
उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव (UP Election 2022) में सभी पार्टियों की नजर एक बार फिर मुसलमान वोटों की तरफ है. बीजेपी अपनी नीतियों के जरिए इस वोट बैंक को साधने की उम्मीद में है तो समाजवादी पार्टी मुस्लिम और यादव समीकरण के साथ सत्ता की कुर्सी पर पहुंचने की जद्दोजहद कर रही है.
साल दर साल चुनाव में राजनीतिक दलों पर मुस्लिम तुष्टीकरण के आरोप लगते रहे तो राजनीतिक दल भी उनके सामाजिक आर्थिक-उत्थान के दावे करते रहे. उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव की चौखट पर खड़ा है, ऐसे में चुनाव आज तक में बात करेंगे सूबे के मुस्लिम मतदाताओं की.
बात असदुद्दीन ओवैसी से शुरू करते हैं. उन्होंने 18 दिसंबर को उत्तर प्रदेश के चुनावी कार्यक्रम में मुसलमानों से अपील की है कि वे एक राजनीतिक ताकत के रूप में एकजुट हों. जैसे-जैसे चुनाव नजदीक आ रहे हैं कई पार्टियों के नेता मुस्लिम वोट बैंक को रिझाने की कोशिश में जुट गए हैं.
यूपी में 19 फीसदी है मुस्लिम जनसंख्या
उत्तर प्रदेश में कुल आबादी के मुकाबले लगभग 19 फीसदी मुस्लिम जनसंख्या है. पश्चिमी उत्तर प्रदेश के सहारनपुर जिले को अगर लोकसभा क्षेत्र के हिसाब से देखें तो 17 लाख की आबादी में लगभग 6 लाख मुसलमान हैं.
पश्चिमी उत्तर प्रदेश के सहारनपुर जिले में एक छोटा सा इलाका है देवबंद (Deoband). 2017 के विधानसभा चुनाव के दौरान जारी हुए आंकड़ों के मुताबिक देवबंद विधानसभा सीट पर लगभग 3 लाख 26 हजार मतदाता हैं. इनमें लगभग 1 लाख 10 हजार मुस्लिम वोटर्स हैं. यानी देवबंद में एक तिहाई मुस्लिम मतदाता हैं.

साल 2017 में देवबंद विधानसभा सीट से बीजेपी के उम्मीदवार को विजय मिली जो अपने आप में हैरान करने वाली थी. जीत ने इस भ्रांति को भी दूर कर दिया कि देवबंद मुस्लिम बहुल इलाका है.
देवबंद के रहने वाले दिलशाद कहते हैं कि मुसलमानों के लिए सबसे बड़ा मुद्दा बेरोजगारी है, लेकिन फिलहाल मुसलमानों के खिलाफ माहौल बनाया जा रहा है. बीजेपी से नाराज दिलशाद कहते हैं कि इस बार उनका समर्थन समाजवादी पार्टी को है. उन्हें लगता है कि बीजेपी सरकार में मुसलमानों के खिलाफ अन्याय हो रहा है. उन्हें डर है कि जैसे-जैसे चुनाव आएंगे दो समुदायों के बीच नफरत फिर बढ़ जाएगी.
दारुल उलूम से है देवबंद की पहचान
देवबंद की पहचान यहां रहने वाले लोगों से ज्यादा यहां स्थापित शिक्षा के लिए मक्का और मदीना का दर्जा हासिल दारुल उलूम से है. दारुल उलूम दरअसल एक अरबी शब्द है जिस का हिंदी में अर्थ है ज्ञान का घर. सिर्फ हिंदुस्तान ही नहीं बल्कि दुनिया के कई कोनों से छात्र यहां इस्लाम की तालीम हासिल करने आते हैं जिसे तुलाबा या सालिब भी कहा जाता है.
दारुल उलूम की आधारशिला 1866 में रखी गई थी लेकिन देवबंद पढ़ाई-लिखाई का केंद्र तक सीमित नहीं रहा बल्कि इस्लाम सुधारवादी आंदोलन भी बन गया था. हिंदुस्तान की आजादी के बाद देवबंद ने भारत के बंटवारे का भी विरोध किया था.
मुफ्ती कासमी बताते हैं कि कैसे शैकुल हिंद मौलाना महमूद हसन देवबंदी ने दारुल उलूम की स्थापना की जो आज की तारीख में मजहबी शिक्षा के लिए एशिया का सबसे बड़ा संस्थान बन गया है, जिसे उर्दू में दीनी मरकज़ कहा जाता है. मुफ्ती अरशद कासमी कहते हैं की दीनी तालीम के साथ साथ दुनियावी तालीम भी जरूरी है ऐसे में देवबंद का दारुल उलूम उस दिशा में आगे बढ़ रहा है. लेकिन दारुल उलूम पर कई आरोप भी लगते रहे हैं और कई संगठन इनके खिलाफ लगातार मोर्चा खोले हुए हैं.
बजरंग दल करता रहा है दारुल उलूम का विरोध
बजरंग दल के नेताओं का कहना है कि देवबंद की पहचान दारुल उलूम से नहीं बल्कि माता बाला सुंदरी के नाम से है. देवबंद से बजरंग दल के नेता विकास त्यागी का आरोप है कि देवबंद में मजहबी तालीम के नाम पर चरमपंथ और आतंकवाद को बढ़ावा दिया जा रहा है. विकास त्यागी कहते हैं कि जिस दारुल उलूम ने तबलीगी जमात को खड़ा किया वह आतंकी गतिविधियों में लिप्त है जिसके चलते उस पर कई इस्लामिक देशों में भी बैन लग रहा है ऐसे में भारत सरकार को भी इस पर विचार करना चाहिए. बजरंग दल का आरोप है कि दारुल उलूम का सीधा संपर्क आतंकी संगठनों से है.
लेकिन देवबंद के उलेमा और मुफ्ति इन आरोपों पर सिर्फ इतना कहते हैं कि देवबंद ने हिंदुस्तान की आजादी के इतिहास में खून बहा कर अपना योगदान दिया था, जब खैबर से लेकर चांदनी चौक तक उलेमाओं की गर्दन अंग्रेजों द्वारा लटकाई गई थीं क्योंकि तब देवबंद से जुड़े लोगों ने अंग्रेजों के खिलाफ आंदोलन खड़ा किया.
मुफ्ती अरशद कासमी बताते हैं कि इतिहास देवबंद और दारुल उलूम के बिना अधूरा है क्योंकि यहीं से रेशमी रूमाल आंदोलन शुरू हुआ था जिसके तहत रेशमी रूमाल पर उलेमा संदेश लिखकर उस समय मध्य एशिया और दूसरी जगहों से भारत की आजादी की लड़ाई के लिए मदद मांगते थे.
जो देवबंद शिक्षा के लिए पूरी दुनिया में विख्यात है वहां मदरसों के मॉडर्नाइजेशन या आधुनिकीकरण पर भी काफी जोर दिया गया. खासकर मदरसों को केंद्र या राज्य सरकार द्वारा अनुदान मिलता है अब धर्म के अलावा यहां अंग्रेजी गणित विज्ञान और कंप्यूटर की तालीम भी दी जाती है.
मदरसों की आर्थिक स्थिति अब ठीक नहीं
मदरसा सैयद उलूम हाईस्कूल तक चलता है और यहां भी बच्चों को मजहबी तालीम के अलावा आधुनिक शिक्षा भी दी जा रही है. बच्चों को अंग्रेजी सिखाने वाले प्रधानाचार्य जावेद अख्तर कहते हैं कि 2009 में जब मॉर्डनाइजेशन का कार्यक्रम शुरू हुआ तब मदरसे आधुनिक शिक्षा की ओर बढ़ने लगे क्योंकि वह बच्चों के भविष्य की जरूरत थी लेकिन 2014 के बाद से ही उनको मिलने वाली आर्थिक सरकारी मदद बंद हो गई जिसके बाद से मदरसों की हालत खस्ता है और जिसका सीधा असर मदरसों में पढ़ने वाले बच्चों के भविष्य पर भी पड़ रहा है.
इन मदरसों में बच्चों का भविष्य संभालने वाले शिक्षक अपनी तनख्वाह के लिए लंबा इंतजार कर रहे हैं. पूरे देवबंद में 50 से ज्यादा मदरसे हैं जिसमें लगभग 20 मदरसे ऐसे हैं जो सरकारी वित्तीय मदद से संचालित होते हैं लेकिन ऐसे सरकारी मदरसों में पढ़ाने वाले कई शिक्षक लंबे समय से अपनी तनख्वाह से वंचित हैं.
कुछ मदरसा शिक्षकों ने बताया कि आर्थिक तंगी की वजह से अब वह शाम को फास्ट फूड का व्यवसाय करते हैं ताकि अपने और परिवार का पेट पाल सकें. मदरसा अनवारूल उलूम के शिक्षक मोहम्मद साजिद कहते हैं कि पिछले 4 साल से उन्हें तनख्वाह नहीं मिली है ऐसे में वह शाम को बर्गर बेचते हैं ताकि परिवार का पेट पाल सकें.
मतलूब अली कहते हैं कि हमें 12 हजार केंद्र सरकार से तनख्वाह मिलती है और 3 हजार उत्तर प्रदेश सरकार देती है, लेकिन 4 साल 8 महीने हो गए अभी तक उन्हें केंद्र सरकार से मिलने वाली तनख्वाह नहीं मिल पाई है जबकि पिछले 6 महीनों से उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा भी उन्हें तनख्वाह नहीं मिली है. इन शिक्षकों को 1 अप्रैल 2017 के बाद से तनख्वाह नहीं मिली है.
मुस्लिम महिलाओं को रोजगार की चिंता
वैसे तो कई पार्टियों ने मुसलमानों के सामाजिक और आर्थिक उत्थान के दावे किए हैं लेकिन धरातल पर वह दावे कभी अमल में नहीं लाए गए. मुस्लिम महिलाओं को लगता है कि पहले तो उन्हें अच्छी शिक्षा के लिए संघर्ष करना पड़ता है और अगर अच्छी शिक्षा नसीब हो गई तो फिर आगे रोजगार के मौके कम है ऊपर से कभी परिवार तो कभी समाज उन्हें आगे बढ़ने से रोकता है.
आगे बात देवबंद के कुटी रोड इलाके की करते हैं. यह देवबंद के सबसे पिछड़े इलाकों में से एक है. सरकारी योजनाओं में प्रधानमंत्री आवास योजना के तहत लोगों को यहां मकान मिले हैं लेकिन यहां रहने वाली गरीब मुस्लिम समाज की महिलाओं को लगता है कि अभी भी समाज में उन्हें वह जगह नहीं मिल पा रही है जिसकी वह हकदार हैं.
फरजाना कहती हैं कि आज भी उनके जैसी महिलाएं और उनके समाज के लोग सिर्फ चुनावी वोट बैंक बनकर रह गए हैं जबकि कोई भी राजनीतिक दल उनकी स्थिति पर ध्यान नहीं देता. फरजाना कहती हैं कि समाज में उन्हें आगे बढ़ने के लिए काफी जद्दोजहद करनी पड़ती है लेकिन कभी परिवार साथ नहीं देता तो कभी समाज के ताने सुनने पड़ते हैं.
फरजाना कहती हैं कि आज भी उन्हें यह अहसास नहीं होता कि वह आजाद हैं बल्कि लगता है देश अभी भी गुलाम है क्योंकि महिलाओं को वह आजादी नहीं है.
रशीदा कहती हैं कि मुस्लिम समाज में महिलाओं को लड़कियों को मुख्यधारा के विकास से जुड़ने का मौका नहीं मिलता, ना ही उनके लिए शिक्षा की बेहतर व्यवस्था है ना ही वह रोजगार के लिए आगे बढ़ पाती हैं क्योंकि अक्सर समाज उनका साथ नहीं देता.
तीन तलाक कानून पर क्या बोलीं महिलाएं
हाल ही में मुस्लिम महिलाओं को तीन तलाक के उत्पीड़न से बचाने के लिए कानून भी लाया गया. फरजाना कहती है कि तीन तलाक कानून के बाद ऐसी घटनाओं में कमी तो आई है लेकिन महिलाओं को आर्थिक तौर पर मदद नहीं मिल पाती है.
शहरी इलाकों की मुस्लिम महिलाओं के भी अलग मसले हैं. देवबंद शहर की महिलाएं भी बेहतर शिक्षा और रोजगार की समस्या को एक बड़ा मुद्दा मानती हैं साथ ही उन्हें लगता है कि हमेशा मुस्लिम समाज की महिलाओं को एक वोट बैंक की तरह ही देखा जाता है.
सलमा मुशर्रफ कहती हैं कि कोई नहीं चाहता कि महिलाएं आगे बढ़े ऐसे में समाज के कई लोग महिलाओं को आगे बढ़ने से रोकते हैं. सलमा कहती हैं कि अब चुनाव आ रहे हैं तो यह कहा जाएगा कि मुसलमानों के 20% वोट हैं अब उन्हें वोट बैंक समझा जाएगा चुनाव के पहले आखिर उन्हें क्यों नहीं पूछा जाता.
फोजिया कहती हैं कि जब चुनाव आता है तो हिंदू-मुसलमान सबको अलग कर दिया जाता है और वोटों की राजनीति की जाती है आखिर सीएए-एनआरसी के दौरान मुसलमानों को क्यों अलग किया गया क्या आजादी की लड़ाई में मुसलमानों ने योगदान नहीं दिया? आखिर आजादी की लड़ाई में मुसलमान पाकिस्तान या जिन्ना के लिए नहीं बल्कि हिंदुस्तान के लिए लड़े. हमारा देश हिंदुस्तान है हम यहां के नागरिक हैं हम पाकिस्तान या जिन्ना के लिए नहीं लड़े.
इरम उस्मानी कहती हैं कि आज की तारीख में मुसलमान होना बेहद मुश्किल है. सरकार ने कहा तीन तलाक मुस्लिम महिलाओं के लिए लाया गया है लेकिन जब उनका तलाक होता है तो संपन्न आदमी जमानत लेकर बाहर आ जाता है लेकिन उन महिलाओं को क्या आर्थिक न्याय मिलता है क्या कोई सहारा मिलता है? इरम पूछती हैं कि क्या महिलाएं आज की तारीख में महफूज हैं?
क्या सोचते हैं फर्स्ट टाइम वोटर
18 साल की दुआ हुसैन इस बार पहली बार वोट डालने जाएंगी. दुआ हुसैन कहती हैं कि अगर हम सरकार चुनते हैं तो हमें उसके बदले सुविधाएं मिलनी चाहिए लेकिन ऐसा होता नहीं है, जो वादे किए गए वह मुकम्मल नहीं हुए ऐसे में हमारे लिए इस चुनाव में बेरोजगारी सबसे बड़ा मुद्दा है.
देवबंद की शिक्षित युवा महिलाएं कहती हैं कि उन्हें बराबरी का अधिकार चाहिए और यही उनके लिए सबसे बड़ा मुद्दा है. दूसरी महिलाओं को लगता है कि बेहतर शिक्षा और रोजगार ही उनके लिए भी चुनावी मुद्दा होगा.
देवबंद के दारुल इलाके में अब्दुल नेहरू जैकेट बनाने का काम करते हैं. अब्दुल के हाथों में गुण है जिससे वह ₹350 में एक जैकेट तैयार कर देते हैं जो बड़े-बड़े शॉपिंग मॉल और बाजारों तक पहुंचते-पहुंचते दो हजार से भी ज्यादा महंगी बिकती है. अब्दुल कहते हैं कि अब कमाई कम होने लगी है क्योंकि जीएसटी बढ़ गई है और पीछे से कच्चा माल महंगा आ रहा है. अब्दुल कहते हैं कि महंगाई उनके लिए इस चुनाव में बड़ा मुद्दा होगी.
नौशाद जैसे युवा कहते हैं कि वह मछली कारोबार में रोजी रोटी कमा रहे हैं क्योंकि उन्हें भी शिक्षा नसीब नहीं हुई. नौशाद कहते हैं कि खाना कमाना ही अब उनकी जिंदगी में सबसे बड़ा संघर्ष है.
असुरक्षित महसूस करते हैं देवबंद के मुसलमान
देवबंद के मुसलमानों को असुरक्षा की भावना सबसे ज्यादा फिक्रमंद करती है. 4 सितंबर और 5 सितंबर के बीच रात को समाजवादी पार्टी सरकार में राज्य मंत्री रहे ईशा राजा के भाई जीशान रजा की पुलिस के साथ भिड़ंत में मौत हो गई. पुलिस द्वारा दर्ज किए गए मुकदमे के मुताबिक जीशान रजा गोकशी में शामिल था और पुलिस द्वारा दबिश के दौरान आरोपियों की ओर से चलाई गई गोली में घायल हो गया जिसकी बाद में मौत हो गई.
वहीं जीशान के चाचा ईशा राजा का कहना है कि वह पुलिस एनकाउंटर में मारा गया और मौजूदा सरकार में पुलिस उनके समाज के युवाओं को झूठे मुकदमों में फंसाती है.
क्या एक घटना को पूरे समाज के नजरिए से देखा जा सकता है? हमने देवबंद के पढ़े-लिखे कामकाजी युवाओं से भी इस मुद्दे पर विस्तृत चर्चा की. स्थानीय पत्रकार मुशर्रफ उस्मानी कहते हैं कि आर्थिक स्थिति में कोई बदलाव नहीं है बल्कि रोजगार के मौके धीरे धीरे कम हो रहे हैं. जब से यह सरकार आई है तब से मुसलमान खुद को सुरक्षित महसूस नहीं कर रहा है क्योंकि उन पर मुकदमे लगा दिए जाते हैं. एनआरसी-सीएए प्रोटेस्ट के दौरान मुझ पर 42 मुकदमे लगाए गए.
शिक्षा क्षेत्र में काम करने वाले डॉक्टर मलिक मौज़म कहते हैं कि जब से यह सरकार आई है तब से हमारा विश्वास सुरक्षा के मामले में कम हुआ है. वह बोले, 'मैं सोचता हूं कि अपने बच्चों को पढ़ाई के लिए बाहर भेज दूं.'
कारी नोमान इलाही कहते हैं कि हमारी गंगा जमुना तहजीब को नुकसान पहुंचाया जा रहा है. कारी कहते हैं कि हिंदुस्तान ऐसा मुल्क है जो धर्मनिरपेक्ष है इसलिए हमें उस सेकुलरिज्म को कायम रखना चाहिए आगे बढ़ाना चाहिए इसमें हमारी तरक्की है.
डॉक्टर मलिक कहते हैं कि हाल फिलहाल में जब एयरपोर्ट का उद्घाटन हो रहा है और वहां जिन्ना की बात कर रहे हैं जबकि हमने इस मुल्क में रहना पसंद किया क्योंकि हमारा मुल्क है और हम जिन्ना की निंदा करते हैं लेकिन आप जिन्ना का नाम लेकर हम से सफाई की उम्मीद करते हैं आप विकास की बात क्यों नहीं करते? हमें लगता है कि हम अपनी पहचान छिपा करके रखें क्योंकि कहीं यात्रा भी करें तो किसी को पता चल जाएगी यह मुसलमान है. यह भावना पहले नहीं थी लेकिन अब यह सामना होने लगी है.
पत्रकार मुशर्रफ उस्मानी कहते हैं कि जिन्ना का नाम लिखकर हमें जलील किया जाता है. बच्चे की शादी की उम्र 21 साल की जा रही है जो सबके लिए की गई है लेकिन किसी मुसलमान ने इसका विरोध नहीं किया. तीन तलाक के दौरान हमने इसकी मुखालफत इसलिए की थी क्योंकि क्योंकि तीन तलाक एक शरियत का मामला था और हम नहीं चाहते थे सरकार उसमें दखल दे.
डॉक्टर मलिक कहते हैं कि बीजेपी के राज में हमारे यहां अच्छी सड़कें बनी है जिसके लिए नितिन गडकरी को श्रेय देते हैं लेकिन जब यह कहा जाएगा कि कपड़ों से पहचान लिया जाए और 'सबका साथ सबका विकास' पर अमल ना हो तब यह गलत है.
देवबंद के मुसलमानों के लिए सामाजिक सुरक्षा के साथ शिक्षा और रोजगार सबसे बड़ा मसला है. उनका सवाल है कि अगर हमें बेहतर शिक्षा ही नहीं मिलेगी तो रोजगार कैसे मिलेगा. समाज के दूसरे वर्गों की तरह ही मुस्लिम समाज के युवाओं, महिलाओं और बच्चों की सामाजिक जरूरतें एक समान ही है और वह खुद को वोट बैंक की तरह नहीं देखना चाहते बल्कि यह उम्मीद करते हैं कि सरकार चाहे जो भी हो, बात उनके मुद्दों की करें, उनके अधिकारों की करे.
बेहतर शिक्षा, स्वास्थ्य, सामाजिक सशक्तिकरण इनके लिए भी मुद्दा है लेकिन उससे भी बड़ी जरूरत सामाजिक सुरक्षा है, जिसको लेकर समुदाय फिक्रमंद है और संभवत विधानसभा चुनाव में यही सबसे बड़ा मुद्दा बन जाए.