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पेड़ों को बचाने के लिए सैकड़ों लोगों ने दे दी थी जान, हैरान कर देगी ये कहानी

Chipko Movement: भारतीय वन सेवा के अधिकारी प्रवीण कासवान (IFS Parveen Kaswan) ने ट्विटर पर 'चिपको आंदोलन' का पोस्ट शेयर किया है. उन्होंने 'चिपको आंदोलन' से जुड़े दो फोटो भी डाले हैं. साथ ही इस आंदोलन के बारे में जानकारी दी है.

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फोटो सौ. (Twitter/@ParveenKaswan)
फोटो सौ. (Twitter/@ParveenKaswan)

भारतीय वन सेवा के कई अध‍िकारी सोशल मीडिया पर काफी सक्रिय रहते हैं. वे तमाम ऐसे वीडियो और फोटो पोस्‍ट करते हैं जिनसे हमें पर्यावरण के बारे में काफी अच्‍छी जानकारी मिलती है. इसी क्रम में आईएफएस अधिकारी प्रवीण कासवान (IFS Parveen Kaswan) ने ट्विटर पर पर्यावरण से जुड़े एक आंदोलन की तस्वीरें पोस्ट की हैं.

दरअसल, यह पोस्ट 'चिपको आंदोलन' से संबंधित है. उन्होंने चिपको आंदोलन से जुड़े दो फोटो डाले हैं. साथ ही इस आंदोलन के बारे में जानकारी दी है.

उन्होंने ट्वीट किया, ''चिपको आंदोलन पहली बार 293 साल पहले राजस्थान के बिश्नोई समुदाय द्वारा शुरू किया गया था. ऐसा कहा जाता है कि 1730 में जोधपुर के राजा ने खेजड़ी के पेड़ों को गिराने के लिए 83 गांवों में सैनिक भेजे. इस दौरान 365 बिश्नोई लोगों ने अपने प्राणों का बलिदान देकर पेड़ों को बचाया था.''

आगे लिखा, ''इस आंदोलन का नेतृत्व अमृता देवी कर रही थीं. उनका नारा था 'सिर साटे रूख रहे तो भी सस्तो जाण'. यानी अगर सिर देकर भी पेड़ बच जाता है तो भी कोई परवाह नहीं. इस 'बिश्नोई नरसंहार' के दिन को भारत में 'वन शहीद दिवस' के रूप में भी मनाया जाता है.''

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IFS ने दूसरे ट्वीट में लिखा, ''फिर इस आंदोलन की दोबारा शुरुआत उत्तराखंड के चमोली जिले के छोटे से रैणी गांव से 1973 में हुई थी. दरअसल, साल 1972 में प्रदेश के पहाड़ी जिलों में जंगलों की अंधाधुंध कटाई का सिलसिला शुरू हो चुका था. लगातार पेड़ों के अवैध कटान से आहत होकर गौरा देवी के नेतृत्व में 27 महिलाओं ने आंदोलन तेज कर दिया था. बंदूकों की परवाह किए बिना ही उन्होंने पेड़ों को घेर लिया और पूरी रात पेड़ों से चिपकी रहीं. अगले दिन यह खबर आग की तरह फैल गई और आसपास के गांवों में पेड़ों को बचाने के लिए लोग पेड़ों से चिपकने लगे. नतीजा ये हुआ कि कुछ समय बाद पेड़ काटने वालों को अपने कदम पीछे खींचने पड़े. फिर 26 मार्च 1974 को यह आंदोलन खत्म हुआ था.''

 

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