पीयूष मिश्रा का जिक्र होते ही, जेहन में एक ऐसे टैलेंटेड इंसान की इमेज बनती है, जिसने हमेशा अपने पैशन को सबसे आगे रखा है. वे अपने काम को लेकर इतने इमोशनल हैं कि उन्हें क्रिएटिविटी से समझौता बिलकुल गंवारा नहीं है. पीयूष इस बात को भी मानते हैं कि अपनी इसी अक्खड़ मिजाजी की वजह से उन्होंने कई प्रोजेक्ट्स हाथों से गवाएं हैं. मुंबई जैसे शहर में खुद की जमीन तलाशने की जद्दोजहद पीयूष के लिए कैसी रही, खुद बता रहे हैं.
वैसे तो आपने अपनी किताब में पूरी जिंदगी समेट कर रख दी है. अब मैं यह जानना चाहूं कि बायोग्राफी के इतर भी पीयूष मिश्रा बचे हैं?
मेरे बारे में जिन लोगों को उत्सुकता थी. वो जानना चाहते थे कि मैं कौन हूं? मैं कहां से आया हूं, क्या कर यहां तक पहुंचा हूं, उन सभी चीजों को मैंने बिना किसी फिल्टर रखे लोगों के सामने रख दी है. कुल मिलाकर इस किताब में मेरा सत्य है. मेरी थिएटर की जिंदगी, मेरी लव लाइफ, शराब की लत, जिंदगी के उतार-चढ़ाव, मेरा अंहकार, मेरा तजुर्बा, असल में जो मैं हूं, वो सबकुछ लिख डाला है. दरअसल क्या हुआ कि मुझे लेकर एक माहौल बनना शुरू हो गया था. एक तबका मुझे पूजने लगा था. मैंने सोचा, यार ये तो बहुत गलत हो रहा है. मेरी तो औकात है ही नहीं.. बस यही मकसद है कि लोगों को यह बता सकूं कि मैं भगवान नहीं हूं. मैं ऑर्डनरी आदमी हूं.. बस उन्हीं का भ्रम तोड़ने के लिए मैंने ये किताब लिख डाली है. आदमी कभी भगवान तो बन ही नहीं सकता है. वो पाप तो करेगा ही. बस यही जान लो.
आपने जिक्र किया है कि हैमलेट प्ले के बाद के जो पीयूष मिश्रा हैं और उससे पहले वाले पीयूष थे, उसमें जमीन आसमान का फर्क था. कैसे?
शो के पहले मैं एक्टर था, मुझे मालूम था कि मैं एक्टिंग करना जानता हूं. एनएसडी (नेशनल स्कूल ऑफ ड्रामा) का पहला साल बिलकुल साधारण सा ही बीता था. कह लें, फर्स्ट ईयर मेरा बहुत ही खराब गया था. सेकेंड ईयर में मुझे हैमलेट में काम करने का मौका, जिसके बाद बहुत बड़ा बदलाव भी आया. सबसे बड़ा बदलाव यह था, मैं इतना बड़ा स्टार बन गया कि मेरा दिमाग खराब हो गया. एकदम से दिमाग उलट गया था. मैं खुद को बड़ा एक्टर समझने लगा. मैं हर बंदे की बात को रिडिक्यूल करने लगा था. बेचेनी सी आ गई थी मुझमें, मुझे लगा था कि इससे बेहतर अब मैं कुछ कर ही नहीं सकता हूं. हैंडीकैप्ड सा हो गया था. कह लो, मेरा वो किरदार ही आजाब बन गया था. पढ़ाई से उपेक्षित होने लगा, कहता था कि थ्योरी नहीं करूंगा. मैंने आर्किटेक्चर, वर्ल्ड ड्रामा ये सब पढ़ना छोड़ दिया था.
एनएसडी की दुनिया बहुत अलग है. आप उस दुनिया का हिस्सा रहे हैं और मायानगरी की दुनिया को भी भली-भांती जानते हैं. क्या अंतर पाते हैं, दोनों में?
देखो, एनएसडी एक प्रोफेशनल कॉलेज है. आप जब उस संस्थान का हिस्सा बनते हैं, तो वहां के तौर-तरीकों में ढल से जाते हैं. वहीं बॉम्बे की दुनिया अलग इसलिए है कि आपने जो अपने इंस्टीट्यूट से सीखा है, उसे वहां अप्लाई करते हैं. बॉम्बे की दुनिया में आपको ग्लैमर मिलता है. एनएसडी की दुनिया आपको रिएलिटी बताती है. मायानगरी आपके सीखी हुई दुनिया की आजमाईश चाहती है. अब इसमें आप पास होते हैं, या फेल आपकी किस्मत है. एनएसडी की दुनिया का क्राउड भले छोटा है लेकिन उसकी दमक पूरी बाहरी दुनिया में हैं.
वैसे आपके बारे में कहा जाए, तो आप एक्सीडेंटल एक्टर बने हैं. एनएसडी शायद घर से बाहर निकलने का जरिया था?
हां, बिलकुल.. मैं अपने शहर से बाहर निकलना चाहता था. छोटा शहर आपको एक कंफर्ट जोन में डाल देता है. जिससे कूएं के मेंढक बनकर रह जाते हैं. वहीं जब आप बाहर निकलते हैं, तो आपका कंफर्ट जोन कहीं पीछे छूटता जाता है. कई मायनों पर चीजों से समझौते करने पड़ते हैं. अब दूसरे शहर में किराए घर की जद्दोजहद, खुद को साबित करने की लड़ाई, अंजान शहर के लोगों के बीच खुद को मिसफिट न होने देने की लड़ाई.. बहुत जंग लड़ने पड़ते हैं. यहां आपके मां-बाप का दिया कुछ नहीं मिलता है, खुद पैदा करना पड़ता है. हालांकि जो अचीव नहीं कर पाते हैं, उनकी स्थिती और खराब हो जाती है. वो बॉम्बे की दुनिया को सहन नहीं कर पाते हैं. कई लोग होते हैं, जो काबिल नहीं होते हैं इस दुनिया के, लेकिन वो फिर भी डटे रहते हैं. अधिकतर लोगों के साथ ऐसा होता है, खुद को एक्टर तो मानते हैं लेकिन वो काबिल हैं नहीं. वैसे हम बतलाने वाले कोई नहीं होते हैं. ये जानना हर बंदे की जिम्मेदारी है कि वो एक्टर है या नहीं. बाद में वो खुद ही पछताता है. बॉम्बे में केवल काम करने वालों की कद्र है, असफल इंसान के लिए कोई जगह नहीं है. मैं इसलिए कह रहा हूं कि मैंने सक्सेस देखी है. फेल्यॉर लोग इस शहर को सहन नहीं कर पाते हैं, जिंदगी नर्क की तरह हो जाती है. बिना पैसे के यहां सरवाइव करना मुश्किल है. मुझे याद है नसीर साहब ने एक बात कही थी कि अगर एक्टर हो, तो काम मिलेगा. जिसे मैंने आगे बढ़ाते हुए कहा था कि अगर एक्टर हो तो काम मिलेगा, लेकिन जब तक काम मिलेगा, तब तक एक्टर बने रह सकोगे क्या?
पीयूष को इस शहर ने कितना तोड़ा था?
पता नहीं मुझमें एक अजीब सी जिद्द थी. मुझे सरवाइव करना था. हालांकि उस जिद्द की कीमत बहुत लंबी होती चली गई. पैरेंट्स की जिम्मेदारी, पत्नी और बच्चे भी हो गए. अभी तक उसकी कीमत चुका रहा हूं. हालांकि कभी फिल्म में काम करने की लालच में नहीं आया था. बस मुझे तो काम करना था. अब किस्मत ऐसी रही कि पैसे भी मिलने लगे और ग्लैमर भी मिला. अपने काम को और जटिल बनाकर काम करता रहा. कॉलेज से निकला, तो थिएटर करने लगा, थिएटर से ऊब गया, तो बैंड ग्रुप बना लिया, वहां से आगे बढ़कर गुलाल के लिए म्यूजिक कर दिया, फिर लगा कि चलो नॉवेल लिख देता हूं. जब भी काम में मजा आना बंद हो जाता था, तो मैं उस काम को छोड़ देता था. हालांकि इतने पैसे हो गए थे कि मैं अपनी पत्नी और बच्चों संग जिंदगी अच्छी गुजार सकूं.
बता दूं, मैं करोड़पति नहीं हुआ हूं, मैं शाहरुख खान नहीं हूं, जिसे एक लाइफस्टाइल मेंटेन करनी हो. मैं जिस फैमिली से आया, उसे देखते हुए मुझे लगता है कि इतने पैसे काफी है मेरे लिए. पैसों की हवस नहीं है. हां, काम को लेकर जुनूनी रहा हूं, तो बस ऊपरवाला काम झोली में डालता गया और मैं आगे बढ़ता गया.
क्या आपने अपने काम या क्रिएटिविटी संग समझौता किया है?
जब बॉम्बे आया था, तो मुझे इस शहर के बारे में कुछ पता नहीं था. तो एकदम से कॉम्प्रोमाइज करना पड़ गया. मैंने साउथ की दो बहुत ही ऑडनरी खराब सी फिल्में कर ली थीं, जिसमें नागार्जुन भी थे. मुझे नहीं मालूम था कि एक्टर के साथ मैनेजर या स्पॉट बॉय होता है. तरीकेकार से नावाकिफ था. हालांकि जब अहसास हुआ कि यार ये तो फिर वही ऑर्डनरी काम हो जाएगा. फिर मैंने उसे छोड़ दिया और यहां से मेरे भुगतने का फेज शुरू हुआ. लोग कहते थे, तू कुछ भी नहीं कर रहा है, तो कुछ काम नहीं मिलेगा क्योंकि मैं अपनी मर्जी से काम करना चाहता था.
अपनी मर्जी के काम करने की वजह से जरूर खामियाजा भुगतना पड़ा होगा. बेशक कई प्रॉजेक्ट्स भी छूटे होंगे?
हां, कई बार.. कई बार चीजें हाथ में आ गई, फिर मालूम पड़ा कि मैं इसमें काम नहीं कर रहा. लोग बुरा मानने लगे थे, कहते थे कि कौन बंदा है? साला इसकी हैसियत ही क्या है? हैसियत वाकई में कुछ नहीं थी लेकिन अक्खर मिजाजी थी. एक वाकिया याद है, राज कुमार संतोषी के कुछ अलग आइडिया थे और मेरे विचार अलग थे, जिससे मैं कॉम्प्रमाइज कर नहीं सकता था. हम भगत सिंह पर साथ काम कर रहे थे. मेरा मकसद भी यही था कि एक कमर्शल फिल्म बने चूंकि मैं अपने आइडियाज को लेकर बहुत उज्जड था, तो कई क्रिएटिव झगड़े हुए. भगत सिंह की इमेज को लेकर हम लड़ रहे थे. आखिरकार वो थे, तो डायरेक्टर, कहने लगे कि मैं डायरेक्टर हूं, तो मेरी चलेगी या तुम्हारी चलेगी. मैंने फिर उनसे कहा कि मुझे बुलाया ही क्यों.
कभी पीयूष मिश्रा पैसे के मामले में ठगे गए हैं?
पैसे के मामले में बहुत ठगा तो नहीं गया लेकिन हां, मिलने में देरी बहुत हुई है. और शुरुआती दौर में तो बहुत ही कम पैसे मिला करते थे. गुलाल हो या गैंग्स ऑफ वासेपुर, मैंने जितनी भी फिल्में की हैं, उसमें बहुत ही कम पैसे मिलते थे. गैंग्स ऑफ वासेपुर तक यह हाल था. फिर भी मैंने अच्छा काम किया है. देखो, स्टार तो अब भी नहीं हूं लेकिन एक अच्छा परफॉर्मर तो हूं, जिसके लिए उसे अच्छे पैसे मिलते हैं. मुझे तो उस कैटिगरी में भी नहीं रखा था.
मेरा एक दोस्त है मनोज बाजपाई, वो बहुत पैसे लेता है. लेकिन मुझे पैसे नहीं मिलते थे क्योंकि मैं उतना बड़ा स्टार नहीं था. मैंने कई बार पैसे की वजह से फिल्म छोड़ी, सोचा शायद पैसे बढ़ाकर मुझे ऑफर मिले. हालांकि धीरे-धीरे चीजें अच्छी होने लगी हैं. आप कमर्शल नगरी में हैं, तो आपको यह सब दुनियादारी सीखनी ही पड़ेगी. अब मैंने मैनेजर रख लिया है, वो मेरे कमर्शल चीजों का हिसाब रखता है. अग्रीमेंट पढ़ना, उसमें मेरे कुछ लॉ ऐड करना, ये सब करते-करते सीख गया हूं.