एक वक्त था, जब संयुक्त परिवारों का चलन था. माता-पिता और भाई-बहन के अलावा चाचा-चाची और दादा-दादी भी साथ ही रहते थे और भरे-पूरे घर में बच्चों की सबसे ज्यादा मौज रहती थी.
धमा-चौकड़ी करने पर एक ने डांटा, तो दूसरे ने पुचकार दिया, दिनभर कभी मां ने कुछ खिलाया, तो कभी दादी ने. नींद आई, तो चाची ने लोरी देकर सुला दिया, लेकिन अब यह सब फिल्मों में या सपने में मिलता है.
वक्त के साथ रिश्ते कम हो चले हैं. गांवों में तो अभी रिश्तों की कमी उतनी नहीं खलती, लेकिन महानगरों में तो जैसे रिश्तों का अकाल पड़ गया है. हर घर में एक या दो बच्चे होते हैं और घर छोटे होने के कारण उनमें दादा-दादी को रखने की जगह नहीं बचती.
एकल परिवारों में जहां बच्चे अपनों के दुलार को तरसते हैं, वहीं परिवार के बुजुर्ग जीवन की संध्या बेला में अकेले जीवन गुजारने पर मजबूर हैं. काम के बोझ और तेज रफ्तार जिंदगी ने रिश्तेदारों में दूरियां बढ़ा दी हैं, लेकिन रिश्तों और रिश्तेदारों का महत्व समझने वाले लोगों के दिल में बचे खुचे रिश्तों की मिठास अब भी कहीं बाकी है. घर में शादी-ब्याह और तीज-त्योहारों पर अपनों की याद आती है. लोग इन खास दिनों में अपनों के घर जाते हैं या उन्हें अपने घर बुला लेते हैं.
हमारे देश में रिश्तेदारों से दूरियां बढ़े ज्यादा दिन नहीं हुए, लेकिन यूरोपीय देशों में एक अर्सा पहले ही रिश्तेदारों से दूरियां इतनी बढ़ गईं कि उन्हें अपने रिश्तेदार से मिलने के लिए एक खास दिन बनाना पड़ा. 18 मई को विजिट योर रिलेटिव डे मनाया जाता है. इस दिन लोग फूल और मिठाइयां लेकर अपने अजीजों के घर जाते हैं. इस दिन की शुरुआत 19वीं सदी में हुई.