संजय लीला भंसाली की फिल्म पद्मावत 25 जनवरी को रिलीज हो रही है. हालांकि सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बावजूद उसको लेकर अभी तक करणी सेना का विरोध जारी है. इस बीच मुंबई में निर्माताओं की ओर से फिल्म की रिलीज से दो दिन पहले मंगलवार को ख़ास शो आयोजित किया गया. आजतक के लिए साहिल जोशी और सिद्धार्थ हुसैन ने पद्मावत देखकर पिछले कुछ महीनों में फिल्म पर करणी सेना की ओर से लगाए तमाम आरोपों को क्रॉस चेक किया. हकीकत अलग बिलकुल निकली. फिल्म की कहानी मालिक मोहम्मद जायसी की पद्मावत पर आधारित है. किसी इतिहास की कहानी पर नहीं. बाकायदा लंबा चौड़ा डिस्क्लेमर चलाया गया है. इसमें तमाम विवादित बिंदुओं पर निर्माताओं की ओर से साफ़-साफ़ स्पष्टीकरण दिया गया है. आइए जानते हैं हैं भंसाली की फिल्म करणी सेना के आरोपों से कितना अलग है...
#1) अलाउद्दीन खिलजी का महिमा मंडन :
फिल्म में दिल्ली
के सुल्तान अलाउद्दीन खिलजी को बिलकुल महिमामंडित नहीं किया गया है. रणवीर
सिंह ने शानदार तरीके से इस रोल को किया है. वह क्रूर हो सकता था उसे
दिखाया गया है. खिलजी का चरित्र बेहद जालिम किस्म का है. वाकई उसे देखकर
घृणा होती है. खिलजी का यह चरित्र सिनेमा के इतिहास में उतनी ही नफ़रत वाला
नजर आएगा, जितनी मोगंबो, गब्बर सिंह या कांचा चिना के चरित्र में थी.
#2) राजपूत रानियों की कॉस्टयूम, घूमर सॉंग :
सिनेमैटिक
लिबर्टी में कितनी शालीनता बरतते हुए कोई नृत्य फिल्माया जा सकता है,
भंसाली ने घूमर में किया है. पूरी फिल्म में राजपूत रानियों या दूसरी
महिलाओं का जो कॉस्टयूम है वह बहुत शालीन और गरिमापूर्ण है. घूमर सॉंग में
रानी पद्मिनी कॉस्टयूम बेहद ग्रेसफुल और कवर्ड हैं. वो खूबसूरत हैं और
उनमें रानियों जैसी गरिमा झलकती है.
#3) राजपूत प्राइड :
भंसाली
ने इसका पूरा ख्याल रखा है. फिल्म देखकर लगता है कि वाकई बहादुरी का
पर्याय राजपूत ही थे. उन्हें बहुत ही वीर दिखाया है जो अपनी आन-बान और शान
के लिए कुछ भी कुर्बान करने को तैयार हैं. फिल्म में राजपूत प्राइड कमजोर न
हो इसके लिए शाहिद कपूर के रोल के हिस्से दमदार संवाद आए हैं.
#4) रानियों का सम्मान :
महिला
राजपूतों की तरह राजपूत रानियां भी ग्रेसफुल और बहादुर दिखाई गई हैं.
उनमें करुणा भी है और लड़ने की ताकत भी. रानी पद्मिनी (दीपिका पादुकोण) का
चरित्र इसे फिल्म में भलीभांति साबित करता है.
#5) जौहर :
बहुत
संजीदगी से दिखाया गया है. जौहर फिल्माने में भंसाली की छाप साफतौर पर
दिखती है. उन्होंने बिना जज्बाती हुए बेहद विनम्रता से इसे शूट किया है.
कहीं रोना-धोना नहीं है. आत्मउत्सर्ग है. हालांकि जौहर कानूनन गलत है, पर
उसे दिखाना कहानी की मांग थी. देखा जाए तो भंसाली ने फिल्म में पर्याप्त
सिनेमैटिक लिबर्टी ली है. लेकिन ये राजपूतों के फेवर में है न कि उनके
खिलाफ.