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विनोद खन्ना के पिता ने उन पर बंदूक क्यों तान दी थी

विनोद खन्ना को फिल्मों में लाने का श्रेय किसे जाता है, विनोद के पिता ने उन पर बंदूक क्यों तान दी थी, शुरुआत में विनोद विलेन का रोल ही क्यों किया करते थे, ओशो के लिए क्यों विनोद ने हिंदी सिनेमा छोड़ दिया था, अमेरिका से लौटने के बाद विनोद का कमबैक कैसा रहा, उनकी पॉलिटिक्स में एंट्री की कहानी क्या है, सुनिए 'नामी गिरामी' में

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नामी गिरामी
नामी गिरामी

साल 1981. बंबईशहर के एक मीडिया सेंटर में एक प्रेस कांफ्रेंस होने वाली थी. ऑडिटोरियम की कुर्सियों पर मीडिया कर्मी बैठे हुए थे. उन्हें इंतज़ार था हिंदी सिनेमा के सबसे बड़े सितारे का जो आग कुछ ऐसा बताने वाला था जो कल अख़बार की सुर्खियां होती. कॉन्फ्रेंस रूम तभी गतिविधि तेज़ हो गई. अभिनेता अपनी बीवी और बच्चों के साथ दाखिल हुआ. कैमरे फ्लैश उसके ऊपर चमकने लगे. चेहरे पर थोड़ी सी चिंता लिए वो अभिनेता अपनी जगह बैठा और बोला- आप सभी का धन्यवाद. मुझे दो दशक से ज्यादा वक्त तक इतना चाहने के लिए. आज भी मेरे पास हर कुछ है जो मुझे चाहिए. स्टारडमपैसे.. सबकुछ..पर फिर भी मैंने फैसला किया है कि मैं फिल्म इंड्रस्टी छोड़ दूँ और अमेरिका में अपने गुरु... भगवान रजनीश की शरण में चला जाऊं    ये ख़बर पत्रकारों के लिए नई नहीं थी. उन्हें अंदाज़ा था कि ऐसा होने वाला है लेकिन कल सुबह जब ख़बर अख़बारों में आई तो सब अवाक रह गए. लिखा था- हिंदी सिनेमा के सुपरस्टार विनोद खन्ना ने लिया सिनेमा से संन्यास.  

   

 

भारत पाकिस्तान बंटवारे का ऐलान हो चुका था. देशभर में हिंदू-मुसलमान के बीच पड़ी फूट दंगे की शक्ल ले रही थी. लोग विस्थापित हो रहे थे और इसी कड़ी में कृष्ण चंद खन्ना अपनी पत्नी कमला और बेटे विनोद के साथ पेशावर छोड़ बंबई के लिए रवाना हो गए.  

  

अनजान शहर में परिवार पालने की चुनौती कृष्णचंद के ऊपर हावी थी मगर उन्होंने इसका मुकाबला किया और डेढ़ दशक में ही शहर के जाने पहचाने नाम बन गए. उन्हें उम्मीद थी कि सिडेनहैम कॉलेज में कॉमर्स की पढ़ाई कर रहे विनोद उनके बिजनेस को और उचाई देंगे मगर उन्हें क्या ख़बर थी कि जिस विनोद में उन्हें अपने बिजनेस का भविष्य दिखाई दे रहा थावो अपना भविष्य क्रिकेट में तलाश रहे थे.  नामी गिरामी’ में सुनने के लिए क्लिक करें.

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क्रिकेट से मोहभंग हो जाने के बाद विनोद अब परिवार के बिजनेस को ही आगे ले जाने की सोच रहे थे मगर उसी दौरान एक घटना घटी. ये 60 का दशक था. हिंदी सिनेमा नए हीरो की तलाश में थी और एक्टर सुनील दत्त इसी का फायदा उठा कर अपने भाई सोमदत्त को लॉन्च करना चाहते थे. मगर ये दौर मल्टीस्टारर फिल्मों का था लिहाज़ा उन्हें एक और चेहरे की तलाश थी जिसकी उम्र कम हो और वो सोमदत्त के साथ फिट बैठ सके. इसी उधेड़बुन में डूबे सुनील दत्त की मुलाकात हुई विनोद खन्ना से हुई. दोनों एक पार्टी अटेंड करने आए हुए थे. सुनील दत्त ने विनोद से कहा- मैं तेलुगू फिल्म... कुमारी पेन्न का हिंदी रीमेक बना रहा हूँ. अपने भाई सोमदत्त को लॉन्च करना है. उस फिल्म में मुझे एक और यंग हिरो की तलाश है. क्या तुम वो रोल करना चाहोगे. 

 

विनोद का झुकाव भी तब थोड़ा बहुत फिल्मों की तरफ तो था लेकिन इसमें वो अपना भविष्य नहीं देखते थे. मगर एक बैग सुनिल दत्त की ओर से आए इस ऑफर ने विनोद को सोच में डाल दिया. बहुत सोचने विचारने के बाद आखिरकार उन्होंने हां कर दी और फिल्म साइन कर ली.   

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विनोद ने फिल्म तो साइन कर ली थी लेकिन एक बड़ी दुविधा में पड़ गए. दुविधा ये कि घर वालों को फिल्म के बारे कैसे बताया जाए. तब फिल्म के कलाकारों को अच्छी नज़रों से नहीं देखा जाता था और एक अच्छे बिजनेसमैन परिवार से आने वाले विनोद के घर में तो फिल्मों में काम करना दंड भोगने के समान था.  

  

विनोद ने इस मुसिबत को थोड़े दिनों तक टाल दिया और सोचा कि जब फिल्म शुरू होगी तब घरवालों को इत्तिला कर देंगे... मगर शूटिंग की तारीख़ पास आने के बजाय दूर जाने लगी. कहानी पर काम कर रहे सुनील दत्त ने किसी कारणवश बीच में ही वो फिल्म छोड़ दी और एक नई कहानी की तलाश में जुट गए.  

  

विनोद को ये बात हज़म नहीं हुई. उन्होंने सुनील दत्त से इस बारे में बात की. दत्त साहब ने भरोसा दिलाया कि अगली फिल्म में सोम दत्त के साथ विनोद भी होंगे. इस बात ने विनोद का ढांढस बंधा. कुछ ही महीनों में एक नई फिल्म की कहानी पर काम होने लगा और 1969 में फिल्म पर्दे पर थी. सोम दत्त फिल्म के हीरो थे और विलेन के रोल में थे.. विनोद खन्ना. फिल्म का नाम.. मन का मीत.  

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फिल्म परदे पर तो आ गई थी मगर विनोद के घर वाले इससे नाखुश थे. कहा जाता है कि जब विनोद ने मन का मीत फिल्म की बात घर पर बताई तो उनके पिता ने उन पर बंदूक तान दी थी. नामी गिरामी’ में सुनने के लिए क्लिक करें.

   

 

मन का मीत फिल्म से भाई सोम दत्त की सफलता की आस लगाए बैठे सुनील दत्त का गणित ग़लत साबित हुआ. फिल्म हिट ज़रूर हुई मगर इसका फायदा सोम दत्त को नहीं बल्कि विनोद खन्ना को हुआ. दो हफ्ते भीतर उनके पास 10 से ज्यादा फिल्मों की स्क्रिप्ट थी. डायरेक्टरप्रड्यूसर उन्हें हीरो और विलेन दोनों के रोल में साइन कर रहे थे. अपने पिता को दो साल का समय देकर फिल्मी दुनिया में आए विनोद के लिए ये सोने पे सुहागा था. उन्होंने बिना कुछ सोचे समझे धड़ाधड़ फिल्में साइन करनी शुरू की. पूरब और पश्चिमसच्चा झूठाआन मिलो सजना ने लोगों के बीच विनोद की चर्चा छेड़ दी और इस चर्चा को हवा दी 1971 में आई फिल्म मेरा गांव मेरा देश ने. धर्मेंद्र के अपोजिट डाकू का किरदार निभा रहे विनोद ने इस फिल्म से सबको अपना कायल बना दिया. फिल्म ने एक नए युग को जन्म दिया था जहां एक्शनरोमांस और ड्रामा तीनों का तड़का था. इस फिल्म के आते ही मानो जैसे बॉलीवुड में डाकुओं पर आधारित फिल्मों की लाइन लग गई जहां विनोद खन्ना को हर कोई आइडियल डाकू में रूप में देखने लगा. नामी गिरामी’ में सुनने के लिए क्लिक करें.

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विनोद की तुलना अब अमिताभ बच्चन से होने लगी थी मगर सफलता के लगातार झंडे गाड़ रहे विनोद का एक दूसरा पहलू भी था. लोगों के बीच स्टारडम हासिल कर चुके विनोद का अशांत हो गया. काम का प्रेशर इतना ज्यादा कि वो डिप्रेशन में चले गए. एक रोज़ डायरेक्टर महेश भट्ट ने विनोद को पुणे के एक आश्रम जाने की सलाह दी और कहा कि वहां उनके मन को शांति मिलेगी. विनोद मान गए और अब उनके जीवन में एंट्री हुई स्वामी रजनीश की.. जिन्हें आज हम ओशो पुकारते हैं.  

  

रजनीश से हुई पहली मुलाकात में ही विनोद उन पर अपना सब कुछ हार गए. रजनीश को स्वीकारने के बाद शनिवार और रविवार का वक्त वो रजनीश आश्रम में बिताने लगे जहां उन्हें स्वामी विनोद भारती के नाम से पुकारा जाता. ये 1975 का साल था. अध्यात्म की ओर जाने के बावजूद उनके करियर में गिरावट नहीं आई.

  

दो बरस बाद 1977 में विनोद... अमिताभ और ऋषि कपूर के साथ एक फिल्म की शूटिंग कर रहे थे. फिल्म थी अमर अकबर एंथनी. इसमें वो अमिताभ के बड़े भाई अमर के किरदार में थे. एक सीन में उन्हें अमिताभ को बुरी तरह मारना था और जेल में बंद करना था. इस सीन के बारे में जब फिल्म से जुड़े लोगों को पता चला तो सबने आपत्ति जाहिर की. उनका कहना था कि अगर अमिताभ विनोद से मार खाएंगे तो फिल्म पीट सकती है क्योंकि कोई भी दर्शक अमिताभ का दूसरे हीरो से मार खाना स्वीकार नहीं करेगा. मगर डायरेक्टर और प्रड्यूसर मनमोहन देसाई इस सीन पर अड़े रहे. उन्होंने कहा कि ये फिल्म की डिमांड है. ये सीन ज़रूर होगा और लोग इसे पसंद भी करेंगे. और हुआ भी ऐसा ही. इस सीन और फिल्म को काफी सराहा गया.  

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फिल्म ब्लॉकबस्टर साबित हुई और इसने विनोद के कद को अमिताभ से भी ऊपर ला दिया. मगर बहुत जल्द सब बदलने वाला था क्योंकि स्वामी रजनीश अमेरिका रवाना होने वाले थे और उनके साथ जाने वालों में एक नाम था विनोद खन्ना का जिन्होंने हिंदी सिनेमा त्यागने का फैसला लिया. नामी गिरामी’ में सुनने के लिए क्लिक करें.

   

   

अमेरिका में रजनीश आश्रम बंद हो जाने के बाद 1987 में विनोद वापस बंबई आ गए और फिल्मों में अपनी दूसरी पारी की शुरुआत की. इस साल विनोद खन्ना की दो फिल्में आई. इंसाफ और सत्यमेव जयते और दोनों ने ही बॉक्स ऑफिस झंडे गाड़ दिए.  ये विनोद की वापसी का ऐलान था. ऐलान जो ये बता रहा था कि पांच साल बाद भी लोगों के भीतर से विनोद खन्ना की दीवानगी ख़त्म नहीं हुई. वो उन्हें अब भी उतना ही पसंद करते थे जितना कि पहले. अमेरिका जाने के दो साल बाद विनोद और उनकी पत्नी गीतांजली अलग हो गए थे. मगर अमेरिका से आने के बाद उन्हें एक नया जीवन साथी मिला.. कविता.

 

विनोद खन्ना और कविता की मुलाकात एक पार्टी में हुई थी. और एक इंटरव्यू में कविता ने कहा था कि महीने भर तक विनोद उनसे डेट पर चलने के लिए कहते रहे मगर कविता टालती रहीं क्योंकि कविता तब 28 साल की थीं और विनोद 41. अगर ऐसा होता तो फिर बेकार में कविता के बारे में गोसिप शुरु हो जाती.

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मगर महीने बाद दोनों ने डेट करना शुरू किया. लेकिन विनोद शादी के लिए तैयार नहीं थे. कविता भी इसके लिए राजी थी क्योंकि उनको विनोद के साथ वक्त बिताना पसंद था. वो ताउम्र विनोद से बिना शादी किए साथ रह सकती थी. घर वाले उनके इस फैसले के खिलाफ थे. विनोद के जीवन से वो परिचित थे लेकिन कविता ने सबके खिलाफ जाते हुए अपना मन बना लिया था.

मगर एक रोज़ बिनोद को लगा कि अब बस हुआ कविता के साथ अगर उन्हें साथ रहना तो उन्हें शादी करनी ही होगी. वो बैडमिंटन खेल रहे थे. पसीने से तर बतर हालत में ही वो कविता से मिलने पहुंचे और उनसे सीधा पूछ लिया कि क्या मुझसे शादी करोगी. कविता ने बिना कुछ सोचे सीधा हां कर दिया और फिर मई 1990 में दोनों ने शादी कर ली.

 

 

विनोद फिल्म और जीवन. दोनों में अपनी दूसरी पारी की शुरुआत कर चुके थे मगर एक एक ऐसी भी पारी थी जिसकी शुरुआत होनी बाकी थी. बीजेपी नेता अटल बिहारी वाजपेयी के भाषणों से प्रभावित होकर विनोद ने राजनीति में कदम रखा और 1997 में बीजेपी के साथ जुड़ गए. एक साल बाद लोकसभा चुनाव हुए और विनोद पंजाब की गुरदासपुर सीट से जीतकर लोकसभा पहुंचे. 2009 तक वो इस सीट पर बने रहे साथ ही फिल्में भी करते रहे. फिर चाहे वो सलमान ख़ान की कमबैक फिल्म वांटेड होया शाहरुख की दिलवाले. अपने करियर में विनोद ने 120 से ज्यादा फिल्में की और अंत तक अपनी शख़्सियत बनाए रखा. इन्हीं दिनों जब लग रहा था कि विनोद का सफल जीवन अभी दूर तक जाएगा उसी दौरान एक तस्वीर सोशल मीडिया पर वायरल होने लगी जिसमें विनोद बीमार दिख रहे थे. उन्हें ब्लैडर कैंसर हो गया था. इस तस्वीर ने हर किसी को हैरान कर दिया. महीने भर पहले स्वस्थ दिख रहे विनोद अचानक से बिस्तर पकड़ चुके थे और धीरे धीरे मौत के करीब जा रहे थे. 27 अप्रैल 2017 वो तारीख़ थी जब विनोद खन्ना के जीवन पर विराम लग गया.  

   

करीब आधे दशक तक हिंदी सिनेमा पर राज करने वाले विनोद खन्ना आज हमारे बीच भले नहीं हैमगर उनका हुनरउनकी फिल्मेंउनकी एक्टिंग आज भी युवाओं को प्रेरित करती हैंऔर भरोसा दिलाती है कि एक विनोद खन्ना था जो परिवार का बना बनाया बिजनेस छोड़ लड़ झगड़ कर हीरो बनने चला था. 

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