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नवाजुद्दीन की फिल्म 'रोम रोम में' आखिर क्यों नहीं हो पाई रिलीज? तनिष्ठा ने कहा, 'मैं बहुत बुरी... '

एक्ट्रेस तनिष्ठा चटर्जी ने अपनी डायरेक्टोरियल डेब्यू फिल्म 'रोम रोम में' को तमाम फिल्म फेस्टिवल्स में प्रदर्शित कर चुकी हैं. नवाजुद्दीन सिद्दीकी स्टारर फिल्म को थिएटर्स में क्यों रिलीज नहीं कर पा रही हैं. खुद वजह बताती हैं...

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नवाजुद्दीन-तनिष्ठा चटर्जी
नवाजुद्दीन-तनिष्ठा चटर्जी

एक्ट्रेस तनिष्ठा चटर्जी ने कुछ साल पहले बतौर डायरेक्टर अपना डेब्यू किया था. नवाजुद्दीन सिद्दीकी को लीड कास्ट करते हुए उन्होंने 'रोम रोम में' फिल्म बनाई थी. हालांकि वो फिल्म कभी रिलीज नहीं हो पाई. इसके न रिलीज होने की वजह पर तनिष्ठा बताती हैं कि वो एक बेहतरीन प्रोड्यूसर नहीं हैं. इस मुलाकात में वे न केवल अपनी इस फिल्म बल्कि तमाम फिल्म फेस्टिवल कल्चर, इंडिपेंडेंट डायरेक्टर के चैलेंजेस पर भी दिल खोलकर बातचीत करती हैं. 

टीवी का एक्सेंटेंड वर्जन है ओटीटी 
ओटीटी की वजह से इंडस्ट्री में आए बदलाव पर अपनी राय रखते हुए तनिष्ठा कहती हैं, ओटीटी ने नए टेक्निशियन, एक्टर्स, राइटर्स के स्टैंडर्ड को ऊपर लेकर आई है. मैं ओटीटी को टीवी का एक्सटेंशन मानती हूं न कि सिनेमा का. ओटीटी ने बल्कि सिनेमा को किल किया है. हालांकि मैं इसके लिए ओटीटी को ब्लेम नहीं कर रही हूं, ये नैचुरल प्रोसेस था और होना ही था. लॉन्ग फॉर्मैट पर इसमें कहानियां एक्सप्लोर कर रहे हैं. मैं ओटीटी को टीवी का ही बेहतर वर्जन कहना पसंद करूंगी. मुझे तो लगता है कि ओटीटी पर कोई फिल्में देखता ही नहीं है. जो फिल्में ब्लॉकबस्टर रही हैं थिएटर्स में, उन्हें भी दर्शक 15 मिनट तक नहीं झेल पाते हैं. लोग तो वहां चीजें, फॉर्मैट कर देखते हैं, तो सोचें न ओटीटी की व्यूविंग क्या है. 

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यहां किसी को भी स्टार बना दिया जाता है 
तनिष्ठा आगे कहती हैं, सोशल मीडिया ने एक अजीब सा कल्चर शुरू कर दिया है. यहां कोई अजीबो-गरीब तरीके से चीजें वायरल हो जाती हैं. किसी ने 20 साल की मेहनत कर वॉयलन सीखा है और आप जब वो प्ले करता हुआ वीडियो डालते हो, तो मुश्किल से आपको 10 लाइक्स मिलते हैं, वहीं किसी ने उट-पटांग तरीके से वायलन बजाता है, तो लोग हंसने के लिए उसके वीडियोज को वायरल करते जाते हैं. वो बंदा ओवर नाइट स्टार बन जाता है. ये बहुत ही अलग दौर में हम है, जहां कुछ भी निश्चित नजर नहीं आता है. 

मैं बहुत बुरी प्रोड्यूसर हूं 
बता दें, तनिष्ठा ने बतौर डायरेक्टर भी अपने करियर की शुरुआत की है. तनिष्ठा ने नवाजुद्दीन सिद्दीकी संग अपनी फिल्म 'रोम रोम में' को डायरेक्ट किया था. नवाज संग काम करने के एक्सपीरियंस पर तनिष्ठा कहती हैं, मैंने अपनी इस फिल्म में जितने भी कास्ट के साथ काम किया है, उनके साथ काम करने का अनुभव बहुत शानदार रहा है. मुझे कभी किसी से कोई दिक्कत नहीं हुई थी. पूरी फिल्म का शूटिंग एक्सपीरियंस शानदार रहा है. हां, दिक्कत इस बात की रही है कि मैं एक अच्छी प्रोड्यूसर नहीं हूं. मुझे अपनी चीजों का मार्केट करना नहीं आता है. मैं अपने इस फिल्म को फेस्टिवल तक लेकर चली गई, जहां इसे अवॉर्ड भी मिला था. इसके बाद मैं फिल्म को बेच नहीं पाई. जबकि इरोस जैसे बड़े प्रोडक्शन हाउस ने फिल्म की जिम्मेदारी अपने हाथों संभाली थी, इसके बावजूद इसे मैं सिल्वर स्क्रीन तक पहुंचा नहीं पाई. बता दूं, जितने भी लोगों ने फिल्म देखी है, वो इसे स्पेशल फिल्म ही बताते हैं. मलाल हमेशा रहेगा कि अपने पहले डायरेक्शन की फिल्म को मैं थिएटर पर रिलीज नहीं कर पाई. मैं दोबारा ये हार्ट ब्रेक नहीं लेना चाहती और इसलिए वापस डायरेक्शन छोड़ एक्टिंग पर फोकस करने लगी हूं. मैं जानती हूं कि एक इंडीपेंडेंट डायरेक्टर के साथ तमाम मुश्किलें होती हैं. उनकी फिल्मों को सपोर्ट नहीं मिल पाता है. 

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अनुराग कश्यप ने हिंदी को 'कूल' बनाया है 
हिंदी फिल्मों के इंटरनैशनल फिल्म फेस्टिवल्स में प्रेजेंट किए जाने के तरीकेकारों पर हमेशा से सवाल उठते रहे हैं. कईयों के आरोप भी है कि यहां की फिल्मों को अक्सर पवर्टी पोर्न (Poverty Porn) की तरह प्रस्तुत किया जाता रहा है. इस पर तनिष्ठा की अपनी इतर राय रखती हैं. तनिष्ठा बताती हैं, मैं बिलकुल भी इस बात से सहमत नहीं हूं. देखिए दार्जिलिंग लीमिटेड कर एक फिल्म बनाई गई थी, जिसे इंडिया के सबसे खूबसूरत लोकेशन पर शूट किया गया था. स्लम डॉग मिलेनियर एक है, लेकिन वो अमीर बन जाता है. मॉनसुन वेडिंग एक वेस्टर्न नजरिया दिखाता है. बैंडिट क्वीन गरीबी की कहानी नहीं है, यह हमारे देश के एक फाइटर फुलन देवी की कहानी थी. लंच बॉक्स एक सॉफ्ट सी लव स्टोरी है. मैं तो यह कहना चाहूंगी कि बल्कि बॉलीवुड फिल्मों में उल्टा दिखाया जाता है. जो दुनिया हमें दिखाई जाती हैं, वो रिएलिटी से कहीं ज्यादा परे थी. एक दौर तो ऐसा भी आया था कि ज्यादातर फिल्मों में एक्टर हेलीकॉप्टर से ट्रैवल कर रहा है. बताओ कहां होता है ऐसा. वो तो शुक्र हो अनुराग कश्यप जैसे कुछ डायरेक्टर्स का जिन्होंने हिंदी को कूल बनाया है. ये ही हमारी सच्चाई है न. कईयों का आरोप है कि सत्यजीत रे ने वेस्ट में जाकर फिल्मों को बेचा तब जाकर उन्हें ऑस्कर मिला है. जो कहते हैं, उनसे मेरा यही सवाल है कि क्या उन्होंने कभी उनकी फिल्में देखी है. पाथेर पंचाली को छोड़कर बाकी जितनी भी फिल्में रही हैं, वो अपर मिडिल क्लास के कॉनफ्लिक्ट को दर्शाती रही हैं. लोगों ने उनके कामों को देखा नहीं है, लेकिन अपनी राय रखने में सबसे आगे होते हैं. 

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