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78 साल बाद टूटी बेड़ियां! गुजरात के आलवाड़ा गांव में दलितों को मिला बाल कटवाने का अधिकार

गुजरात के बनासकांठा जिले के आलवाड़ा गांव में आजादी के 78 साल बाद पहली बार दलितों के बाल गांव में ही नाई की दुकान पर काटे गए. अब तक उन्हें बाहर जाकर बाल कटवाने पड़ते थे. युवाओं की शिकायत और पुलिस के हस्तक्षेप के बाद परंपरा टूटी है. करीब 6 हजार की आबादी वाले गांव में यह दलितों के लिए बराबरी की ओर बड़ा कदम माना जा रहा है.

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गांव में पहली बार नाई ने काटे बाल.(Photo: Brijesh Doshi/ITG)
गांव में पहली बार नाई ने काटे बाल.(Photo: Brijesh Doshi/ITG)

गुजरात के बनासकांठा जिले के आलवाड़ा गांव से एक हैरान कर देने वाली खबर सामने आई है. आजादी के 78 साल बाद यहां पहली बार दलित समुदाय के लोगों के बाल गांव में ही नाई की दुकान पर काटे जाने लगे हैं. अब तक उन्हें बाल कटवाने या दाढ़ी बनाने के लिए पड़ोसी गांवों में जाना पड़ता था.

गांव के दलित युवा उत्तम चौहान ने बताया कि वर्षों से यह भेदभाव जारी था. हाल ही में एक नाई से बातचीत का ऑडियो वायरल होने के बाद मामला पुलिस तक पहुंचा. पुलिस ने हस्तक्षेप करते हुए दोनों पक्षों को बुलाया और समझाया. इसके बाद 7 अगस्त से गांव में ही दलितों के बाल काटने की शुरुआत हुई.

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गांव के गिरीश नाई ने स्वीकार किया कि पहले यह परंपरा नहीं थी. उन्होंने कहा कि बरसों से ऐसे ही चलता आ रहा था, लेकिन पुलिस और समाज के समझाने पर अब बदलाव किया गया है और हम बिना भेदभाव सभी के बाल काट रहे हैं. हालांकि गांव के सरपंच सुरेश चौधरी ने बचाव करते हुए कहा कि यहां किसी तरह की बड़ी दिक्कत नहीं थी. उन्होंने कहा कि दलित युवाओं की शिकायत पर पुलिस और ग्रामीणों की बैठक हुई और समस्या का समाधान कर लिया गया. अब गांव में कोई विवाद या रोक-टोक नहीं है.

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बनासकांठा

गांव के एक अन्य युवा जशु परमार ने बताया कि यह सच है कि दलितों को वर्षों तक गांव में बाल कटवाने की अनुमति नहीं थी. इस पर उन्होंने पुलिस में अर्जी भी दी थी, जिसके बाद दबाव में बैठकर फैसला लिया गया और परंपरा तोड़ी गई. आलवाड़ा गांव की आबादी करीब 6 हजार है, जिसमें लगभग 250 लोग दलित समुदाय से हैं.

बनासकांठा

दशकों से चली आ रही इस भेदभावपूर्ण प्रथा पर कभी किसी ने खुलकर आवाज नहीं उठाई. लेकिन जब समुदाय के युवाओं ने हिम्मत दिखाई, तो प्रशासन और समाज की दखल के बाद बदलाव संभव हुआ. गांव में अब दलितों के बाल काटने की शुरुआत को लोग आजादी का असली अहसास बता रहे हैं. यह घटना न केवल सामाजिक बराबरी की दिशा में एक सकारात्मक कदम है, बल्कि यह संदेश भी देती है कि जब लोग अन्याय के खिलाफ आवाज उठाते हैं, तभी बदलाव संभव होता है.

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