कविताएं और कहानियों का खास पहलू यह है कि वे हमें अतीत, वर्तमान और भविष्य की सैर बखूबी कराती है. यह सैर ऐसी होती है जहां आशाओं के बादल और निराशाओं के अंधकार से हमारा सामना एक साथ होता है.
कवि और कहानीकार के लिए सबसे मुश्किल काम यही है कि वह कैसे अपने पाठकों को निराश किए बिना सच्चाई दिखाए और एक उम्मीद की किरण भी छोड़ जाए. इस विधा में राष्ट्रकवि दिनकर की कोई सानी नहीं था. उनकी ओजस्वी कविताओं से लेकर गद्य के सुनहरे मोतियों में दर्शन और यथार्थ के बेशकीमती हीरे भरे हुए हैं. उनकी कविता आपको ख्यालातों की उर्वर भूमि की ओर बहा ले जाएगी तो गद्य हर पंक्ति पर रोकेंगे और सोचने पर मजबूर कर देंगे.
दिनकर का साहित्य ऐसा समुद्र है जिसमें आप जितना गोता लगाएंगे, वह उतना गहरा होता जाएगा. मेरा उनसे शुरुआती परिचय स्कूली किताबों के जरिये हुआ. तब मेरे लिए यही जरूरी था कि बस उस कविता को रट जाऊं और जहां कहीं भी जरूरत हो एक सांस में सुना दो. दूसरी बात जो मेरे दिमाग में घर कर गई थी कि उनकी कविताओं को कभी धीमे-धीमे नहीं पढ़ना है, हमेशा बुलंद आवाज में सुनाना है. मेरे जेहन में वह एक ओजस्वी कवि के रूप में स्थापित थे. लेकिन अब चीजें बदल चुकी हैं. सच कहूं तो दिनकर अब मुझे कवि से ज्यादा दार्शनिक लगने लगे हैं. दिनकर की रचना 'संस्कृति के चार अध्याय' को पढ़ते हुए कई ऐसे मौके आए जब सहमति और असहमति के सवाल पर लगा कि मेरे सवालों का जवाब सिर्फ दिनकर ही दे सकते हैं.
यह समय ऐसा है जब राजनीति और सत्ता के लालच की वजह से रोज सांप्रदायिकता को नया रंग दिया जा रहा है. इतिहास से छेड़छाड़ हो रही है, तथ्यों को गलत तरीके से पेश किया जा रहा है. कौन समाज का हीरो होगा, यह पीआर कैंपेन तय कर रहे हैं. झूठ का मकड़जाल बुना जा रहा है. प्रजातंत्र इसी झूठ, पाखंड और आडंबर के बोझ तले झुकता जा रहा है. ऐसे समय में दिनकर की रचनाएं और प्रासंगिक हो गई हैं और वे हमारे भीतर एक आक्रोश, सच को परखने की क्षमता और जीतने की ललक पैदा करती हैं.
हर आंदोलन में दिनकर की पंक्ति 'सिंहासन खाली करो, जनता आती है' आज भी उतनी ही प्रासंगिक है. दिनकर के समय में जो सियासी-समाजी सामाजिक हालात थे, वे कहीं न कहीं दूसरे रूपों में आज भी मौजूद हैं. बस जो बात अखरती है कि अब राजनीतिक धूर्तता को पहचान कर कलम के जरिये उसका व्यापक विरोध करने वाले बहुत कम बचे हैं. कुछ हैं तो उनका साहित्य जनता तक पहुंचने नहीं दिया जाता या उनकी हत्या हो जाती है. साहित्य में भी जाति, धर्म और लिंग ने इस कदर कब्जा कर रखा है कि अदब की दुनिया में दाखिल होने से पहले मठ में दाखिल होना होता है. मठ में मठाधीश की आज्ञा की जरूरत पड़ती है. वे मठाधीश जो विचारशील प्रयोगों को कूड़ा कहने के लिए कुख्यात हैं.
देश के ग्रामीण या शहरी इलाकों में पुस्तकालय या तो हैं ही नहीं या हैं भी तो बहुत ही जर्जर हालत में. ऐसे में बिहार के सिमरिया स्थित दिनकर पुस्तकालय का बिना किसी सरकारी मदद से निरंतर चलना किसी आदर्श से कम नहीं है. यह वो आदर्श है जिसे लेकर हर साल सिमरियावासी अपने पूर्वज और साहित्यकार दिनकर को बड़े ही एहतराम से याद रखते हैं. जिस तरह से सिमरिया में दिनकर जयंती मनाई जाती है, उस तरह का उल्लास हिंदी पट्टी के किसी भी लेखक के गांव में शायद ही देखने को मिलता हो.
मगर यहां भी दूसरी जगहों की तरह ही नई समस्याएं पैदा हो रही हैं. गांव में सरकारी और प्राइवेट स्कूलों की स्थिति का आकलन अगर पढ़ाई और सुविधाओं की दृष्टिकोण से करें तो हालात भयावह हैं. सैकड़ो युवा हर महीने नौकरी की खोज में गांव से पलायन करते हैं. दिनकर ने अपने गांव में कन्या विद्यालय की स्थापना उस समय करवाई थी, जब लोग लड़कियों की पढ़ाई-लिखाई के बारे में सोचते भी नहीं थे, लेकिन मौजूदा समय में यह कन्या विद्यालय बदहाल है. 12वीं की पढ़ाई के लिए गांव में बिल्डिंग भले ही तैयार हो लेकिन सालों गुजरने के बाद भी यहां शिक्षकों की कमी के कारण पढ़ाई शुरू नहीं हो पाई हो. हर साल दिनकर जयंती पर घोषणाओं के ढेर लग जाते हैं लेकिन उन्हें पूरा होने में दशकों तक इंतजार करना पड़ता है. यहां की लाइब्रेरी को अब ई-लाइब्रेरी बनाने पर ध्यान देना चाहिए था मगर संसाधनों के अभाव में यह काम भी नहीं हो पाया है.
कुछ दिन पहले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने दिल्ली के विज्ञान भवन में दिनकर की दो किताबों की 50 वीं वर्षगांठ पूरा होने पर आयोजित एक कार्यक्रम में शिरकत की थी. आशा थी कि उस कार्यक्रम में कुछ भी नया दिनकर के साहित्य या दिनकर के गांव के लिए निकलकर आएगा मगर ऐसा नहीं हुआ. पता नहीं क्या हुआ कि इस भाषण के बाद दिनकर के साहित्य से ज्यादा उनकी जाति पर बात होने लगी. हर कोई दिनकर को वोट बैंक की राजनीति में फिट कर लेना चाहता था. वही दिनकर जिन्होंने जाति के बंधनों पर प्रहार करते हुए लिखा:
' जाति-जाति रटते जिनकी पूंजी केवल पाखंड
मैं क्या जानूं जाति, जाति हैं ये मेरे भुजदंड'.
उस कवि को किसी जाति धर्म से बांधना उसकी रचनाओं की तौहीन है. दिनकर की रचनाओं ने लगातार जात-पात और धर्म की राजनीति के खिलाफ आपत्ति दर्ज कराई है और आगे भी कराती रहेंगी. उनका साहित्य किसी शासक या संभ्रांत वर्ग के लिए नहीं, आम लोगों के लिए है. प्रतिरोध के नारो में दिनकर कल भी मौजूद थे और आगे भी रहेंगे. बस डर इस बात का है कि बर्तोल ब्रेख्त की ये पंक्तियां कहीं सच न साबित हो जाएं.
'शार्क मछलियों को मैंने चकमा दिया
शेरों को मैंने छकाया
मुझे जिन्होंने हड़प लिया
वे खटमल थे.'