देश के विकास के लिए नीतिगत फैसलों को लेने में विशेषज्ञ समितियों का ऐतिहासिक महत्व रहा है और वर्तमान समय में भी इन समितियों का महत्वपूर्ण योगदान है. जटिल नीतिगत, कानूनी और सामाजिक समस्याओं का समाधान करने के लिए विशेषज्ञों की समितियों का गठन किया जाता है, जिनमें ऐसे क्षेत्रों में तकनीकी विशेषज्ञता की जरूरत होती है, जहां सरकार या न्यायपालिका खुद समाधान देने में सक्षम नहीं होती है.
सरकार द्वारा या कोर्ट के जरिए गठित ये समितियां स्वतंत्र सिफारिशें देती हैं और विवादित मुद्दों पर तटस्थ आकलन सामने रखती हैं. चाहे वह सार्वजनिक विरोध हो, कानूनी विवाद हो या किसी जटिल सामाजिक समस्या का समाधान, ऐसे मामलों में समितियों द्वारा दी गई रिपोर्ट अक्सर नीतियों और न्यायिक निर्णयों को आकार देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं. विशेषज्ञ समितियों की स्थापना मुख्य रूप से भारत सरकार और सुप्रीम कोर्ट द्वारा की जाती है.
सरकारी-निर्धारित समितियां: इनका गठन अधिसूचनाओं या कार्यकारी आदेशों के जरिए किया जाता है. जबकि सैद्धांतिक रूप से सरकार किसी भी बड़े नीतिगत या सामाजिक सुधार की जरूरत होने पर ऐसी समितियां गठित करती हैं, व्यावहारिक रूप से, यह अक्सर तब किया जाता है जब सरकार पर महत्वपूर्ण दबाव होता है.
न्यायिक समितियां: न्यायपालिका द्वारा गठित समितियां मुख्य रूप से जनहित याचिकाओं (PILs) या हाई प्रोफ़ाइल मामलों के लिए गठित की जाती हैं. इनका उद्देश्य मामलों की निष्पक्ष जांच करना और विशेषज्ञ राय देना होता है. ऐसे कई मामलों में न्यायालय ने समितियों की सिफारिशों पर महत्वपूर्ण निर्णय लिए हैं, जैसे कि हिंसा की घटनाओं में राहत और पुनर्वास, वित्तीय अनियमितताओं की जांच, और समाज के हाशिये पर रह रहे वर्गों की सुरक्षा के लिए न्यायिक समितियों ने खास फैसले किए हैं.
आयोग की जांच अधिनियम, 1952:
यह अधिनियम केंद्र और राज्य सरकारों को सार्वजनिक महत्व के किसी भी मामले की जांच के लिए एक आयोग गठित करने का अधिकार देता है. सरकार द्वारा यह आयोग अक्सर न्यायालय के आदेशों का पालन करते हुए गठित किया जाता है. इस अधिनियम के तहत गठित आयोगों की सिफारिशें कानूनी रूप से बाध्यकारी नहीं होतीं, लेकिन ये सरकारी नीतियों और न्यायिक निर्णयों को प्रभावित करती हैं. गुजरात दंगे, भोपाल गैस त्रासदी और कई अन्य हाई-प्रोफ़ाइल मामलों में इस अधिनियम का उपयोग किया गया है.
विशेषज्ञ समितियों के कामकाज के खर्चों के संबंध में आयोग की जांच अधिनियम या इसके तहत बनाए गए नियमों में कोई स्पष्ट दिशा-निर्देश नहीं दिए गए हैं. जानकारी करने पर पता चलता है कि समिति के सदस्यों को मिलने वाला भुगतान कई कारकों पर निर्भर करता है, जैसे समिति का आकार, उसकी संरचना, मुद्दों की जटिलता, समिति के कार्य की अवधि और शामिल विशेषज्ञों की योग्यता. सरकार द्वारा निर्धारित मानकों के अनुसार, समिति के सदस्यों को उनके समय, प्रयास और विशेषज्ञता के लिए मुआवजा दिया जाता है. उदाहरण के लिए, जटिल या संवेदनशील मुद्दों पर गठित समितियों में ऐसे विशेषज्ञों की जरूरत होती है, जिनकी विशेषज्ञता के लिए अधिक भुगतान किया जाता है.
इसके अलावा, समिति के कामकाज की अवधि भी एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है. कुछ मामलों में, सदस्यों को पूरे कार्यकाल के लिए निश्चित भुगतान किया जाता है, जबकि अन्य मामलों में उनकी उपस्थिति के आधार पर प्रति दिन या प्रति बैठक भुगतान किया जाता है, खासकर जब उनका योगदान रुक-रुक कर हो. यात्रा से संबंधित खर्च, जैसे आवास, परिवहन और दैनिक भत्ता—आमतौर पर सरकार द्वारा वहन किया जाता है ताकि इन खर्चों का बोझ समिति के सदस्यों पर न पड़े.
विशेषज्ञ समितियों के लिए खर्चों का प्रावधान सरकारी बजट से किया जाता है, जो समिति के कामकाज की निगरानी कर रहे संबंधित विभाग द्वारा प्रदान किया जाता है. सरकार के लिए यह महत्वपूर्ण है कि समितियों का काम निष्पक्ष रहे, ताकि वे निजी हितों या वित्तीय दबावों से प्रभावित न हों. चूंकि इन समितियों के काम के लिए जनता के पैसे का उपयोग किया जाता है, इसलिए यह सुनिश्चित करना आवश्यक है कि समितियों की सिफारिशें सार्वजनिक हित और निष्पक्षता पर आधारित हों.
हालांकि, विशेषज्ञ समितियों की सिफारिशें कानूनी रूप से बाध्यकारी नहीं होतीं. इसलिए अक्सर ऐसा होता है कि इनकी रिपोर्ट को नजरअंदाज कर दिया जाता है या केवल आंशिक रूप से लागू किया जाता है.
लंबी जांच और लागत: लिब्रहान आयोग ने दी थी 17 साल के बाद रिपोर्ट
लिब्रहान आयोग 1993 में बाबरी मस्जिद विध्वंस की जांच के लिए गठित किया गया था. इसने अपनी जांच के 17 साल बाद 2009 में रिपोर्ट प्रस्तुत की. रिपोर्ट में पाया गया कि यह विध्वंस पूर्व-नियोजित था और इसमें कई प्रमुख राजनीतिक हस्तियों की भूमिका थी. आयोग की जांच में लगभग 9 करोड़ रुपये का खर्च आया, जो इसके आवंटित बजट का 65% था.
हाल के मामलों में विशेषज्ञ समितियां
1. कृषि कानून और किसान विरोध
2020 में भारत सरकार द्वारा तीन कृषि कानून लागू किए जाने के बाद देशभर में बड़े पैमाने पर विरोध प्रदर्शन हुए. इन कानूनों को लेकर किसानों में यह डर था कि ये न्यूनतम समर्थन मूल्य (MSP) प्रणाली को कमजोर कर देंगे और उन्हें कॉर्पोरेट शोषण के लिए खुला छोड़ देंगे. जनवरी 2021 में सर्वोच्च न्यायालय ने इन कानूनों के कार्यान्वयन पर रोक लगाते हुए एक विशेषज्ञ समिति का गठन किया. हालांकि, किसान संगठनों ने समिति की निष्पक्षता पर सवाल उठाया और इसका विरोध किया.
2. दिल्ली चलो विरोध (2024)
फरवरी 2024 में पंजाब और हरियाणा के किसानों द्वारा शुरू किए गए "दिल्ली चलो" आंदोलन के बाद, सर्वोच्च न्यायालय ने 2 सितंबर 2024 को एक हाई लेवल कमेटी का गठन किया, जिसका उद्देश्य किसानों की समस्याओं को सुलझाना और राजमार्गों तक पहुंच को बहाल करना था. इस समिति की अध्यक्षता पंजाब और हरियाणा हाईकोर्ट के पूर्व न्यायाधीश न्यायमूर्ति नवाब सिंह कर रहे हैं. समिति को अक्टूबर तक अंतरिम रिपोर्ट जमा करने का निर्देश दिया गया था.
3. आरजी कर अस्पताल मामला (2024)
कोलकाता में एक प्रशिक्षु डॉक्टर की हत्या के बाद, सुप्रीम कोर्ट ने डॉक्टरों की सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए राष्ट्रीय कार्य बल (NTF) का गठन किया. इस कार्य बल को सुरक्षा प्रोटोकॉल तैयार करने और डॉक्टरों के लिए बेहतर कार्य परिस्थितियों का सुझाव देने का काम सौंपा गया है.
4. मणिपुर हिंसा निगरानी समिति
2023 में मणिपुर में हुई हिंसा के बाद, सुप्रीम कोर्ट ने तीन पूर्व हाई कोर्ट के जजों की एक समिति गठित की. इस समिति का उद्देश्य हिंसा पीड़ितों के पुनर्वास, मुआवजे और सामाजिक-आर्थिक सहायता प्रदान करने के प्रयासों की निगरानी करना था.
5. अडानी-हिंडनबर्ग विवाद
मार्च 2023 में सुप्रीम कोर्ट ने न्यायमूर्ति एएम सप्रे की अध्यक्षता में एक विशेषज्ञ समिति गठित की, जिसका उद्देश्य भारतीय प्रतिभूति बाजार के नियामक ढांचे का आकलन करना था. समिति की रिपोर्ट के अनुसार, अडानी मामले में SEBI की कोई लापरवाही नहीं पाई गई और भारतीय बाजार ने स्थिरता बनाए रखी.
6. पेगासस स्पाइवेयर मामला
2021 में सुप्रीम कोर्ट ने पेगासस स्पाइवेयर के अवैध उपयोग की जांच के लिए न्यायमूर्ति आरवी रवींद्रन की अध्यक्षता में एक समिति गठित की थी. यह समिति डिजिटल फोरेंसिक विशेषज्ञों के साथ मिलकर काम कर रही थी. रिपोर्ट प्रस्तुत की गई, लेकिन इस पर अभी तक कोई सार्वजनिक निर्णय नहीं लिया गया है.
7. कोविड-19 ऑक्सीजन संकट
महामारी के दौरान, ऑक्सीजन की आपूर्ति सुनिश्चित करने के लिए सुप्रीम कोर्ट ने 12 सदस्यीय राष्ट्रीय कार्य बल का गठन किया. यह कार्य बल राज्यों को ऑक्सीजन का आवंटन करने के लिए एक वैज्ञानिक पद्धति विकसित करने के लिए गठित किया गया था.