वरिष्ठ कवि-कथाकार प्रकाश मनु के जन्मदिन के अवसर पर पढ़िए उनकी छह कविताएं
1.
घर की मल्लिका
तीन दिनों के लिए गई है
इस घर की मल्लिका
और ये तीन दिन कर्फ्यू के दिन हैं.
इन तीन दिनों में कोई न आना
उसके पीछे...
कि इन तीन दिनों में यह घर
फर्श पर फैले मैले, मुचड़े कपड़ों
जूठे, गंधाते बरतनों उतरे चेहरों
और रुकी और थकी-थकी बासी हवाओं
में गुम हो चुका है.
सब कुछ है यहाँ मौजूद
पर सब पर तारी उदासी की एक सतर
जो होंठों से उतरती ही नहीं.
अलबत्ता इस सारी टूटन और उदासियों में
आर-पार गुजरता एक ही सुख
जो टहल रहा है
किसी राहत वैन की तरह यहाँ से वहाँ...
कि तीन दिन बीतते ही वह लौटेगी
वह जो इस घर की रानी है महारानी
और उसके एक दृष्टिपात से
यह रुका-रुका, थका घर
अपने पहियों में लगी जंग और जकड़न छुड़ाकर
फिर चल पड़ेगा अपनी सदाबहार लय-चाल में...
उदासियों की गाढ़ी सतर को तिर्यक् काटते हुए.
*
2.
छोटी बेटी नन्ही की पंद्रहवीं वर्षगाँठ पर
पता नहीं तुमने मुझसे कुछ सीखा है या नहीं,
पर मैंने तो तुमसे बहुत कुछ सीखा है बेटी!
जीवन के ऐसे-ऐसे पाठ
जो याद रहेंगे अंत तलक
इनमें एक पाठ हँसी का है
एक कर्मठता का, एक अपनी जिदों को
जिद की तरह पूरा करने का!
यों ही हँसती रहना बेटी
छोटी-छोटी बातों पर
ताकि तुम्हारे साथ थोड़ा-थोड़ा हँसते हुए हम याद करें
कि हम हँसना भूल नहीं गए.
यों ही मम्मी के साथ मजाक
मानो मम्मी भी तुम्हारी ही तरह कोई छोटी सी लड़की हो
यों ही पापा को डाँट-फटकार—नाराजगी
कि पापा, आप तो बस सिरे से ही गलत हो...होपलेस,
कभी पोजिटिव तो सोच ही नहीं सकते न!
यों ही गुस्से-गुस्से में हँस पड़ना यों ही हँसी-हँसी में गुस्सा
इसी तरह से जमाना चलता है आगे...
तुम्हारे साथ जमाने को जोड़कर देखना शुरू किया
तो खुल गईं मन की बहुतेरी गुत्थियाँ
एक साथ.
बहुत से दृश्य अब सुहाने नजर आ रहे हैं
दूर-पास के
बहुत से अर्थ अब खुलने लगे हैं
भीतर उमड़ती-घुमड़ती कविता के!...
खुल रहे हैं अर्थ क्योंकि तुम हो
इतनी सुंदरता से जीती हुई...
इतनी कड़ी मेहनत करती हुई
हाई स्कूल की परीक्षा में
कि मानो परीक्षा नहीं, यह कोई युद्ध है
जिसमें हर घड़ी हर मोरचे की चिंता करनी है तुम्हें
सुबह पौने पाँच से लेकर रात बारह तक!
तुम्हें इतना कसकर पढ़ते देखता हूँ
और फिर हँसते देखता हूँ खुदर-खुदर
किसी बात या बेबात पर
तो लगता है
अभी तो मुझे जिंदगी जीने की सही शुरुआत करनी है.
*
3.
बेटी जो गई है काम पर
बेटी गई है बाहर काम पर...
ओ हवाओ, उसे रास्ता देना
दूर तक फैली काली लकीर-सी वहशी सड़को,
तनिक अपनी कालिख समेटकर
उसे दुर्घटना से बचाना.
भीड़ भरी बसो,
तनिक उस पर ममता वारना
उसे इस या उस या उसके वाहियात स्पर्शों
और जंगली छेड़छाड़ से बचाना.
बेटी गई है बाहर काम पर
दिशाओ, चुपके से उसके साथ हो लेना
और शाम ढले जब तलक
वह लौटकर आती नहीं है घर,
खुद को उजला और पारदर्शी बनाए रखना.
दिल्ली शहर के शोर, धुएँ
और पागल कोलाहल,
थोड़ी देर को थम जाना
ताकि बेटी जो गई है बाहर काम पर
शाम को
ठीक-ठाक, उत्फुल्ल मन घर लौटे.
न हो मलिनता,
न चिड़चिड़ेपन का बोझ
उसकी कोमल आत्मा के गीले कैनवास पर...
तनिक ध्यान रखना हवाओ,
दूर तक फैली सड़को
और दिल्ली शहर के अंतहीन कोलाहल,
थोड़ी देर के लिए अपने भब्भड़ को समेटकर
उसे रास्ता देना...
ताकि बेटी जो गई है बाहर
लौटे तो उसकी चाल में
लाचार बासीपन का बोझ नहीं,
चलने और बस चलते चले जाने की उमंग हो.
अलबत्ता अभी तो बेटी घर से बाहर
गई है काम पर
और दिल बुरी तरह धक-धक कर रहा है.
*
4.
नदी सपने में रो रही थी माँ
रात नदी सपने में रो रही थी माँ
फटा-पुराना पैरहन पहने
चिंदी और तार-तार
उदास थी नदी, मैली और बदरंग
अपनी छाया से भी डरी-डरी सी
रो रही थी बेआवाज...
पता नहीं किसे वह पुकारती थी
किसे सुना रही थी अपना दुख
कल रात नदी सपने में रो रही थी.
पास ही मरी पड़ी थीं असंख्य मछलियाँ दुर्गंधाती
कातर बतखें,
निरीह कच्छप और घड़ियाल
उलट गई थीं उनकी आँखें
रात नदी सपने में रो रही थी माँ
रो रही थी बेआवाज...
उससे भीग रहा था हवा का आँचल
मौन आँखों से चुप-चुप बिसूरता था आकाश
बज रहा था एक खाली-खाली सा सन्नाटा
धरती के इस छोर से उस छोर तक...
बंजर थे मैदान
बंजर खेत
बंजर आदमी
बंजर सृष्टि की सब नियामतें...
रात नदी सपने में रो रही थी माँ!
*
5.
एक अजन्मी बेटी का खत
मैं तो हूँ पापा तुम्हारे आँगन की चिड़िया
जिसे तुम्हीं ने दर-बदर किया
तुम्हीं ने किया अपनी दुनिया से खारिज
और कसकर अर्गला लगा दी!...
वरना कैसे तुमसे अलग रहती मैं पापा
तुम पुकारते तो मैं दौड़ी-दौड़ी आती
और कुहक-कुहककर पूरे आँगन को गुँजा देती.
तुम पुकारते तो मैं आती
और पूरे घर को ताजा उछाह से भर देती
तुम पुकारते तो मैं आती सुंदर सपनों और रंगों के साथ
और घोर अँधियारों के बीच
तुम्हारे घर के किसी कोने में
एक रोशनी का फूल बनकर खिल जाती!
तुम एक बार पुकारते तो सही पापा...
बिन कारण, बिन अपराध
मुझे घर निकाला देने से पहले!
तुमने एक बार सिर्फ एक बार
प्यार भरी आँखों से मुझे देखा होता
तो मेरी सरल पानीदार मुसकान में
मिल जाते तुम्हें अपनी मुश्किलों और परेशानियों के जवाब.
मैं तुम्हारे दुख बढ़ाने नहीं
घटाने आती पापा
मैं तुम्हारे पूरे घर को अपने कंधों पर उठाने आती पापा
मैं प्यार के घुँघरुओं की तरह खनकती
और बेला के फूलों-सी महकती.
मैं आती और पापा
तुम्हारे दुख और चिंताओं के दशमलब बिंदु
अपनी कापी पर उतारकर हल करती
तुम्हारी किताबें करीने से रखती
उनकी धूल झाड़ती
मोती जैसे सुलेख में लिख देती तुम्हारी कविताएँ और निबंध
जहाँ तुम अटकते
वहाँ खोज देती कोई अचीन्ही राह
जहाँ तुम भटकते
वहाँ रास्ता दिखाती दीया-बाती बन जाती मैं
और कभी-कभी तो
एक सधी उँगली : बन जाती मैं दिशा-निर्देशक तुम्हारी!
मैं न बहुत खर्च कराती पापा
मैं न बनती भार तुम्हारे कंधों का
मैं तो पापा यों ही, बस यों ही रह लेती
जैसे सुबह के आसमान से उतरी एक नन्ही किरन
चुपके से, दबे पाँव घर में आती
और बस जाती है घर की पुरानी भीतों में!
मैं तो ऐसे ही रह लेती पापा
जैसे फूल में रहती है फूल की सुवास
सुच्चे मोतियों से लिपटी उनकी सुच्ची आबदार हँसी
कि जैसे चाँद की चाँदनी में उसकी शीतलता.
मैं तो ऐसे रह लेती पापा
जैसे पेड़ों-पत्तों में रहती है उनकी हरियाली
जैसे धरती में धरती का धैर्य
जैसे अंबर में अंबर का अथाह नीलापन...
मैंने कब माँगे थे तुमसे पापा कीमती डिजाइनदार कपड़े-गहने
सोफा, डाइनिंग टेबल, कालीन
मैं तो देहरी पर हवा के झोंके के साथ आ पड़े
पीपर पात की तरह रह लेती
मैं तो काँटों में खिले भटकटैया के फूल की तरह ही
साँस लेती और हँसती
हँसती और बातें करती और
तुम्हारी थकान उतारती पापा
तुम थककर दफ्तर से आते तो हँस-बोलकर
ठुम्मक-ठुम्मक नाच, तुम्हारा जी बहलाती
तुम्हारे माथे के दर्द के लिए बादामरोगन हो जाती!
नन्हे हाथों से थपक-थपक तुम्हारा माथा दबाती
और तुम्हें सुख-चैन देकर पापा
सुख पाती मुसकराती
मेरे जिस छोटे भाई की प्रतीक्षा में तुमने
मुझे किया दर-बदर—अपनी दुनिया और इतिहास से बाहर...
क्या पता पापा
मैं उससे बढक़र तुम्हारा सुख तुम्हारी खुशी
तुम्हारे हाथों की लाठी हो जाती
तुम्हें निश्चिंतता देने की खातिर
खुशी-खुशी खुद तपती
और कभी न करती किसी कमी की शिकायत!
पर अब तो पापा बेकार हैं ये बातें
जबकि मैं अब एक जिंदा लड़की नहीं
हवा में भटकती एक पागल पुकार हूँ
जो धरती से आसमान तक हर चीज से टक्करें खाती
सिर धुनती और फफकती है
उस धृष्ट कर्म के लिए जिसमें मेरा कोई हाथ नहीं.
यों ही टक्करें खाती रहूँगी मैं कभी यहाँ कभी वहाँ
शायद इसी तरह थोड़ा चैन पड़े
पर यह भी अपनी जगह तय बिल्कुल तय है पापा
कि जब तक हूँ अपनी चीख के साथ
मैं धरती से आकाश तक भटकती टक्करें खाती
तब तक न मिलेगा तुम्हें तिल भर भी चैन पापा
मैं चाहूँ तब भी नहीं!
तुम कितने ही सख्त और कठ-करेज क्यों न हो पापा
नहीं रह पाओंगे शांति से
क्योंकि कोई कितना ही हो बली, क्रूर हमलावर
हर हत्या उसे भीतर से कमजोर करती है!
और तुमने तो एक नहीं कईं हत्याएँ की है पापा
क्या मैं एक-एक सपने का लहू दिखाऊँ तुम्हें
कहाँ-कहाँ दोगे हिसाब पापा?
तुम्हें कहाँ से मिलेगा सुख-चैन
जब तक मैं यों ही चीखती-पुकारती रहूँगी पापा
धरती और आकाश के बीच!
और मैं न चीखूँ तो रहूँ कैसे पापा
कैसे भूलूँ कि मैं न मारी गई होती
तो होती मैं धरती पर सुंदरता से थिरकती
लाखों खिलखिलाती लड़कियों सी
एक सुंदर लड़की, रंगदार तितली
आँगन की कुहकती चिड़िया
पंख खोलकर उड़ती और तुम्हें चकित करती!
अफसोस!
तुमने पंख नोचे और मुझे दर-ब-दर किया
और बिना बात बिन कसूर कुचला गया वजूद मेरा
मारी गई मैं बेदर्दी से...!
उफ, पापा...
मेरी आवाज अब रुँध रही है
रुँध रहा है गला
कलम अब साथ नहीं देती...
तो यह चिट्ठी यहीं खत्म करती हूँ पापा
पर आँखों में दो आँसू भरकर इसे पढ़ना जरूर
ताकि तुम्हें रोकर
कम से कम दो घड़ी तो चैन आ ही जाए!
*
6.
खाली कुर्सी का गीत
अब सिर्फ खाली कुर्सी पड़ी है
सन्नाटे में
बिसूरती आने-जाने वालों को.
आदमी जो इस पर बैठता था चला गया
और अब खाली कुर्सी बिसूरती है आने-जाने वालों को
कभी-कभी टुकुर-टुकुर देखती है हर आगत को
और फिर हबसकर रोने लगती है.
आदमी था तो सब था
लोग भी बातें भी हँसी-खुशी और हँसने-गाने के साज भी
बातें भी चर्चाएँ भी
किस्से और कहानियाँ भी
गुजरे और आने वाले कल की तमाम हलचलें भी...
वह आदमी था तो सब था
भरी रहती थी बैठक
लोगों की रौनक और अंतहीन बातों के कोलाहल से.
आदमी
जो इस कुर्सी पर बैठता था
खुशमिजाज था
और उसके इर्द-गिर्द हमेशा एक महफिल सी रहती थी
वह बोलता था तो गुजरे हुए समय की दास्तान
सुनाई पड़ती थी उसकी बातों में
समय की घंटियाँ बजती थीं
और खिलखिलाहटों में बदल जाती थीं...
आदमी था तो बहुत से वादे थे
नए-पुराने
बहुत सी लंबी-चौड़ी बहसें और योजनाएँ...
किताबें थीं और किताबों की पूरी एक दुनिया.
इस कुर्सी के इर्द-गिर्द हँसते थे ठहाके
गाता था प्रेम
नाचती थीं किताबें
और हवा में थरथराते थे शब्द
बहुत कुछ था जो जिंदा था और जिंदादिली से भरा.
और तब कुर्सी भी इन गरमजोश बातों और बहसों
और मीठे ठहाकों में
जिंदा हो जाती थी
किसी जिंदा आदमी की तरह
और जाने कब आदमी की तरह खुलकर बतियाने लगती थी.
आज उस पर बैठने वाला आदमी
नहीं है
तो नहीं हैं गरजजोश बातें न बहसें न वादे न योजनाएँ...
और हवा में दूर-दूर तक उड़ते ठहाके भी नहीं
अब महज एक कुर्सी है
खाली-खाली चुप्पी में सिमटी
बिसूरती हर आने-जाने वाले को.
इस पर बैठने वाला आदमी चला गया तो
जैसे सब चला गया...
और बच गया बस कुर्सी का एक खाली-खाली गीत.
*
# प्रकाश मनु, 545 सेक्टर-29, फरीदाबाद (हरियाणा), पिन-121008, मो. 09810602327, ईमेल – prakashmanu334@gmail.com