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डबल धमाल: अर्थ नहीं, व्यर्थ भी नहीं

यह फिल्म ईमानदारी से हंसाने वाली फिल्म है. दूसरे हिस्से की कुछ गैरजरूरी जोड़बंदियों को छोड़ दें तो इसमें लिखावट, अभिनय, टाइमिंग और सिनेमैटोग्राफी की पैकेजिंग अच्छी है.

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यह फिल्म ईमानदारी से हंसाने वाली फिल्म है. दूसरे हिस्से की कुछ गैरजरूरी जोड़बंदियों को छोड़ दें तो इसमें लिखावट, अभिनय, टाइमिंग और सिनेमैटोग्राफी की पैकेजिंग अच्छी है.

दर्जा तो इसका भी सड़क छाप ही है पर इस श्रेणी की हाल में आई रेडी, थैंक्यू, पटियाला हाउस, नो प्रॉब्लम जैसी, वजनी नामों और बजट वाली फिल्मों से यह बीस है. कहानी वही धमाल के आगे कीः दस करोड़ रु. के खजाने के लिए दौड़ते चार बदमाश देशबंधु (रितेश), मानव (जावेद), आदी (वारसी) और बोमन (आशीष) को उनका भी गुरुघंटाल कबीर नायक (संजय दत्त) बार-बार चकमा देता है.

इत्ता-सा किस्सा. पर चौकड़ी के अभिनेताओं ने जो एक सुर पकड़ा और पकड़कर रखा है वह फिल्म की जान है. एक ऑर्केस्ट्रा-सा बना है उनका. सब शामिल बाजा. एक की ऊर्जा को दूसरा आगे बढ़ाता हुआ. गन दे/तू गंदा; प्यार में कमी ना आए/कमीना आ गया. कुछ इसी तरह.

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कुदरत ने इन्हें गला भी खोलकर दिया है, जिससे वे फिल्म के भव्य और लाउड मि.जाज में खूब योगदान करते हैं, खासकर वारसी. फिल्म की रफ्तार भी दनदनाती-सनसनाती है.

दत्त के साथ नत्थी मल्लिका और कंगना ग्लैमर घोलती हैं. पर उनके मुंह से तेज संवाद! तौबा-तौबा. सिनेमैटोग्राफर असीम बजाज ने भव्य लोकेशंस को उनकी ऊंचाई और गहराई में खूबसूरती से उतारा है. अंतिम दृश्य कुछ इस तरह का है, जैसे सारे किरदार सरपट धमाल-3 में घुसने जा रहे हों.

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