scorecardresearch
 

थार को थामे खड़ी अरावली के अस्तित्व पर संकट? अगर मिट गई तो क्या होगा...

Aravali Hills Issue Explain: अरावली की पहाड़ियों को लेकर सोशल मीडिया पर काफी चर्चा हो रही है. बताया जा रहा है कि अरावली का अस्तित्व संकट में है. ऐसे में जानते हैं कि आखिर अरावली का मामला क्या है...

Advertisement
X
सुप्रीम कोर्ट ने अरावली की नई परिभाषा को स्वीकार किया है. (Photo: Arranged By ITG)
सुप्रीम कोर्ट ने अरावली की नई परिभाषा को स्वीकार किया है. (Photo: Arranged By ITG)

अरावली... धरती की वो पहाड़ियां, जो करीब 2.5 अरब साल से भारत के बड़े हिस्से को रेगिस्तान से तपने से बचा रही हैं. जब थार की गर्म हवाएं भारत की छाती से टकराती हैं तब अरावली ही थार को थामे खड़ी रहती है. राजस्थान में ये पानी की आखिरी उम्मीद है, हवा की आखिरी ढाल है और जीवन की पहली शर्त. जहां से नदियां जन्म लेती हैं, जहां बादल थमता है. रेत के समंदर में एक विरासत को अपने में खामोशी से समेटने वाली अरावली की परिभाषा बदल गई है और दुनिया की सबसे पुरानी पर्वतमाला का अस्तित्व अब संकट में है. समझते हैं कि आखिर ऐसा क्यों कहा जा रहा है कि अरावली संकट में है...

क्यों खबरों में है अरावली?

दरअसल, हाल ही में देश की सर्वोच्च अदालत सुप्रीम कोर्ट ने पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय की एक समिति की सिफारिशों को स्वीकार करते हुए अरावली की पहाड़ी और अरावली पर्वतमाला की नई परिभाषा जारी की है. इसके साथ ही विशेषज्ञों की रिपोर्ट आने तक दिल्ली, हरियाणा, राजस्थान और गुजरात में फैले इसके क्षेत्रों में नए खनन पट्टे देने पर रोक लगा दी है. साथ ही माइनिंग के लिए प्लान बनाने के लिए सरकार से कहा है.

क्या है नई परिभाषा?

पहले जानते हैं कि आखिर नई परिभाषा की बात कहां से आई... साल 1995 में तमिलनाडु के एक जमींदार TN गोदावर्मन और भारत संघ का केस काफी चर्चा में आया था. इसमें गोदावर्मन ने कहा था कि नीलगिरी के इलाके में मौजूद जंगल में बड़े पैमाने पर पेड़ों की अवैध कटाई होती है. इस पर कोर्ट ने 1996 में फैसला दिया कि कौन सी जमीन जंगल की है और कौन सी नहीं, यह पैमाना सरकार के नोटिफिकेशन से तय नहीं होगा लेकिन इस केस में अंतरिम अपील के आधार पर देश के दूसरे वन क्षेत्रों पर अपने फैसले देने जारी रखे. इसके बाद कोर्ट की ओर से एक कमेटी बनाकर अरावली की परिभाषा बनाने के लिए कहा गया. मई 2024 में सुप्रीम कोर्ट ने ये काम मल्टी एजेंसी कमेटी को सौंप दिया. इसी कमेटी ने अब अरावली की ये नई परिभाषा दी है.

Advertisement

बता दें कि एफएसआई 2010 से अरावली पहाड़ियों को परिभाषित करने के लिए 3 डिग्री ढलान के मानक का उपयोग कर रहा था. इसी उद्देश्य से 2024 में बनाई गई एक तकनीकी समिति ने इस मानक में बदलाव किया और सुझाव दिया कि जिस भौगोलिक संरचना में कम से कम 4.57 डिग्री की ढलान हो और ऊंचाई कम से कम 30 मीटर हो, उसे अरावली पहाड़ी माना जाना चाहिए. इन मानकों से लगभग 40% अरावली क्षेत्र को कवर किया जा सकता था. लेकिन अब मंत्रालय ने नई परिभाषा दी है, जिसमें 100 मीटर की बात कही है.

कोर्ट के आदेश के अनुसार, अरावली जिलों में उस भूभाग को ही अरावली पहाड़ी माना जाएगा, जिसकी ऊंचाई भूभाग से 100 मीटर या उससे अधिक हो. ऐसी सबसे निचली रेखा (चाहे वास्तविक हो या काल्पनिक रूप से विस्तारित) द्वारा घिरे क्षेत्र के भीतर स्थित वो जमीन, जिसमें पहाड़ी, उसके सहायक ढलान और संबंधित भू-आकृतियां, चाहे उनका ढलान कुछ भी हो, अरावली पहाड़ियों का हिस्सा मानी जाएंगी.

इसके अलावा उस जगह को अरावली पर्वतमाला माला माना जाएगा, जहां पहाड़ियां एक दूसरे से 500 मीटर के बीच होंगी, उस समूह को पर्वतमाला कहा जाएगा. पैनल का कहना है, 'दो या दो से अधिक अरावली पहाड़ियां, जो एक दूसरे से 500 मीटर की निकटता में हैं, जिनकी दूरी दोनों ओर की सबसे निचली सीमा पर स्थित सबसे बाहरी बिंदु से मापी जाती है, उन्हें पर्वतमाला कहा जाएगा.

Advertisement

आम भाषा में कहें तो अरावली क्षेत्र में उन पहाड़ियों को अरावली माना जाएगा, जो 100 मीटर या उससे ऊपर हैं. इसके अलावा दो पहाड़ियों के बीच 500 मीटर से कम गैप होने पर उसे पर्वतमाला माना जाएगा.

अब क्या है बवाल?

अब बवाल होने का सबसे बड़ा कारण ये है कि नई परिभाषा अगर लागू होती है तो वर्तमान अरावली का करीब 90 फीसदी क्षेत्र अरावली से बाहर हो जाएगा और उसे अरावली नहीं माना जाएगा. ऐसे में अगर भविष्य में यहां माइनिंग या कोई और निर्माण होता है तो ये पहाड़ियां गायब हो जाएंगी और सिर्फ 10 फीसदी अरावली पहाड़ियां रहेंगी और बाकी गायब हो जाएंगी.

इंडियन एक्सप्रेस की रिपोर्ट के अनुसार, भारतीय वन सर्वेक्षण (एफएसआई) की ओर से किए गए एक आंतरिक आकलन के अनुसार, राजस्थान के 15 जिलों में फैली 12081 अरावली पहाड़ियों में से सिर्फ 1048 पहाडियां ही 100 मीटर से ऊपर हैं. इसका मतलब इस पर‍िभाषा को बदलने से अरावली का 90% से अधिक क्षेत्र अब अरावली का ह‍िस्‍सा नहीं होगा.

ऐसे में लोग इसका विरोध कर रहे हैं. स्थानीय स्तर पर लोग और उसके साथ ही अरावली में काम कर रहे एनजीओ इस फैसले से नाखुश है. इसके अलावा राजनीतिक जगत में इसका विरोध जताया जा रहा है. कांग्रेस सांसद सोनिया गांधी ने भी इसपर विरोध दर्ज किया है और कहा है कि मोदी सरकार ने इन पहाड़ियों के लिए लगभग एक तरह से 'डेथ वारंट' जारी कर दिया है, जो पहले से ही अवैध खनन के चलते काफी हद तक उजड़ चुकी हैं.

Advertisement

वहीं, अशोक गहलोत का कहना है कि केंद्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में ऐसी रिपोर्ट पेश की है जिससे अरावली का दायरा सिमट गया है. अरावली राजस्थान का केवल पर्वत नहीं, हमारा 'रक्षा कवच' है. केंद्र सरकार की सिफारिश पर इसे '100 मीटर' के दायरे में समेटना, प्रदेश की 90% अरावली के 'मृत्यु प्रमाण पत्र' पर हस्ताक्षर करने जैसा है. सबसे भयावह तथ्य यह है कि राजस्थान की 90% अरावली पहाड़ियां 100 मीटर से कम हैं. अगर इन्हें परिभाषा से बाहर कर दिया गया, तो यह केवल नाम बदलना नहीं है, बल्कि कानूनी कवच हटाना है. इसका सीधा मतलब है कि इन क्षेत्रों में अब वन संरक्षण अधिनियम लागू नहीं होगा और खनन बेरोकटोक हो सकेगा.

राजनेताओं के अलावा अरावली के नीचे बसे लोगों का कहना है कि अगर इसे खत्म कर देंगे तो हमारा क्या होगा. इस बारे में जयपुर के रहने वाले सुरेश कुमार कहते हैं, 'हमारा जीवन इस तलहटी में गुजरा है, हमारी कई पीढ़ियां यहां रहती आई हैं. अरावली का हमारे ऊपर बाप के जैसा सहारा है और वो हाथ हमारे ऊपर से हट जाएगा.'

‘पीपल फॉर अरावली’ की संस्थापक सदस्य और लंबे वक्त से अरावली के संरक्षण पर काम कर रहीं नीलम अहलूवालिया ने आजतक को बताया, 'हमने 'अरावली विरासत जन अभियान' शुरू किया है. कोर्ट की नई परिभाषा लागू होने पर उत्तर पश्चिम भारत का मरुस्थलीकरण रोधक क्षेत्र, महत्वपूर्ण जल पुनर्भरण क्षेत्र, प्रदूषण नियंत्रण क्षेत्र, वन्यजीव आवास नष्ट हो जाएंगे और लाखों लोगों की खाद्य और जल सुरक्षा पर नकारात्मक प्रभाव पड़ेगा. हम भारत के सर्वोच्च न्यायालय के उस फैसले से बेहद निराश हैं जिसने दिल्ली, हरियाणा, राजस्थान और गुजरात राज्यों में फैली 2 अरब साल पुरानी अरावली पर्वतमाला को अस्तित्व के संकट में डाल दिया है.'

Advertisement

उन्होंने बताया, 'अरावली पर्वतमाला 200 से अधिक देशी और प्रवासी पक्षी प्रजातियों, 100 से अधिक तितली प्रजातियों, और कई सरीसृप और स्तनधारी प्रजातियों का घर है, जिनमें तेंदुए, बाघ, लकड़बग्घे, सियार, नीलगाय, साही, सिवेट बिल्ली आदि शामिल हैं. खनन के कारण और अधिक पहाड़ियों और जंगलों के नष्ट होने से वन्यजीवों के आवास सिकुड़ेंगे और उत्तर पश्चिम भारत के शहरों और ग्रामीण क्षेत्रों में मानव-पशु संघर्ष बढ़ेगा.'

वहीं, 'अरावली विरासत जन अभियान' से जुड़े सिरोही के लक्ष्मी और बाबू गरासिया ने कहना है, 'हम गरासिया जनजाति से हैं, जो पीढ़ियों से दक्षिण राजस्थान की अरावली पर्वतमाला में निवास करते आ रहे हैं. सुबह उठने से लेकर रात को सोने तक हमारा जीवन पहाड़ों और जंगलों से गहराई से जुड़ा हुआ है. हम भोजन, ईंधन, औषधीय जड़ी-बूटियों और बांस एवं तेंदू के पत्तों जैसी कच्ची सामग्री के लिए जंगलों पर निर्भर हैं, जिन्हें हम इकट्ठा करके बेचते हैं. हमारे लिए ये पहाड़ हमारे भगवान हैं और हमारा जीवन इन पर ही निर्भर है.'

Aravali

ऊंचाई नहीं, अस्तित्व है अरावली की पहचान

अरावली विश्व की सबसे प्राचीन पर्वतमालाओं में से एक है, इसे पश्चिमी और उत्तर-पश्चिमी भारत को आकार देने वाला कहा जाता है. गुजरात से दिल्ली तक चार राज्यों में फैली अरावली पर्वतमाला उत्तर-पश्चिमी भारत में एक महत्वपूर्ण पारिस्थितिक भूमिका निभाती है. यह मरुस्थलीकरण के अवरोधक के रूप में कार्य करती है, थार रेगिस्तान के विस्तार को रोकती है और दिल्ली, जयपुर और गुरुग्राम जैसे शहरों की रक्षा करती है. यह पर्वतमाला वॉटर रिचार्ज सिस्टम को बढ़ावा देती है और चंबल, साबरमती और लूणी जैसी महत्वपूर्ण नदियों का सोर्स है.

Advertisement

इसके जंगल, घास के मैदान और आर्द्रभूमि लुप्तप्राय वनस्पतियों और जीवों को आश्रय देते हैं, जैव विविधता में योगदान करते हैं और वाष्पोत्सर्जन के माध्यम से वर्षा को नियंत्रित करते हैं, जिससे सूखे को कम करने में मदद मिलती है. अपने पारिस्थितिक महत्व के अलावा, अरावली जलाऊ लकड़ी, चारा, फल और व्यावसायिक उत्पादों जैसे आवश्यक संसाधन प्रदान करती है. यह क्षेत्र भारत में सबसे बड़ी पशुधन आबादी में से एक का घर भी है, जो देश के दूध उत्पादन में महत्वपूर्ण योगदान देता है.

अगर नहीं होगी तो क्या होगा?

अब सवाल ये है कि अगर अरावली भारत में ना हो तो क्या होगा. इस बारे में हमनें राजस्थान केंद्रीय विश्वविद्यालय के प्रोफेसर और लंबे वक्त से अरावली पर काम कर रहे डॉक्टर लक्ष्मीकांत शर्मा से बात की. उन्होंने बताया, 'पहले जो अरावली को लेकर रिपोर्ट आई थीं, उनमें प्रोटेक्शन का प्लान था, लेकिन इस बार ऐसा नहीं हुआ है. ऐसा पहली बार हुआ है. इस बार धरातल से हाइट मापी गई. हर बार समुद्र तल से ऊंचाई मापी जाती है, लेकिन इस बार ऐसा नहीं है. इससे पहले समुद्री तल से ऊंचाई को लेकर स्थान के हिसाब से डेफिनिशन थी. सबसे बड़ी बात ये है कि सबसे प्राचीन पर्वतमाला होने की वजह से इसकी एकदम सही रेंज भी मालूम करना मुश्किल है. खास बात ये है कि अरावली जितनी जमीन के ऊपर है, उतनी ही ये जमीन के नीचे भी हो सकती है.'

Advertisement

उन्होंने ये भी बताया, 'अब इस नई परिभाषा से वन विभाग के अलावा जितनी भी जमीन राजस्व के पास है, उस पर सरकार कुछ भी कर सकती है. वैसे ही अरावली खनन का सामना कर रही है और अब तो उसका अस्तित्व संकट में आने वाला है. अगर ये पूरी तरह से खत्म हो जाती है तो काफी मुश्किल हो जाएगी. डस्ट उड़कर अब सीधे दिल्ली आएगी. वेस्टर्न डिस्टर्बेंस से जो मौसम बनता है, वो प्रभावित होगा. अगर ऐसा होता है तो 2060 तक अरावली पूरी तक खत्म हो जाएगी. इससे पानी का सोर्स काफी प्रभावित होगा और राजस्थान मौसम की बारिश पर निर्भर है और वो इससे काफी प्रभावित होगी.'

उन्होंने बताया, 'इससे वाइल्ड लाइफ कॉरिडोर प्रभावित होगा. इसमें कई प्राचीन जड़ी बूटी हैं , जो अभी पहचानी भी नहीं गई और उससे पहले खत्म किया जा रहा है. आप देख सकते हैं पहले ही अरावली गायब हो रही है और अब तो दिखना भी बंद हो जाएगी. अभी के खनन से लूनी जैसी नदियां खत्म हो गईं. इसके अलावा दिल्ली भूकंप जोन में है और ये चट्टान भार बनाकर रखती हैं, इसके ना होने पर भूंकप की संभावना बढ़ जाएगी. जैसे जैसे अरावली खत्म हो रही है, जयपुर और राजस्थान में पानी का ग्राउंड लेवल भी खत्म हो रहा है. इससे ना होने पर अंदाजा भी नहीं लगा सकते कि क्या होगा?'

Aravali

वहीं, अरावली पर लंबे वक्त से शोध कर रहे मोहनलाल सुखाड़िया के एक प्रोफेसर से भी बात की तो उन्होंने बताया, 'अरावली से जियोलॉजिकल सिस्टम पर असर होता है, मॉनसून सिस्टम पर असर होता है. ये कोई बिल्डिंग नहीं है कि कोई लंबाई माप दी, अगर आप उस 100 मीटर के आसपास के क्षेत्र को काट देंगे तो पूरी पर्वतमाला ही प्रभावित होगी. इससे 100 मीटर से ज्यादा वाली प्रभावित होगी. जब बात करते हैं इसके हटने कि तो ये आगे के प्लान पर निर्भर करेगा कि कैसे इसका यूज किया जाएगा. क्या इसका इस्तेमाल बिल्डिंग बनाने में होगा या फिर माइनिंग करनी है तो मिट्टी निकालनी है या फिर पत्थर या फिर माइनिंग. कहां से क्या हटाया जाएगा, इसके प्लान पर काफी कुछ निर्भर करेगा. इस पर हम भी रिसर्च कर रहे हैं.'

उन्होंने बताया, 'रेनफॉल की स्थिति बदल सकती है और इसका फायदा किसको मिलेगा या देखना होगा. ऐसा नहीं है कि इसे काट दिया जाएगा, लेकिन इसमें इकोसिस्टम है. कई प्रजातियां इसमें रह रही हैं, वो कहां जाएंगी. ये भी सवाल है. जब भी बारिश आती है तो ड्रेनेज सिस्टम को ये भी कंट्रोल करता है. जब हम मॉनसून पर निर्भर करते तो बहुत असर होगा. लेकिन ऐसा नहीं है कि ये कल उठो और गायब हो जाएगी. इसके लिए सरकार पूरा प्लान बनाएगी और एकदम से इसे गायब नहीं किया जाएगा.

क्या पूरी अरावली साफ हो सकती है?

बता दें कि पूरी अरावली का साफ होना काफी मुश्किल भी है. दरअसल, अरावली में एक काफी क्षेत्र वन्य संरक्षण में है, जिससे वहां माइनिंग किया जाना मुश्किल है. ऐसे में माइनिंग अन्य काम राजस्व आदि की भूमि पर की जा सकती है और देखना होगा कि सरकार का खनन को लेकर क्या प्लान रहता है?

---- समाप्त ----
Live TV

Advertisement
Advertisement