
मन्नू भंडारी के उपन्यास 'महाभोज' पर आधारित नाटक में इरफ़ान ने एक लठैत की भूमिका निभाई थी. वह गांव के सरपंच का लठैत था. वह उसका शुरुआती दौर था. दरअसल, इरफ़ान ने जो अपना थिएटर करियर शुरू किया, उसके पहले की थोड़ी बातें जान लें. जयपुर में पहले जवाहरात का धंधा होता था. इस धंधे में जयपुर की मुस्लिम आबादी के 70-80% लोग जुड़े हुए थे. उनमें कुछ व्यापारी थे. कुछ कारीगर थे. एक जमाने में जयपुर में पन्ने का धंधा खूब तेजी से बढ़ा और उसमें कई मुस्लिम परिवार अमीर हो गए. ऐसे मुस्लिम परिवारों के बच्चों का एक ग्रूप था, जो थिएटर वगैरह किया करता था.
वे सब सिनेमा देखकर बहुत मुतासिर होते थे. उन्हें एक्टिंग का शौक था. वे लोग नाटक भी करते थे. उनके नाटक पूरे फिल्मी हुआ करते थे. ‘जलता बदन' जैसे नाटक होते थे. ऐसे ही एक ग्रुप के साथ इरफ़ान ने अपनी शुरुआत की थी.
थिएटर के मंझे हुए कलाकार थे इरफान खान
हम लोग मेनस्ट्रीम थिएटर से जुड़े हुए थे, पर शौकिया थिएटर वाले कभी-कभी हमें बुला लिया करते थे. एक बार उन्होंने कहा कि कभी हमारा थिएटर भी आकर देखो ना? मैं चला जाया करता था. मैंने पाया कि उनके थिएटर में भारी भीड़ होती थी और हमारे मेनस्ट्रीम थिएटर में तो दर्शक आते ही नहीं थे. उनके नाटकों के टिकट भी बिक जाते थे.
ऐसे ही एक नाटक में इरफ़ान एक रोल कर रहा था. नाटक खत्म होने के बाद डायरेक्टर ने सभी कलाकारों से मिलवाया. वहीं इरफ़ान से मुलाकात हुई. वह अपने एटीट्यूड से पूरे ग्रुप से अलग लग रहा था. उसकी बॉडी लैंग्वेज भी अलग थी. उन दिनों वह पढ़ाई कर रहा था. मैंने उसे कहा तुम कहां यह सब कर रहे हो? तुम मेनस्ट्रीम थिएटर में आ जाओ. अगर थिएटर में रुचि है, तो कुछ बेहतर करो. बाद में वह मेनस्ट्रीम से जुड़ा. उसके साथ उन दिनों यूनुस खुर्रम थे. बाद में वह प्रदीप भार्गव और रवि चतुर्वेदी की संगत में आया.
एक्टिंग के प्रति था समर्पण
मैंने पाया कि थिएटर के प्रति उसके मन में बहुत समर्पण था. वह नसीरुद्दीन शाह से बहुत प्रभावित था. मुझसे कहता था साबिर भाई मुझे नसीर जैसा एक्टर बनना है. मैंने कहा बन जाओगे. बस तुम ग्रेजुएशन करो. उसके बाद एनएसडी चले जाना. शायद 1985 में उसका एनएसडी में एडमिशन हुआ. उन दिनों में दिल्ली में था. दिल्ली में एनएसडी के ही ग्रेजुएट भानु भारती, जो नसीरुद्दीन शाह के सीनियर थे, एक प्ले कर रहे थे और मैं उनके प्ले में लाइट देख रहा था. मैं यूसुफ से मिलने एनएसडी गया था. वहीं बाहर खड़े हो के हम लोग चाय पी रहे थे.
सुबह का वक्त था और इरफान वहां आया. मैंने पूछा कि तुम जयपुर से आए हो, तो उसने कहा, नहीं मैं तो चंडीगढ़ से आ रहा हूं. उसने बताया कि मैं तो चंडीगढ़ में एडमिशन लूंगा और मोहन महर्षि के साथ पढ़ लूंगा. तब मोहन महर्षि चंडीगढ़ में हुआ करते थे. वहां एक साल का डिप्लोमा कोर्स होता था. अभी भी चलता है. मैंने उसे कि तुम एनएसडी का फॉर्म भर दो. उसकी जिद थी कि नहीं मैं मोहन महर्षि के सुझाव दिया साथ चंडीगढ़ में पढ़ेंगा. वहीं अच्छी तरह से सीख लूंगा. उस समय एनएसडी के डायरेक्टर की पोस्ट खाली थी और मोहन महर्षि के आने की बात चल रही थी.
मैंने उसे बताया कि तुम चंडीगढ़ जाओगे और मोहन महर्षि दिल्ली एनएसडी में आ जाएँगे. पहले तो वह नहीं माना, फिर बाद में मेरे कहने पर उसने एनएसडी का फॉर्म भर दिया. उसे इंटरव्यू का लेटर मिल गया. तब रोज मेरे पास आ जाता था कि मेरी तैयारी करवाओ. मैंने उसकी स्पीच पर काम किया और कुछ डॉसिंग स्टेप एक दोस्त से सिखाने के लिए मैंने उसे यही कहा कि यह सब सीख लो, क्योंकि इंटरव्यू में यह सब करने को कह सकते हैं. डांस सिखानेवाले दोस्त ने बताया कि इरफ़ान की बॉडी बहुत सख्त है. डांस उससे नहीं हो पाता. मैंने इरफ़ान से कहा कि तुम्हें गोपीकृष्ण थोड़ी बनना है बस थोड़े से स्टेप जान लो.
वहां लोग डांस के जरिये यह जानने की कोशिश करते हैं कि तुम्हारी सेंस ऑफ रिदम कैसी है. उसने लगातार मेहनत की और सबकुछ सीखा. उसी समय मैंने भानु भारती से उसे मिलवाया. भानु भारती ने उसे बताया कि क्या-क्या पढ़ लेना चाहिए. इस तैयारी का यह फायदा हुआ कि उसका एडमिशन हो गया.
एनएसडी से पास आउट होने के बाद वह मुंबई चला गया. फिर मेरी 1991 में उससे मुलाकात हुई. उस समय वह अपने मामा के घर एसिक नगर में रहता था. वह उनका संघर्ष का दौर था. 2005-6 में जयपुर में जवाहर कला केंद्र एक सेंटर बना था. वहां मैं हर साल एक वर्कशॉप करता था. वर्कशॉप की पब्लिसिटी के लिए मैंने 'भास्कर' में फीचर के प्रभारी यशवंत व्यास से संपर्क किया, तो उन्होंने सुझाव दिया कि किसी सेलिब्रिटी को बुलाओ, तो मीडिया कवरेज हो जाएगा.
उन्होंने ही इरफ़ान को बुलाने का सुझाव दिया, फिर मैंने इरफ़ान को फोन किया और वर्कशॉप की बात बताई, इस बात से वह बहुत खुश हुआ और जब मैंने उनसे कहा कि क्या तुम एक दिन के लिए वर्कशॉप में आ जाओगे, तो वह झट से तैयार हो गया. उसने कहा कि आप तारीख बता दो मैं आ जाऊंगा. मैंने उसे कहा कि चार-पांच दिनों का वर्कशॉप है. कभी भी आ जाओ. एक दिन उसका फोन आया कि मैं फलां तारीख को आ रहा हूं. सुबह आऊंगा और शाम में लौट जाऊंगा. उसने यह भी कहा कि मैं अपने घर नहीं जाऊंगा, क्योंकि घर गया तो फंस जाऊंगा और मेरी इन दिनों शूटिंग चल रही .
दोस्त के लिए स्टार नहीं थे इरफान
वह आया. उसने बिलकुल एहसास नहीं होने दिया कि वह एक सफल और मशहूर एक्टर है. फर्श पर बैठकर वर्कशॉप के प्रतिभागियों के साथ बातचीत की. सभी बच्चों के साथ पूरे आदर के साथ उसने बात की और उनकी बातें सुनीं. मैंने उसे इस वर्कशॉप के लिए तीन साल बुलाया और वह हमेशा आया. एक बार दिल्ली में ईशमधु तलवार की पुस्तक का विमोचन था, तो उसके लिए मैंने उससे संपर्क किया और वहां भेजा. मैं उसकी तारीफ करूंगा कि मेरे कहने पर वह पुस्तक विमोचन के लिए गया. उन दिनों वह अमृतसर में शूटिंग कर रहा था. वर्कशॉप के दौरान कभी-कभी मुझे लेट हो जाता था, लेकिन वह हमेशा दस बजे आकर कॉफी शॉप में बैठ जाता था. वहां से हम लोग एक साथ रविंद्र मंच जाते थे.
इरफ़ान ने मेरे साथ कभी कोई प्ले नहीं किया, लेकिन वह हमेशा मुझे एक सीनियर की इज्जत देता रहा. मैंने तो चंद सुझाव दिए थे. उसने हमेशा मुझे इज्जत बख्शी. इरफ़ान ने जयपुर में ज्यादा नाटक नहीं किए. प्रदीप भार्गव और रवि चतुर्वेदी के साथ ही कुछ नाटकों में हिस्सा लिया. मैंने दिल्ली में उसके कुछ फले देखे थे और बाद में फिल्में देखीं. एक्टिंग की पढ़ाई का उसने बहुत खूबसूरत तरीके से फिल्मों में इस्तेमाल किया.
इरफ़ान ने एक्टिंग करते समय अपने दिमाग का ज्यादा इस्तेमाल किया है. बहुत सारे नाटकों में उसने जयपुर की भाषा का, खास तौर पर जो मुस्लिम इलाके हैं, वहां की प्रचलित भाषा का बहुत प्रभावी उपयोग किया. एक्टिंग में उसने दिमाग का सबसे ज्यादा इस्तेमाल किया. ऐसा अभिनय करना कि वह वास्तविक लगे और उसका वही प्रभाव दर्शकों पर पड़े. किरदारों को निभाते समय उसका दिमाग एकदम चौकन्ना रहता था.

(यह लेख पत्रकार और फ़िल्म समीक्षक अजय ब्रह्मात्मज की किताब '...और कुछ पन्ने कोरे रह गए : इरफान' से लिया गया है. इसे इरफ़ान के पुराने दिनों के साथी साबिर ख़ान ने लिखा है. साबिर इस वक़्त जयपुर में सार्थक नाट्य समिति से जुड़े हुए हैं. इस किताब को सरस्वती बुक्स ने छापा है. इस लिंक पर जाकर ये किताब खरीदी जा सकती है. Link- https://amzn.eu/d/3bSQMCW)