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'बिहारी गाली नहीं...', बोले अखिलेंद्र मिश्रा, क्यों राज्य में शूट नहीं होती फिल्में, उठाए सवाल

चंद्रकांता शो फेम अखिलेंद्र मिश्रा बिहार से सिवान से आते हैं. उन्होंने मुंबई की फिल्म इंडस्ट्री में एक लंबा वक्त बिताया है और अपनी पहचान बनाई है. एक्टर का कहना है कि बिहारी जहां जाते हैं अपनी जगह बना लेते हैं. वो चाहते हैं कि बिहार में भी फिल्में शूट हों, इसके लिए एक रणनीति बनाई जाए.

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बिहार में क्यों नहीं शूट होती फिल्में? (Photo: ITG)
बिहार में क्यों नहीं शूट होती फिल्में? (Photo: ITG)

आजतक के स्टेट ऑफ द स्टेट बिहार फर्स्ट में एक्टर अखिलेंद्र मिश्रा ने शिरकत की. अखिलेंद्र 'चंद्रकांता' सीरियल में क्रूर सिंह की भूमिका निभाई थी, वहीं 'रामायण' में रावण का किरदार भी निभा चुके हैं. अखिलेंद्र एक्टिंग के साथ-साथ कविता भी लिखते हैं. वो बिहार के सिवान से आते हैं और बताते हैं कि बिहार में फिल्म इंडस्ट्री का अलग क्रेज है. लेकिन उस बारे में कोई बात नहीं करता है. बिहार में शूट करना आसान नहीं है. इसके लिए एक स्ट्रैटेजी बनाने की जरूरत है. 

छोटी-सी है मुंबई की फिल्म इंडस्ट्री- अखिलेंद्र

अखिलेंद्र बोले- कुछ भी अगर दूर हो तो कमाल लगता है. लेकिन पास जाने पर सच पता चलता है. दूर से चमक-दमक के कारण बहुत बड़ी इंडस्ट्री लगती है. लेकिन जब आप वहां जाते हैं तो पता चलता है बहुत छोटी सी इंडस्ट्री है. एक छोटी सी बात भी आग की तरह तुरंत फैल जाती है. हर किसी को पता चल जाती है. डर लगता है जब तक आप जानते नहीं हैं. कोई भी मेरे भाई-बहन अगर वहां जाना चाहते हैं तो जरूर जाएं, डरने की कोई बात नहीं है. अपना आत्मविश्वास बनाए रखें, क्योंकि बिहारी जहां जाते हैं अपना झंडा गाड़ ही आते हैं. 

लोगों को लगता है कि बिहारी कहने से हमने गाली दे दी. ये अज्ञानता है उनकी. वृंदावन में भी बिहारी हैं, कहां जा रहे हो तो बिहारी जी के दर्शन करने. वो बिहारी हैं, वो एक पूरा खानदान हैं. बिहारियों को समझ सके तो बात ही अलग है. इनसे कोई पंगा नहीं लेता है. हम तो अपनी पहचान अपने साथ लिए चलते हैं. विश्व के कोने-कोने में पहचाने जाते हैं, कोई उनसे पंगा नहीं लेता है. बिहार... बिहार है.  

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बिहार में बनेंगी फिल्में

बिहार में फिल्में बनती रहती हैं. भोजपुरी फिल्में बहुत बनती हैं. मैंने भी तीन फिल्में की हैं. फिल्म अंतर्द्वंद जो मैंने की थी, वो चक दे इंडिया से रेस में दी, इसको सोशल इशू का नेशनल अवॉर्ड मिला था. फिर लोटस ब्लूम की. अभी एक और कर रहा हूं जो पोस्ट प्रोडक्शन में है- मेरे पापा. ये हिंदी फिल्में हैं. तो फिल्में बन रही हैं, अभी तो सरकार ने सब्सिडी देनी शुरू की है. तो थोड़ी तो स्ट्रेटेजी बनानी होगी फिल्म वालों को आकर्षित करने के लिए. जब तक ये नहीं होगा फिल्मवाले नहीं आएंगे. जैसे यूपी में हो रहा है. उनके हिसाब से जहां कैमरा रख दिया वो इलाका उनका है. प्रशासन उनके साथ खड़ा है. 

बिहार में क्या है कि यहां कैमरा रख दिया, तो एक आदमी सामने आकर खड़ा हो गया. उसको बोलो कि अरे भाई हटो फ्रेम में आ रहे हो, तो कहेगा क्यों हटूं, आपका जमीन है क्या? तो ये मानसिकता है. क्या करेंगे आप इसमें. मैं ये बता रहा हूं क्योंकि ये मेरा भी घर है. फिल्मों का ऐसा आकर्षण कहीं और नहीं है. पर ये ठीक तब होगा, जब आप इस पर काम करेंगे. 

'सरकार सबकुछ नहीं कर सकती'

बिहार की पृष्ठभूमि पर बनीं फिल्में महाराष्ट्र में शूट हुई हैं. प्रकाश राज की गंगाजल महाराष्ट्र में बनी, जब उसे एक्सप्लोर कर लिया थो मध्य प्रदेश चले गए. लेकिन बिहार नहीं आए. लेकिन जब पहली फिल्म दामुल बनाई थी, जिसके लिए उन्हें अवॉर्ड मिला था, उसकी शूटिंग बिहार में की थी. पर उसके बाद से बिहार की तरफ नहीं देखा. ये सोचने वाली बात है कि क्यों? कहीं न कहीं कुछ तो गड़बड़ है ना, हर काम सरकार नहीं कर सकती. हमें सोचना पड़ेगा कि हमारे राज्य के साथ ऐसा क्यों हो रहा है. क्यों कोई हमारे यहां नहीं आ रहा है. कानपुर, भोपाल, चंदेरी, वाराणसी, जैसी कई जगहों पर लगातार शूटिंग चल रही हैं. हमारे यहां क्यों नहीं. बिहार का राजगीर कोई देख ले तो कहेगा ओरिजिनल लाइटिंग लोकेशन है. 

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धीरे-धीरे क्या गायब हो गया हमारे राज्य से, इसपर मंथन करने की जरूरत है. तभी कोई फिल्म मेकर अपनी यूनिट लेकर हमारे पास आएंगे. क्या कमी रह गई है सोचना जरूरी है.  

बिहार में लोगों की सोच को बदलना जरूरी

अखिलेंद्र आजतक से बातचीत में बिहार में बाढ़ पर लिखी अपनी एक कविता भी सुनाई और सवाल किया कि इसका कौन जिम्मेदार है. एक्टर अपनी किताब भी लिख चुके हैं. वो एक्टिंग क्लास भी देते हैं. जब पूछा गया कि एक वोटर को मास्टर क्लास देना हो तो क्या सिखाएंगे. 

अखिलेंद्र बोले- बिहार में कोई दिक्कत है तो वो मानसिकता की है, जिसे बदलने की आवश्यकता है. मैं इसका खुद भगतभोगी हूं. एक मोटरसाइकिल लगी है तो सब वहीं लगाएंगे, रास्ता जाम हो जाए लेकिन हटाएंगे नहीं. मैं तो बचपन से नाटक करता आ रहा हूं, बचपन में एक टीचर थे उनके यहां हर जाति के बच्चे क्लास लेते थे. लेकिन क्या वजह है कि अब ये मुमकिन नहीं है. क्योंकि बरगलाने वाले बरगलाते जा रहे हैं और सब भटकते जा रहे हैं. बिहार को विकास चाहिए, लेकिन मानसिकता तो बदलिए, एक ही जात-पात की मानसिकता में फंसे हुए हैं. तो कैसे कुछ होगा. हर इंसान के लिए ये जरूरी है.

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हर एक बिहारी अगर निजी रूप से तय कर ले तो सब सही हो सकता है, इसमें सरकार कुछ नहीं कर सकती. क्या एक कंबल, एक दारू की बोतल, दो किलो चावल काफी है. या आपको विकास चाहिए. अरे बिहार तो कभी आर्यव्रत की राजधानी हुआ करती थी. तो फिर क्यों और क्या दिक्कत है. 

सत्र के समापन के साथ अखिलेंद्र ने शिव स्त्रोत का पाठ भी किया. 

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