बच्चों के खानपान को लेकर माता-पिता अक्सर किसी न किसी से सलाह लेते दिख जाएंगे. बच्चा कैसे हेल्दी रहे, उसका दिमाग विकसित हो, उसे क्या खिलाएं, इन विषयों पर अब सोशल मीडिया पर भी खूब रील्स या पोस्ट दिख जाते हैं. अगर बच्चा छह माह से कम उम्र का तो है तो ऐसे में माता-पिता बेबी फूड के विकल्प तलाशते हैं. दूसरी तरफ डिजिटल मीडिया ऐसे विज्ञापनों से पटी पड़ी है. वर्ल्ड हेल्थ ऑर्गनाइजेशन (WHO)ने बेबी फूड की डिजिटल मार्केटिंग पर सख्ती को लेकर नये नियम जारी किए हैं. आइए जानते हैं कि शिशु आहार (फॉर्मूला मिल्क और बेबी फूड) की डिजिटल मार्केटिंग आपके नन्हे-मुन्नों की सेहत को खतरे में डाल रही है?
बता दें कि विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) ने 78वें विश्व स्वास्थ्य सम्मेलन (WHA78) में बड़ा फैसला लिया है. WHO ने फॉर्मूला मिल्क और बेबी फूड की डिजिटल मार्केटिंग पर सख्त नियम लागू करने की घोषणा की है. ये कदम बच्चों में स्वस्थ खानपान को बढ़ावा देने और मोटापे जैसी समस्याओं को रोकने के लिए उठाया गया है. लेकिन सवाल यह है कि इन भ्रामक विज्ञापनों से अभी तक क्या नुकसान हो रहा है और नए नियमों से क्या बदलाव आएगा?
क्या है WHO का नया फैसला
WHO ने 28 मई 2025 को WHA78 सम्मेलन में घोषणा की कि अब फॉर्मूला मिल्क और बेबी फूड की डिजिटल मार्केटिंग पर सख्त नियंत्रण होगा. डिजिटल प्लेटफॉर्म्स जैसे सोशल मीडिया और ऐप्स पर इस तरह के विज्ञापनों को नियंत्रित किया जाएगा ताकि माता-पिता को भ्रामक दावों से बचाया जा सके. इसके अलावा WHO ने फेफड़ों और किडनी स्वास्थ्य पर नई रिजॉल्यूशंस और सीसा-मुक्त भविष्य (lead-free future) के लिए भी प्रस्ताव पारित किए हैं. लेकिन सबसे ज्यादा चर्चा में है शिशु आहार की मार्केटिंग पर यह सख्ती.
कैसे पहुंचा रहे हैं नुकसान भ्रामक विज्ञापन
शिशु आहार कंपनियों की डिजिटल मार्केटिंग पिछले कुछ सालों में तेजी से बढ़ी है. साल 2022 में WHO और UNICEF की एक रिपोर्ट में खुलासा हुआ था कि ये कंपनियां गर्भवती महिलाओं और नई माताओं को सोशल मीडिया के जरिए टारगेट करती हैं. ये विज्ञापन अक्सर भ्रामक और वैज्ञानिक रूप से गलत दावे करते हैं. यहां देखें कुछ दावे और उनकी हकीकत.
दावा- फॉर्मूला मिल्क मां के दूध से बेहतर है.
हकीकत- यह दावा मां के दूध की अहमियत को कम करता है. WHO के अनुसार मां का दूध शिशुओं के लिए सबसे पौष्टिक और जरूरी है जो उनकी रोग प्रतिरोधक क्षमता को बढ़ाता है.
दावा- हमारा बेबी फूड सबसे हेल्दी है.
हकीकत- कई बेबी फूड में चीनी, नमक, और प्रिजर्वेटिव्स की मात्रा ज्यादा होती है, जो बच्चों में मोटापे और डायबिटीज का खतरा बढ़ा सकती है.
इन्फ्लुएंसर्स का गलत इस्तेमाल
कंपनियां इन्फ्लुएंसर्स और सेलिब्रिटीज के जरिए अपने प्रोडक्ट्स को बढ़ावा देती हैं जिससे माता-पिता को लगता है कि ये प्रोडक्ट्स सुरक्षित और जरूरी हैं. साल 2022 की एक WHO रिपोर्ट के मुताबिक, यूके में 84%, वियतनाम में 92% और चीन में 97% गर्भवती महिलाएं और माताएं इन भ्रामक विज्ञापनों से प्रभावित हुईं जिसके चलते उन्होंने फॉर्मूला मिल्क का इस्तेमाल बढ़ा दिया. भारत में भी यह ट्रेंड बढ़ रहा है, खासकर शहरी क्षेत्रों में जहां डिजिटल मार्केटिंग का प्रभाव ज्यादा है.
भारत में क्या है स्थिति?
भारत में शिशु आहार के विज्ञापन पहले से ही इन्फेंट मिल्क सब्स्टिट्यूट्स, फीडिंग बॉटल्स एंड इन्फेंट फूड्स (रेगुलेशन ऑफ प्रोडक्शन, सप्लाई एंड डिस्ट्रीब्यूशन) एक्ट, 1992 के तहत नियंत्रित हैं. लेकिन डिजिटल मार्केटिंग पर यह कानून पूरी तरह लागू नहीं हो पाता. नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वे-5 (NFHS-5) के अनुसार भारत में 6 महीने से कम उम्र के केवल 55.9% शिशुओं को पूरी तरह से मां का दूध मिलता है जो WHO के 50% लक्ष्य से थोड़ा ही ज्यादा है. भ्रामक विज्ञापनों के चलते कई माताएं फॉर्मूला मिल्क की ओर आकर्षित हो रही हैं, जिससे बच्चों में पोषण की कमी, मोटापा, और एलर्जी जैसी समस्याएं बढ़ रही हैं.
नए नियमों से क्या बदलेगा
भ्रामक विज्ञापनों पर रोक लगेगा. डिजिटल प्लेटफॉर्म्स पर फॉर्मूला मिल्क और बेबी फूड के विज्ञापनों को सख्ती से नियंत्रित किया जाएगा. कंपनियों को अपने दावों के लिए वैज्ञानिक प्रमाण देने होंगे.
मां के दूध को बढ़ावा मिलेगा. ये कदम माताओं को मां का दूध देने के लिए प्रोत्साहित करेगा जो शिशुओं के लिए सबसे सुरक्षित और पौष्टिक है.
बच्चों में मोटापे पर नियंत्रण होगा. भ्रामक विज्ञापनों के चलते बेबी फूड में चीनी और नमक की अधिकता से मोटापे का खतरा बढ़ रहा है. नए नियम इसे कम करने में मदद करेंगे.
डिजिटल जागरूकता आएगी. भारत जैसे देशों में जहां डिजिटल मार्केटिंग तेजी से बढ़ रही है. ये नियम माता-पिता को सही जानकारी तक पहुंचने में मदद करेगा.