिता रनबीर लाल व मां रुपरानी की तीसरी संतान के रूप में लाहौर की कृष्णागली नंबर 5 में जन्मे प्रेम चोपड़ा अपने दादा बसंत राय चोपड़ा के लाड़ले थे. बाद में शिमला में पढ़े-लिखे प्रेम वहां नाट्यमंचन से भी जुड़े जिनके अभिनय को काफी सराहना मिलती थी. थियेटर से यह जुड़ाव ही उन्हें फिल्म के रुपहले पर्दे की ओर खींच ले गया. उन्हें फिल्में देखने का शौक भी यहीं विकसित हुआ. हालांकि वे दिलीप कुमार, देवआनंद और राजकपूर सबकी फिल्में देखा करते थे पर दिलीप कुमार की अभिनय शैली ने उन्हें ज्यादा प्रभावित किया. शिमला से दिल्ली और दिल्ली से बंबई का रुख करने वाले प्रेम बीस की उम्र में बंबई पहुंच तो गए पर संघर्ष सरल न था. कितनी ही बार वे स्टुडियोज के बाहर खड़े रहते कि किसी अभिनेता या निर्देशक की निगाह उन पर पड़े, पर निगाह पड़ी ट्रेन में सफर करते हुए एक शख्स की. उसने पूछा कि क्या तुम पंजाबी फिल्म में हीरो का रोल करोगे? प्रेम के पास हां करने के अलावा कोई रास्ता नहीं था. इस तरह पंजाबी फिल्मों से उनके काम की शुरुआत हुई. उसी दौर में उनकी उस जमाने के काबिल निर्देशक महबूब खान से मुलाकात हुई. 1961 में उनकी भेंट एनएन सिप्पी से हुई. महबूब खान ने काम देने का वायदा किया था पर जब इसी बीच 'वो कौन थी' में उनको खलनायक के रूप में देखा तो बहुत निराश हुए. उनका कहना था, 'अब तुम कभी हीरो नहीं बन सकते पर यह फिल्म बहुत हिट होगी.' फिल्म हिट हुई. एक रास्ता तैयार हो चुका था. उनकी इमेज खलनायक की बन चुकी थी.
इस जीवनी सह आत्मकथा में ऐसे किस्सों की भरमार है, जिनके बीच यह देखना बेहद सुखद है कि एक खलनायक के भीतर भी कैसे एक संपूर्ण इंसान छिपा होता है. वह किरदार खलनायकी का भले ही निभाता है पर असल जिन्दगी में वह होता एक मनुष्य ही है. एक बेहतर खलनायक और बेहतर इंसान दोनों रूपों में यहां प्रेम चोपड़ा के व्यक्तित्व की ऊँचाइयां और गहराइयां दिखती हैं. इसमें उनका वह मानवीय रूप भी उजागर होता है, जिसे पर्दे पर उन्हें एक खास अंदाज में देखने के अभ्यस्त हो चुके लोग आसानी से समझ नहीं पाएंगे. दिलचस्प भाषा, सहज अनुवाद और बेहतरीन पुस्तक के रुप में यह पुस्तक सिनेप्रेमियों के लिए एक उपहार की तरह है, तो उन लोगों के लिए प्रेरक भी जो अभिनय की राह पर चल तो पड़े हैं पर उनका अपने पर, अपने संघर्ष पर भरोसा नहीं है.
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पुस्तक: प्रेम नाम है मेरा -प्रेम चोपड़ा
लेखिका: रकिता नंदा
मूल भाषाः अंग्रेजी
हिंदी अनुवादः श्रुति अग्रवाल
विधाः संस्मरण, जीवनी
प्रकाशकः यश पब्लिकेशंस
मूल्यः 299/- रुपए
पृष्ठ संख्याः 232