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सतत साधना और संघर्षों से सुंदर होती प्रकाश मनु की दुनिया

कविता से जिस कवि का आत्मिक जुड़ाव आधी सदी से भी अधिक पुराना हो, उस कवि की रचना-यात्रा और जीवन-यात्रा के बारे में उसकी किताबों से बेहतर भला कौन कुछ कह सकता है! आइए श्याम सुशील के साथ हम उस किताब के कवि प्रकाश मनु से मिलते हैं

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कवि प्रकाश मनु
कवि प्रकाश मनु

कविता से जिस कवि का आत्मिक जुड़ाव आधी सदी से भी अधिक पुराना हो, उस कवि की रचना-यात्रा और जीवन-यात्रा के बारे में उसकी किताबों से बेहतर भला कौन कुछ कह सकता है! आइए श्याम सुशील के साथ हम उस किताब के कवि से मिलते हैं जिसने अपना घर किताबों से बनाया है. उसके शब्दों में साँस लेते जीवन से मिलने की ललक मेरी तरह आप में भी अवश्य होगी.
वरिष्ठ रचनाकार प्रकाश मनु की सतत साधना और संघर्षों से उपजी अनुभूतियों का यह एक ऐसा घर है- जिसके दरवाजे किताबों के हैं, खिड़कियां किताबों की और किताबें ही एक कमरे से दूसरे कमरे तक ले जाती हैं. इस घर का आसमान जरा अलग है, उसके नियम-कायदे थोड़े अलग हैं : 
अगर आप जरा घमंडी हैं अफलातून
तो दोनों हाथ बढ़ाकर दाखिल होने से रोक देंगी किताबें 
दरवाजे पर लग जाएगी अर्गला
मगर गरीब रफूगर या आत्मा का दरवेश कोई नजर आए
तो उसे प्यार और आँसुओं से नहलाकर
दिल के आसन पर बैठाती हैं किताबें....
इस घर के आकाश में अनेक जगमगाते ध्रुव तारे हैं—गोर्की, प्रेमचंद, निराला, टैगोर, टॉलस्टाय, दोस्तोवस्की, चेखव, पुश्किन, सार्त्र, शेक्सपियर आदि. तमाम ग्रह-उपग्रह, सूरज-चाँद-तारे जो अपनी रोशनियों से धरती-आकाश को नहलाते रहते हैं. कवि के शब्दों में : 
मैंने जो घर बनाया है...
अकसर उसके अक्षर कबिरा की तान में तान मिलाकर
अजीब उलटबाँसियां सुनाने लगते हैं
नजरुल इस्लाम के विद्रोही गीत वहां सुलगते हैं
दिलों में तूफान उठाते
और मैं चौंक पड़ता हूं...
एक साथ कितने युग और इतिहास गले मिलते हैं
मेरे इस छोटे से किताबों के घर में...!
इस छोटे से किताबों के घर में रहने वाले रचनाकार की दुनिया में किसी तख्तनशीं का राज नहीं चलता. यहां तक कि ताकतवर लोग अकसर बिना बात 'पीपर पात सरिस' काँपते देखे गए हैं. उसकी दुनिया में सभी को अपनी बात जोर-शोर और बुलंदी से कहने का हक है. एक बच्चा भी अपनी किलकारी से पड़-पुरखों और जड़ विद्वानों की राय काट सकता है. प्रकाश मनु के 'कवि की दुनिया' इसलिए भी सुंदर है क्योंकि काम करते हुए लोग उन्हें सुंदर लगते हैं. वे स्वयं किसान, मजूर, दर्जी की तरह आजीवन कर्मलीन रहे हैं. तभी तो उन्हें—
सुंदर लगता है रिक्शा चलाता
हाजीपुर का अवधू रिक्शा वाला
सब्जी बेचती पारस गाँव की लक्ष्मी
और सुबह उठने से लेकर शाम तक काम में डूबे पिता
और बच्चा जिसे ड्राइंग की कापी में
दोस्तों के साथ पिकनिक का चित्र बनाना है
और इस बार 'नंदन' की चित्रकला प्रतियोगिता का इनाम जीतना है.
वे कहते हैं, "सुंदर है दुनिया सचमुच सुंदर/ काम करते लोगों से/ जिससे भीतर की नमी चेहरों पर आ जाती है/ और हम एकाएक जान जाते हैं कि काम करते लोगों की सूरत ही/ असल में होती है भगवान की सूरत!”
ऐसी सुंदर दुनिया की चाह रखने वाले कवि की जीवन-यात्रा 12 मई, 1950 को उत्तर प्रदेश की धरती शिकोहाबाद से शुरू होती है. उन्होंने 1970 के आसपास लिखना शुरू किया. तब वे बीस बरस के थे और तभी से कविता उनकी सहयात्री है. आगरा कॉलेज से भौतिक विज्ञान में एम.एस-सी. करने के बाद उन्होंने मन के द्वंद्व और एक गहरी ऊहापोह से गुजरकर, एक बहुत बड़ा निर्णय लिया और घर वालों को बताया : 
"मैं अब नए सिरे से जीवन की शुरुआत करना चाहता हूं. मैं हिंदी साहित्य से एम.ए. करूँगा, फिर पी-एच.डी. और एक बिल्कुल अलग सा जीवन जिऊंगा.” 
और उसी दिन उनके जीवन का मकसद तय हो गया—लिखना, लिखना, निरंतर लिखना...! लिखना और पढ़ना. पढ़ना और लिखना....इस पढ़ाई-लिखाई और नौकरी, घर-परिवार को साधने के संघर्षों के साथ वे साहित्य की दुनिया में अपनी राह बनाते हुए निरंतर अपनी धुन में आगे बढ़ते रहे, और उम्र के 75 वें पड़ाव पर पहुँचकर आज वे पहले से और अधिक अपने पठन-विश्लेषण, रचनात्मक साहित्य-सृजन में सक्रिय हैं.
कविता, कहानी, उपन्यास, संस्मरण, आलोचना, साक्षात्कार, इतिहास और बाल साहित्य की तमाम विधाओं में विपुल साहित्य रचने वाले मनु जी के लिए पाठकों का प्यार ही सबसे बड़ा सम्मान और पुरस्कार रहा है. कविता-संकलन 'छूटता हुआ घर' पर प्रथम गिरिजाकुमार माथुर स्मृति पुरस्कार, बाल उपन्यास 'एक था ठुनठुनिया' पर साहित्य अकादेमी का पहला बाल साहित्य पुरस्कार, उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान का 'बाल साहित्य भारती' पुरस्कार और हिंदी अकादमी का 'साहित्यकार सम्मान' प्राप्त करने वाले मनु जी की बड़ों और बच्चों के लिए डेढ़ सौ से अधिक कृतियां प्रकाशित हैं और अनेक प्रकाशन की राह में हैं.
'मैंने किताबों से घर बनाया है' करीब पच्चीस बरसों के लंबे अंतराल के बाद प्रकाशित होने वाला उनका ताजा कविता-संकलन है. इन कविताओं में वे जीवन का अर्थ टटोलते हुए नजर आते हैं. बीच-बीच में एक गहरी अकुलाहट के साथ वे अपने वर्तमान और गुजरे हुए जीवन पर नजर डालते हैं, और बहुत से सवाल अपने आप से भी करते हैं : 
कौन हो तुम, क्या हो तुम, कहां जाना है तुम्हें प्रकाश मनु 
कहां दौड़े जा रहे हो बेहिसाब
जिधर दिल कहता है कि सच वहां है दमकता
दौड़ते हैं तुम्हारे पैर तुम्हारी आँखें तुम्हारा जिस्म
तुम्हारी एक-एक साँस तक
और तुम पागल जुनून में धुनते चले जा रहे हो रास्ते की धूल
ऐसे तो बर्बाद हो जाओगे तुम प्रकाश मनु और मिलेगी नहीं तुम्हारी राख और हड्डियां तक...!
जीवन की इस आपाधापी में अनेक मोर्चों पर लड़ते हुए भी वे कभी अकेले नहीं रहे. उनके साथ प्रसाद, निराला, मुक्तिबोध, नागार्जुन, सर्वेश्वर, विष्णु खरे आदि की रचनाओं का बहुत बड़ा संसार जो था! सुनीता जैसी जीवन-संगिनी और देवेंद्र सत्यर्थी, रामविलास शर्मा, रामदरश मिश्र, हरिपाल त्यागी, रमेश तैलंग, देवेंद्र कुमार जैसे कुछ आत्मीय संगी-साथी थे, जिनका सानिध्य उन्हें जूझने का हौसला देता रहा. 'धूप में पुश्किन के साथ कुछ दिन' कविता में वे दोस्तों के लिए दिल के गहरे भावावेगी उफान से निकले ये शब्द कहते हैं : 
असल में सच्ची कहूं, मैं भीतर से इस कदर
टूट-फूट जाता हूं पुश्किन... 
कि ये दोस्त ही हैं तुम्हारे जैसे लाजवाब दोस्त 
जो काम आते हैं ऐसे दुख के पलों में 
कि भीतर आत्मा के कोठे की मरम्मत...! 
यों भी दोस्त मेरे अवचेतन में इस कदर पैठ चुके हैं... 
कि दोस्तों के बगैर यह दुनिया मुझे नहीं चाहिए 
सचमुच नहीं चाहिए!
इस संग्रह में अनेक ऐसी कविताएँ आप पढ़ेंगे जो मनु जी ने अपने प्रिय कवियों-लेखकों-मित्रों और परिजनों को याद करते हुए, बहुत ही आत्मीय पलों में डूबकर लिखी हैं. 'पिता के लिए एक कविता' में वे दूर-दूर तक फैली डालों और घने पत्तों वाले धूपलिपे बरगद में पिता का चेहरा देखते हैं और याद करते हैं: 
पिता ने बड़ा होना सिखाया
अपने से बाहर निकलकर बड़े होने का भान
इसलिए बुरे दिनों में भी याद रहा
कि आदमी छोटा अपने मन से होता है
और गरीबी में भी गुरबत होती है.... 
जीवन का शताब्दी वर्ष जीते हुए हम सबके बीच उपस्थित गुरुवर रामदरश मिश्र से मिलकर लौटने का आश्चर्य और आनंद 'हमारी दुनिया में एक सीधा आदमी' कविता में देखते ही बनता है : 
पता नहीं आप में भँवर हैं या आप भँवर में
मगर मुश्किल तो मेरी है गुरुदेव
कि जब-जब पूरी तैयारी के साथ आया आपके करीब
अकसर लौटा अधूरा, उदास, खाली हाथ.
मगर जब खाली हाथ चला आया यों ही टहलते-टहलते
मन में सदानीरा सी बहती किसी जिज्ञासा के साथ
तो खुले खजाने मिले
दोनों हाथों में भरकर जिन्हें
लौटा मैं उछलते पांवों के उत्साही रथ पर.
गजब के उत्साह से भरे हुए मनु जी के मन में कुछ आश्चर्य भी हैं, जो सवालों पर सवाल उठाते हैं : 
कहां से आते हैं ये अकूत खजाने गुरुदेव!
एक सीधे-सादे आदमी में कहां से आता है इतना दम? 
अपनी शर्तों पर जीने की ताकत?
कहां से यह निपट देहाती नदी के से मोहक कटावों वाली भाषा, 
जो बगैर किसी कोशिश के हम हड़बड़िए लोगों की हड़बोंग पकड़ लेती है, 
सीधी-सादी बातों में दे जाती है अंदर का पता. 
ऐसी ही एक और आत्मीय, थोड़ा अलग मिजाज की रचना है 'घर की मल्लिका' : 
तीन दिनों के लिए गई है
इस घर की मल्लिका
और ये तीन दिन कर्फ़्यू के दिन हैं.... 
किन्हीं-किन्हीं कविताओं में वे बड़ी गहरी कशिश के साथ बचपन की ओर लौटते दीखते हैं : 
चलो, ऐसा करते हैं
अपनी-अपनी पीठ पर से उतारकर
उम्र की गठरियां
बरसों का भारी बोझ
फिर से हो जाते हैं हलके और तरोताजा...
हवा से खींचते हैं भरी-पूरी साँस
और हाथ में हाथ पकड़कर सामने के खुले मैदान
में दौड़ लगाते हैं...! 
ऐसा निश्छल बचपना, अपने आसपास के लोगों में विश्वास और सुंदर धरती का सपना जिस कवि की आँखों में तैरता हो, वही तो 'नन्ही किश्तियों का कोरस' लिखता है : 
इनमें हर किश्ती एक उम्मीद है
क्योंकि उस पर हाथ में एक नन्हा-सा चप्पू
और नन्ही कलम लिए एक नन्हा बच्चा बैठा है
हर किश्ती एक परचम उठाए—
कि सुनिए, पानी की एक-एक बूँद कीमती है
हमें उसे आने वाली पीढ़ियों के लिए बचाना है
कि इस मुल्क में भूजल की बर्बादी न हो
वरना बजने लगेंगी खतरे की घंटियां.../ 
फिर हमारी प्यारी धरती का क्या होगा, 
क्या होगा दुनिया का—
बोल रहे थे नन्हे पहरेदार वतन के.
'एक अजन्मी बेटी का खत' इस संग्रह की अद्भुत, अनमोल रचना है. इसे पढ़ते हुए 'सरोज-स्मृति' की याद हो आई. वह पिता की तरफ से बेटी की याद में लिखी गई महाप्राण निराला की महान रचना है. प्रकाश मनु की रचना में एक अजन्मी बेटी पिता को पत्र लिखते हुए अपने दुख को साझा करती है : 
मैं तो हूं पापा तुम्हारे आँगन की चिड़िया
जिसे तुम्हीं ने दर-बदर किया
तुम्हीं ने किया अपनी दुनिया से खारिज
और कसकर अर्गला लगा दी!... 
वरना कैसे तुमसे अलग रहती मैं पापा 
तुम पुकारते तो मैं दौड़ी-दौड़ी आती 
और कुहुक-कुहुककर पूरे आँगन को गुँजा देती. 
तुम एक बार पुकारते तो सही पापा... 
बिन कारण, बिन अपराध
मुझे घर निकाला देने से पहले! 
तुमने एक बार सिर्फ एक बार
प्यार भरी आँखों से मुझे देखा होता 
तो मेरी सरल पानीदार मुसकान में 
मिल जाते तुम्हें अपनी मुश्किलों और परेशानियों के जवाब.... 
कविता जैसे-जैसे आगे बढ़ती है, पिता के प्रति एक बेटी का प्रेम और सघन होता जाता है : 
मैं तो ऐसे रह लेती पापा
जैसे फूल में रहती है फूल की सुवास
... ... ...
जैसे धरती में धरती का धैर्य
जैसे अंबर में अंबर का अथाह नीलापन
... ... ...
नन्हे हाथों से थपक-थपक तुम्हारा माथा दबाती
और तुम्हें सुख-चैन देकर पापा
सुख पाती मुसकराती
मेरे जिस छोटे भाई की प्रतीक्षा में तुमने
मुझे किया दर-बदर—
अपनी दुनिया और इतिहास से बाहर...
क्या पता पापा
मैं उससे बढ़कर तुम्हारा सुख तुम्हारी खुशी
तुम्हारे हाथों की लाठी हो जाती
तुम्हें निश्चिंतता देने की खातिर
खुशी-खुशी खुद तपती
और कभी न करती किसी कमी की शिकायत!...
आगे और भी बहुत सी बातें हैं इस लंबी कविता में, जिसे पढ़ते हुए किसी भी सहृदय का दिल काँप जाएगा. इस कविता को लिखना मनु जी के लिए भी सहज नहीं रहा होगा....
इस संग्रह की 'ईश्वर के इतने पास', 'बनारस के लिए पांच कविताएँ', 'दुख की गाँठ खुली', 'बारिशों की हवा में पेड़', 'मोगरे के फूल', 'सीता की रसोई', 'एक बूढ़े मल्लाह का गीत', 'वह स्त्री जो लिखती थी कविताएँ', 'राम-सीता', 'छोटी बेटी नन्ही की पंद्रहवीं वर्षगाँठ पर', इन बारिशों में', 'बेटी जो गई है काम पर' आदि कविताओं में भी हम जीवन की गरिमा, मानवीय रिश्तों और निर्मल मन की प्रार्थनाओं की महक महसूस कर सकते हैं : 
बेटी गई है बाहर काम पर... 
ओ हवाओ, उसे रास्ता देना 
दूर तक फैली काली लकीर-सी वहशी सड़को, 
तनिक अपनी कालिख समेटकर 
उसे दुर्घटना से बचाना.... 
इन कविताओं से गुजरते हुए हमें कवि की आपबीती और जगबीती के अनुभवों का सहज अहसास होता है. मनु जी ने 'मैं और मेरे कविता : अर्द्ध सदी का सफर' (कुछ सतरें मेरी भी) में लिखा है : 
"सच पूछिए तो मेरी कविताएँ एक अर्थ में कविता के हर्फों में लिखी गई मेरी आत्मकथा और समय-कथा भी हैं. वे ऐसी क्यों हैं? क्या इससे भिन्न भी हो सकती है कविता, मैं नहीं जानता. शायद कविता का यही रूप मुझे प्रिय है और इसी रूप में मैंने उसे भीतर तक महसूस किया है. उसके सहारे मैंने आपबीती और जगबीती को समझा है और जीवन का अर्थ टटोला है.”
पुस्तक के आमुख, 'कुछ शब्द : मैंने किताबों से घर बनाया है के बहाने' में वरिष्ठ कवि दिविक रमेश ने सही कहा है कि यह संग्रह निश्चित रूप से मनुष्यता का पाठ रचती, जीवन से भरी जीवंत कविताओं का है, जो समय की दुश्वारियों के बीच जीने की ऊर्जा भरने में समर्थ है. 
75 पार करते हुए रचनाकर प्रकाश मनु के रचनात्मक उल्लास को 'अभी मैं नहीं मरूँगा' कविता में हम देख सकते हैं :
दलदल अभी बहुत है—इसे साफ करना है
झाड़ना-पोंछना है धरती को, जोतना है खेत
चिड़िया के चुग्गों का इंजाम करना है...
चूमना है आसमान
अभी तो मेरे सामने है कुल जहान... 
अभी तो मुझे जीना है 
अभी मैं नहीं मरूँगा 
अभी मुझे करने हैं बहुत काम....
हमें पता है काम करते हुए लोग मनु जी को कितने सुंदर लगते हैं और काम करते लोगों से ही यह दुनिया सुंदर है! हम कामना करते हैं मनु जी स्वस्थ-सृजनशील रहें और अपनी लेखनी से शानदार रचनाएँ हमें देते रहें जिससे हम सब मिलकर इस दुनिया को और सुंदर बना सकें. 
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श्याम सुशील, ए-13, दैनिक जनयुग अपार्टमेंट्स, वसुंधरा एनक्लेव, दिल्ली-110096, मोबाइल : 9871282170,
ईमेल : shyamsushil13@gmail.com

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