साल 1323. कश्मीर की घाटी अनिश्चितता के दौर में थी. राजा रिंचन की मृत्यु हो चुकी थी और उनके साथ ही राज्य की स्थिरता भी डगमगा गई थी. रिंचन कोई साधारण शासक नहीं था. वह लद्दाख से आया एक बौद्ध राजकुमार था, जिसने अपने ही संरक्षक रामचंद्र की हत्या कर सत्ता हासिल की थी. रामचंद्र कभी कश्मीर का शक्तिशाली मंत्री था और रिंचन उसी के सहारे यहां तक पहुंचा था.
रिंचन की मौत के बाद कश्मीर के सामने बड़ा सवाल खड़ा था- अब शासन कौन करेगा?
रिंचन का एक बेटा था, हैदर, लेकिन वह बहुत छोटा था. उसकी पत्नी कोटा रानी थी, जो खुद रामचंद्र की बेटी थी. यानी एक ही व्यक्ति की बेटी और हत्यारे की पत्नी. सत्ता के लिहाज़ से यह स्थिति बेहद नाज़ुक थी. इसी दौर में एक व्यक्ति चुपचाप हालात को देख रहा था- शाह मीर. वह स्वात से आया था और वर्षों पहले 'दैवी आदेश' का दावा करते हुए कश्मीर पहुंचा था. पहले वह रामचंद्र का सहयोगी रहा, फिर रिंचन का मंत्री बना. सत्ता की राजनीति को वह गहराई से समझता था. उसे पता था कि जो राजकुमार के नाम पर शासन करेगा, असल में वही राजा होगा, लेकिन कश्मीर के सामंत और दरबारी किसी और दिशा में सोच रहे थे.
वे नहीं चाहते थे कि एक बौद्ध शासक का बेटा गद्दी पर बैठे. उन्हें पुराने लोहारा वंश की वापसी चाहिए थी. इसलिए उन्होंने राजा सहदेव के भाई उदयनदेव को संदेश भेजा, जो मंगोल आक्रमणों के समय कश्मीर छोड़कर भाग गया था. संदेश साफ था- लौट आओ और अपने भाई का सिंहासन संभालो.
कोटा रानी का बड़ा दांव
कोटा रानी ने खतरे को तुरंत समझ लिया. अगर उदयनदेव सत्ता में आया, तो वह सिर्फ एक हारी हुई रानी बनकर रह जाएगी. बिना अधिकार और बिना सुरक्षा. उस समय का समाज स्त्रियों को सत्ता के केंद्र में स्वीकार करने को तैयार नहीं था. इसीलिए कोटा रानी ने एक साहसिक और चतुर फैसला लिया. उसने उदयनदेव को विवाह का प्रस्ताव भेज दिया.
यह एक राजनीतिक सौदा था. उदयनदेव को रानी से विवाह के जरिये वैधता मिली और कोटा रानी को सत्ता में बने रहने का रास्ता. इतिहासकार जॉनराज की 'द्वितीय राजतरंगिणी' के अनुसार, इस पूरे समझौते में शाह मीर की अहम भूमिका थी. हालांकि नाम का राजा उदयनदेव बना, लेकिन असली सत्ता कोटा रानी के हाथ में थी. दरबार और जनता यह बात अच्छी तरह जानते थे.
...लेकिन संकट टला नहीं था
कुछ ही समय बाद कश्मीर पर नया संकट आ गया. तुर्क-मंगोल सेनापति अचला एक बड़ी सेना लेकर घाटी में घुस आया. इससे पहले दुलचा नामक मंगोल सरदार कश्मीर को तबाह कर चुका था. उसकी यादें अब भी लोगों के जेहन में ताजा थीं. जैसे ही खतरा बढ़ा, उदयनदेव घबरा गया. उसने अपने परिवार को साथ लिया और तिब्बत की ओर भाग निकला. राजा ने युद्ध किए बिना ही राज्य छोड़ दिया.
लेकिन कोटा रानी नहीं भागी. उसने तुरंत शासन संभाला. उसने कश्मीर के शक्तिशाली दामरा सरदारों को संदेश भेजे, उन्हें पिछली मंगोल तबाही की याद दिलाई और भूमि की रक्षा के लिए एकजुट होने का आह्वान किया. सरदारों ने उसका साथ दिया और सेनाएं श्रीनगर की ओर बढ़ने लगीं. कोटा रानी जानती थी कि सिर्फ युद्ध से अचला को हराना आसान नहीं होगा. इसलिए उसने चालाकी वाला रास्ता चुना.
चालाकी से जीत लिया युद्ध
उसने अचला के पास दूत भेजा और कहा कि वह बिना लड़ाई के राज्य सौंपने और उससे विवाह करने को तैयार है. बदले में अचला को अपनी बड़ी सेना वापस भेजनी होगी, ताकि राजधानी में भय का माहौल न बने. अचला को यह प्रस्ताव आकर्षक लगा. उसने सोचा कि बिना युद्ध कश्मीर मिल रहा है, तो जोखिम क्यों लिया जाए. उसने अपनी मुख्य सेना लौटा दी. यहीं कोटा रानी ने हमला किया. जैसे ही अचला की शक्ति कमजोर हुई, दामरा सरदारों और रानी की सेना ने उसकी बची-खुची टुकड़ियों को घेर लिया. कुछ इतिहासकारों के अनुसार अचला को मार दिया गया, जबकि कुछ मानते हैं कि उसे पीछे हटने पर मजबूर किया गया.
जो भी हुआ हो कश्मीर बच गया. जब उदयनदेव वापस लौटा, तो उसने देखा कि उसकी पत्नी राज्य की निर्विवाद शासक बन चुकी है. राजा की छवि टूट चुकी थी और रानी का कद और ऊंचा हो गया था. 1338 के आसपास उदयनदेव की मृत्यु हो गई. इसके बाद कोटा रानी ने खुलकर शासन संभाला. वह कश्मीर की आखिरी हिंदू शासक बनी. लेकिन चुनौतियां खत्म नहीं हुई थीं.
शाह मीर... जिसने वर्षों किया इंतजार
शाह मीर, जो वर्षों से इंतजार कर रहा था, अब खुलकर सामने आने लगा. उसने आम लोगों और मुस्लिम समुदाय के बीच अपनी पकड़ मजबूत कर ली थी. वह खुद को 'नए कश्मीर' का प्रतिनिधि बना रहा था, जबकि कोटा रानी पुरानी व्यवस्था की प्रतीक बन चुकी थी. रानी ने खतरा भांपते हुए भट्ट भीषण को अपना प्रधानमंत्री बनाया. शाह मीर को यह फैसला नागवार गुजरा. रानी ने उसे अपने छोटे बेटे भोला रतन का संरक्षक जरूर बनाया, लेकिन साथ ही अपने बड़े बेटे हैदर से दूरी बना ली, जो शाह मीर के प्रभाव में था.
शाह मीर समझ गया कि रानी उसे सत्ता से दूर करने की कोशिश कर रही है. उसने पहले वार करने का फैसला लिया. इतिहासकारों के अनुसार, शाह मीर ने बीमारी का बहाना किया. जब भट्ट भीषण उससे मिलने आया, तो उसकी हत्या कर दी गई. इस घटना से राजधानी में अफरातफरी मच गई. रानी की राजनीतिक रीढ़ टूट गई.
शाह मीर ने सत्ता संभाली और सुल्तान शम्सुद्दीन कहलाया. उसे युद्ध की जरूरत नहीं पड़ी, राजधानी और जनता उसके साथ थी.
इसके बाद उसने कोटा रानी से विवाह का प्रस्ताव रखा. पहले रानी ने इनकार किया, लेकिन बाद में स्वीकार कर लिया. माना जाता है कि यह फैसला उसने अपने बेटों की सुरक्षा के लिए लिया था. कोटा रानी की मौत को लेकर अलग-अलग कथाएं हैं. जॉनराज के अनुसार, विवाह के कुछ ही समय बाद उसे कैद कर लिया गया और उसने आत्महत्या कर ली. बमज़ई के मुताबिक, वह शयनकक्ष में पहुंचते ही स्वयं को खंजर मार बैठी.
1339 में हुई कोटा रानी की मृत्यु
फारसी ग्रंथ 'बहारिस्तान-ए-शाही' कहता है कि शाह मीर को उसकी निष्ठा पर शक हुआ और उसने उसे कैद कर दिया, जिसके बाद उसने जान दे दी. 1339 में कोटा रानी की मृत्यु के साथ ही कश्मीर में हिंदू शासन का अंत हो गया. शाह मीर वंश की शुरुआत हुई, जिसने अगले लगभग दो सौ वर्षों तक कश्मीर पर शासन किया.
कोटा रानी इतिहास में एक ऐसी शासक के रूप में याद की जाती है, जिसने पुरुष-प्रधान सत्ता व्यवस्था में बुद्धि, साहस और रणनीति के बल पर राज किया—और अंत तक हार नहीं मानी.