'जहां हम खड़े हो जाते थे, वहां लोग पानी से जमीन धो देते थे', ये बयान नहीं आपबीती है मध्य प्रदेश के सागर जिले में पठा गांव के रहने वाले राम सहाय पांडे की. 94 वर्षीय लोक कलाकार राम सहाय पांडे वह शख्सियत हैं जिन्होंने लोक कला 'राई नृत्य' को बुंदेलखंड के मंचों से उठाकर अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर पहचान दिलाई. राम सहाय पांडे और उनकी कला के कद का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि हाल ही में भारत सरकार की ओर से उन्हें पद्मश्री पुरस्कार से नवाजा गया है. देश का चौथा सर्वोच्च नागरिक पुरस्कार मिलने के बाद भी राम सहाय समाज में रूढ़ीवादी सोच और जातिवाद के ताने झेल रहे हैं.
राई नर्तक राम सहाय पांडे का जन्म 11 मार्च, 1933 को एक गरीब ब्राह्मण परिवार में हुआ था. छह साल की उम्र में पिता और 11 साल की उम्र में मां को खोने के बाद, राम सहाय को उनके बड़े भाई ने पाला. 11 साल की उम्र से उन्होंने राई नृत्य की शुरुआत कर दी थी. इसके लिए उन्हें घर पर मार खानी पड़ी, समाज के ताने झेले, मगर लोगों के बीच अपमान सहकर अपनी कला को जारी रखते हुए राम सहाय पांडे ने आज राई नृत्य को न केवल मध्य प्रदेश, बल्कि भारत और विश्व में भी पहचान दिलाई है. लेकिन ये सफर इतना आसान नहीं था.
'आजतक' के साथ खास बातचीत में राम सहाय पांडे ने बताया, जब वह 11 साल के थे तब वह सानौदा गांव में मकर संक्रांति के मेले में गए थे, जहां उन्होंने पहली बार राई देखी और राई नृत्य कलाकारों के इर्द-गिर्द कई लोगों का जमावड़ा देखा. बस उसी क्षण उन्होंने तय कर लिया था- ‘हम तो राई ही करेंगे’. फिर घर पर स्कूल का बहाना देकर राम सहाय दिन भर नाचते थे.
94 वर्षीय लोक कलाकार ने बताया कि इसके बाद जब उनके बड़े भैया को पता लगा तो उन्होंने बहुत पिटाई लगाई. बड़े भाई ने मारते हुए कहा, ''हम ब्राह्मण जाति से हैं और अगर तुम ये करोगे तो लोग हमें पानी तक नहीं देंगे.'' लेकिन राम सहाय नहीं माने और राई के प्रति अपना प्रेम जारी रखा.
राम सहाय आगे बताते हैं, बहुत मार खाने के बाद और उनकी जिद्द को देखते हुए भैया ने उन्हें छोटी सी ढोलकिया दिला दी और कन्हैया लाल घोषि के पास मृदंग सीखने के लिए भेजने लगे. इस नृत्य कला में अखाड़ा सीखना बहुत जरूरी होता है, क्योंकि पूरी रात कंकड़-पत्थर में नाचना होता है तो उन्होंने ये भी सीखा, ताकि वह पूरी तरीके से इस विधा में पारंगत हो जाएं.
सभी बहन-भाइयों में सबसे छोटे राम सहाय के लिए यह डगर इतनी आसान नहीं थी. समाज के तानों के चलते उन्हें अपना घर तक छोड़ना पड़ गया. उन्हें समाज की प्रताड़नाएं झेलनी पड़ीं, लेकिन राई नृत्य नहीं छोड़ा और फिर वे अपनी बड़ी बहन के घर आ गए. इतना ही नहीं, राम सहाय को अपने बच्चों की शादी करवाने में भी कई बार लज्जित होना पड़ा.
'आजतक' के साथ एक वाकया साझा करते हुए राम सहाय ने बताया, "जब मैं अपने लड़के के लिए रिश्ता देखने गया, वहां पता चला कि मैं राई करता हूं, तो उन्होंने हमें दुत्कार कर भगा दिया. मतलब हम जहां खड़े भी हो जाते थे, वहां लोग पानी से जमीन धो देते थे." राई नर्तक का कहना है कि आज भी कई ब्राह्मण समाज के लोगों की उनको लेकर रूढ़ीवादी सोच है. आज भी वह अपमान सह रहे हैं, लेकिन पद्मश्री राम सहाय का मानना है कि कला की कोई जाति नहीं होती.
अपना सफर साझा करते हुए राम सहाय ने आगे बताया कि राई जैसे परंपरागत नृत्य को राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय पहचान दिलाने और उनके जीवन में सबसे अहम भूमिका उनके मित्र हीरा सागर की रही, जो कि आकाशवाणी में प्रोड्यूसर हैं. राम सहाय ने कहा, "मैं तो दूसरी फेल हूं, लेकिन हीरा सागर मेरे मित्र बने रहे और जब उनको पता लगा कि मैं राई करता हूं तो उन्होंने मुझे भोपाल स्थित रवींद्र भवन में 1964 में एक कार्यक्रम में भाग लेने के लिए आमंत्रित किया. उसके बाद मुझे हर कार्यक्रम में बुलाया जाने लगा."
लोक कलाकार राम सहाय ने एनसीजेडसीसी की 1986 में स्थापना समारोह में राई नृत्य की प्रस्तुति दी. 1984 में उन्हें मध्य प्रदेश सरकार द्वारा महादेवी वर्मा शिखर सम्मान से नवाजा गया और फिर राज्यपाल ने रतन सदस्यता दिलाई. इतना ही नहीं, राम सहाय पांडे ने देश के कई प्रांतों में राई नृत्य की प्रस्तुति की. इसी साल उन्हें जापान में अलग-अलग जगहों पर एक महीने के लिए राई नृत्य प्रस्तुत करने के लिए आमंत्रित किया गया. इससे पहले वह 2006 में दुबई, 2008 में हंगरी, जर्मनी, फ्रांस, स्विट्जरलैंड सहित कई विदेशों में राई की प्रस्तुति दे चुके हैं.
जिन राम सहाय ने सारी जिंदगी रुढ़ीवादी सोच और जातिवाद के तंज झेले, उन्हें मध्य प्रदेश सरकार की ओर से नृत्य शिरोमणि सम्मान से नवाजा जा चुका है. उनका मानना है कि पुरस्कार मिलने से राई नृत्य परंपरा का मान बढ़ा है. राम सहाय कहते हैं कि पद्मश्री पुरस्कार के लिए चुने जाने के बाद लोगों के बीच इस कला का मान बढ़ा है और अब आगे माहौल बदलेगा.