लास्ट वीक से सोशल मीडिया पर एक सवाल अचानक सुर्खियों में है. यह सवाल 24 साल के एक सॉफ्टवेयर इंजीनियर ने पूछा था. उसका कहना था कि मेरी सैलरी सालाना 58 लाख रुपये है, काम का कोई तनाव नहीं है. बैंगलोर में सभी सुविधाओं में रह रहा हूं. लेकिन मैं अकेला पड़ गया हूं. एक ही तरह की जिंदगी से बोर हो गया हूं. अब नये चैलेंज लेने से डरने लगा हूं, मैं अपनी जिंदगी से खुश नहीं हूं, मैं क्या करूं, कैसे अपनी खुशी हासिल करूं?
अब सोचिए हममें से अधिकांश यही सोचते हैं कि पढ़ाई खत्म होते ही अच्छे पद पर नौकरी, बड़ी कंपनी में मोटे पैकेज वाली सैलरी, किसी मेट्रो सिटी की चकाचौंध भरी जिंदगी हो तो इससे ज्यादा खुशी की बात क्या होगी. एक ऐसी जिंदगी जहां कोई अभाव न हो, जिम-क्लब-रेस्तरां का पैसा चुकाने के लिए किसी का मुंह न देखना पड़े, बचपन से लोगों से सुनते सुनते हमारे खुशी के पैमाने बस इसी सोच में ढलते गए हैं. हम यही सब सोचकर दिन-रात एक कर रहे होते हैं तभी अचानक इस तरह की कोई बात हमें अंदर तक झकझोर देती है.
फिर याद आता है कि जवान होने के क्रम में अक्सर लोग 'ये दौलत भी ले लो, ये शोहरत भी ले लो, भले छीन लो मुझसे मेरी जवानी...मगर मुझको लौटा दो वो कागज की कश्ती-वो बारिश का पानी' जैसे गीतों पर इमोशनल क्यों हो जाते हैं. क्यों हम बचपन में अमीर बनकर जिन खिलौनों-सामानों को खरीदने की ख्वाहिशें रखते हैं, एक उम्र के बाद जब पैसा आता है तो वो ख्वाहिशें नदारद होती हैं. यह कैसी मृग मरीचिका है जहां कभी "संतुष्टि और खुशी" की प्यास बुझती ही नहीं. अक्सर ऐसे सवालों से दो-चार होने वाले लोग भी तय नहीं कर पाते कि धन दौलत कमाकर खुशी तलाशूं या जिंदगी जीने का कोई और तरीका भी है.
क्यों बोर होने लगते हैं लोग?
सर गंगाराम अस्पताल दिल्ली के जाने माने मनोचिकित्सक डॉ राजीव मेहता कहते हैं कि हमें सबसे पहले सोच को 'करेक्ट' करना जरूरी है. इसे इस तरह समझिए कि कैसे ज्यादातर माता-पिता बचपन से हमारे लिए वो सपने देखते हैं, जो सपने कमोबेश वो पूरे नहीं कर पाए. वो हमारे लिए ओहदेदार नौकरी, सुख-सुविधाएं और एक इज्जतदार आजाद जिंदगी चाहते हैं. इसके लिए दिन रात बच्चों को बताया जाता है कि उनकी किस्मत और माता-पिता की मेहनत का फल मिलना न मिलना बच्चों के हाथों में है. बच्चे भी उसी दिशा में जुट जाते हैं.
फिर जब उन्हें कदम दर कदम सफलता मिलती रहती है तो हर तरफ से एक वैलिडेशन मिलता है. दसवीं में अच्छे नंबर आए, तालियां मिठाईयां तारीफें मिलीं. फिर इसी तरह बारहवीं, इसके बाद प्रतियोगी परीक्षा में सेलेक्शन, हर बार उन्हें वैलिडेशन के तौर पर एक 'किक' मिलता है. यह किक दरअसल हमारे दिमाग में हैप्पी हार्मोन कहे जाने वाले डोपामाइन, सेरोटोनिन, ऑक्सीटोसिन और एंडोर्फिंस को बढ़ाता है. फिर हम नौकरी की राह पकड़ लेते हैं. एक तरह से कड़ी मेहनत का फल मिल जाता है, सपनों को मुकाम मिल जाता है और फिर एक ढर्रे की जिंदगी हमारे सामने होती है.
आ जाती है इनसिक्योरिटी की भावना
ये वो जिंदगी है जहां हम खुद को 'सेक्योर' रखना चाहते हैं. यह सेक्योर होने की भावना मन में कब इनसिक्योरिटी को बढ़ा देती है कि हम समझ ही नहीं पाते कि हमने क्यों रिस्क लेना बंद कर दिया. यह इनसिक्योरिटी और रिस्क न ले पाना इंसान के भीतर अलग तरह का फियर पैदा करता है. वो मोटी सैलरी वाली नौकरी में पहुंचकर एक सैचुरेशन (परिपूर्णता) प्वाइंट पा लेता है. यह वो वक्त होता है जब माता-पिता भी पूरी तरह आश्वस्त हो जाते हैं कि उनके बच्चे अब सेटल हैं. वहीं उस पीढ़ी के दूसरे युवा जो कभी दोस्त थे, जिनके पास वक्त था वो भी अपनी अपनी जिंदगी में व्यस्त होते हैं.
अब होता यह है कि हमारे दिमाग और शरीर को जिन हार्मोंस से किक मिलती थी, जिससे हमें खुशी महसूस होती थी. वो अब नहीं मिल पाती. अब हमें चुनौतियों और जिम्मेदारियों के साथ एक ढर्रे में ढली जिंदगी का हर दिन सामना करना होता है. यही एकरूपता नीरसता को जन्म देती है. इस नीरसता के दौर को जेन-जी यानी कि हमारी नई पीढ़ी बोरियत मानती है. ऐसी बोरियत जिसे वो जिम जाकर, घूमने जाकर, होटल में खाना खाकर, हवाई यात्राएं करके भी दूर नहीं कर पाते. उनकी जिंदगी में एक चिर परिचित एकाकीपन छा जाता है, जो उन्हें भीतर से दुख का स्थायी भाव महसूस कराता है.
क्या है ये मृग मरीचिका
भोपाल के वरिष्ठ मनोचिकित्सक डॉ सत्यकांत त्रिवेदी कहते हें कि अगर किसी के मन में ऐसे विचार आ रहे हैं कि उसके पास सबकुछ है मगर वो खुश नहीं है, तो ये खराब मानसिक स्वास्थ्य के संकेत हो सकते हैं. ऐसे विचार आने पर मेंटल हेल्थ स्क्रीनिंग जरूरी है. जैसे हम हृदय की धड़कन असामान्य होने पर कार्डियोलॉजिस्ट के पास जाते हैं, आंख की दिक्कत पर आई स्पेशलिस्ट, नाक कान गले की समस्या होने पर भी विशेषज्ञ खोजते हैं. ठीक वैसे विचारों की या मन की समस्या लगे तो मेंटल हेल्थ स्पेशलिस्ट के पास जाना चाहिए.
अब जानिए कि इसमें थेरेपिस्ट का क्या रोल होता है. थेरेपिस्ट सबसे पहले आपके व्यक्तित्व को समझता है क्योंकि ऐसे मामले में पहली भूमिका होती है हमारे व्यक्तित्व की. हमारा व्यक्तित्व हमारी परवरिश, समाज और जिस जिस से मिले वो सब मिलकर बनता है. अपने इस व्यक्तित्व को उसी आधार पर हमने ढाला होता है. हर किसी ने अपनी खुशियों का अपनी सफलता का मानक तय किया. किसी के लिए पैसे, किसी के लिए कोई सफलता, कोई भौतिक चीज, किसी के लिए कोई कंपटीशन, इस तरह हरेक के लिए खुशियों का पैमाना अलग है.
खुशी से ऊपर है शांति
मेंटल हेल्थ के मामले में शांति को खुशी से ऊपर रखा जाता है. इसमें हमारे इमोशनल पहलू का रोल है. हमें खुशी से ज्यादा शांति पाना जरूरी है. क्योंकि कोई एचीवमेंट खुशी देता है तो वो एक तय समय तक खुश रखेगा. वो हमेशा के लिए नहीं हेागा. जब हम ऐसे तमाम एचीवमेंट्स को खुशी का पैरामीटर बनाते हैं तो इस मृग मरीचिका में उलझते चले जाते हैं. इसका कोई अंत नहीं होता. ये ठीक एक वीडियो गेम की तरह होता है जिसमें एक स्टेज पार की, खुशी मिली तो आगे दूसरी फिर तीसरी स्टेज है. हमने सब अपने हिसाब से एचीव कर लिया, फिर लगा उसकी सीमाएं खत्म हो रही हैं. यहीं से निराशा, अकेलापन शुरू होता है जो बोरियत देता है.
हमें खुशी कहां से मिलेगी
अब सवाल है कि हमें खुशी कहां से मिलेगी. डॉ सत्यकांत कहते हैं कि कारणों का एनालिसिस करने के बाद पता चलता है कि शांति का अनुभव क्यों नहीं हो रहा. हो सकता है कि ऐसे लोगों का सोशल कनेक्शन पुअर हो, कहीं न कहीं ऐसे लोगों का भावनात्मक विकास होता है तो भौतिकता को तरजीह मिलती है. लेकिन इमोशनल पहलू अधूरा रह जाता है.
खुशी शांति से और शांति संतुलन से...
डॉ त्रिवेदी कहते हैं कि खुशी शांति में निहित है. जब हमारा भावनात्मक जुड़ाव बेहतर हो, सोशल कनेक्शन मजबूत हों, हम एक दूसरे के साथ दुनियावी चीजों से ऊपर देख सकें तभी शांति निश्चित है. इसका यह मतलब नहीं है कि पैसे में खुशी नहीं है. लेकिन साथ ही साथ कमाने की पार सीमाएं हैं, हर कोई अपने गढ़े संसार के हिसाब से सोचता है कि उसने सब पा लिया है. ओवर ऑल देखा जाए तो शांति में पैसे का रोल है लेकिन एक सीमा तक रोल है.
समग्रता ही रास्ता है
जब काउंसिलिंग के लिए ऐसे लोग आते हैं जो कहते हैं कि हम तो जीवन को जी चुके, सब पा लिया. लेकिन साथ ही उन्हें लगता है कि हमें अनसुना किया गया. पैसे के कारण हम दोस्तों से दूर हो गए, उन्हें तमाम मलाल होते हैं. इसलिए बच्चों की परवरिश के वक्त ही उन्हें समग्रता की तरफ जाने का पाठ सिखाना जरूरी है. हमें साधारण भाषा में ऐसे समझाना चाहिए कि एक व्यक्ति के दो पहलू होते हैं., उसके भौतिक शरीर को घर चाहिए, पैसा चाहिए, लग्जरी चाहिए लेकिन भावनात्मक शरीर को नींद चाहिए, शांति चाहिए, द्वेश मुक्ति चाहिए, अहंकार मुक्ति चाहिए, अच्छा संवाद चाहिए. इसी से समग्र खुशी के रास्ते खुलेंगे.