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हरिवंश राय बच्चन ने मोहब्बत में क्या-क्या पापड़ बेले

हरिवंश राय बच्चन ने कहानियां लिखना छोड़ कविताएं लिखनी क्यों शुरू की, क्या है हरिवंश बाबू की प्रेम कहानी, मधुशाला आने के बाद उनके जीवन में क्या बदलाव आए, क्यों एक कवि सम्मेलन में वो भड़क गए थे, सुनिए 'नामी गिरामी' में.

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लोोसग
लोोसग

ये 18वीं शताब्दी का अवसान था. 19वीं शताब्दी अपने उद्भव की तैयारी कर रही थी मगर उत्तर प्रदेश के प्रतापगढ़ जिले में रहने वाला लाला प्रताप नारायण श्रीवास्तव का परिवार गहरे विषाद की चपेट में था. लाला प्रताप नारायण की पत्नी को दो संताने हुई मगर जन्म लेते ही उनकी मृत्यु हो गई. तभी उन्हें एक पंडित के बारे में पता चला. दोनों उनसे मिलने गए. पंडित ने दोनों की बातें सुनने के बाद उन्हें 3 बर्तन दिए और कहा कि इस बर्तन को लेकर घर से दक्षिण की तरफ जाओ जहां शाम हो जाए, वहां रुक जाना और घर बनाकर हरिवंश पुराण सुनना. ऐसा करने से संतान सुख मिलेगा. दोनों बर्तन लेकर गांव से पैदल चल पड़े. शाम होने को थी और दोनों इलाहाबाद के चक जीरो रोड पर थे. दोनों ने वहां घर बनाया. कुछ महीने बाद चक जीरो रोड में सुरसती देवी ने एक बेटी बिट्टन देई को जन्‍म दिया. इसके बाद भगवानदेई हुईं. लगातार 2 बेटी होने के बाद लाला प्रताप अब एक बेटा चाहते थे जो उनका वंश आगे बढ़ा सके. दंपती ने पंडित के कहने के मुताबिक, हरिवंश पुराण सुना, और संयोगवश 27 नवंबर 1907 को जन्म हुआ... हरिवंश राय श्रीवास्तव का, जिन्हें हम आज हरिवंश राय बच्चन के नाम से जानते हैं. 

 

 

इलाहाबाद यूनिवर्सिटी से ग्रेजुएशन पूरी कर चुके हरिवंश अब काम की तलाश में थे. श्यामा बच्चन के साथ हुए ब्याह हो चुका था तो ज़िम्मादारी का भान भी कम उम्र में आना शुरू हो गया था. उसी दौरान उनकी नौकरी लगी. पैसे भी ठीक ठाक मिल रहे थे मगर रुचि साहित्य के प्रति ज्यादा थी. लिहाजा उन्होंने कविताएं लिखना प्रारंभ किया. अपनी लिखी कविता वो दोस्तों को सुनाया करते. महफील छोटी सजती लेकिन वाहवाही खूब मिलती. यूँ ही एक मर्तबा उन्होंने अपनी एक नई लिखी कविता दोस्तों को सुनाई. काव्य पाठ खत्म होते ही उनके दोस्त बोल पड़े- हरिवंश ये अब तक की तुम्हारी सबसे उल्लेखनीय रचना है. इसे किताब की शक्ल दो. पहले तो हरिवंश ने टाल दिया लेकिन बाद में पता नहीं क्या ख़्याल आया उन्होंने कविता के कुछ कॉपी छपवा डाली. लोगों के बीच जब कविता आई तो तहलका मच गया. और ज्यादा कॉपियों की मांग होने लगी और देखते ही देखते लोगों के बीच आई हरिवंश राय बच्चन की पहली रचना ने ही लोगों को उनका दीवाना बना दिया.. कविता का नाम था- मधुशाला 

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मधुशाला की लोकप्रियता दिन-ब-दिन बढ़ती ही चली गई और आज के वक्त में भी जितनी कविताएं हमारे सामने जीवित हैं उनमें मधुशाला का स्थान काफी ऊंचा है. सुनने के लिए क्लिक करें.

 

सफलता की सीढ़ी चढ़ रहे हरिवंश की ख्याती फैलने लगी. लोग उन्हें उनके नाम से जानने लगे मगर तभी एक घटना घटी. मधुशाला प्रकाशन के तीन वर्ष बाद 1936 में ही उनकी पत्नी श्यामा निधन हो गया. अकसमात इस घटने ने हरिवंश के जीवन पर गहरा प्रभाव डाला. वो अब कटे-कटे नज़र आने लगे. हरिवंश के मित्र आदित्य प्रकाश जौहरी और प्रेम प्रकाश जौहरी ये देख काफी चिंतित हो उठे. उन्होंने सोचा कि अगर यूं ही चलता रहा तो हरिवंश बाबू का स्वास्थ्य दयनीय मोड़ ले लेगा. उन्होंने एक प्लान बनाया. आदित्य बाबू की पत्नी ने अपनी एक मित्र आयरिश से संपर्क कर उनका परिचय हरिवंश बाबू से कराया. आदित्य और प्रेम बाबू की कोशिश थी कि जीवन के जिस सिरे को हरिवंश बाबू ने छोड़ दिया है, आयरिश की मार्फत वो उसे दोबारा थाम सकें. हरिवंश बाबू भी अपने मित्रों की इस कोशिश से भलीभांति वाकिफ थे, बावजूद इसके वो ख़ामोश रहे. वो खुद भी अब अपने जीवन को नया आयाम देना चाहते थे मगर अलग परवरिश में पली बढ़ी आयरिश हरिवंश बाबू को उतनी महत्ता नहीं दे रही थीं जिसकी उम्मीद वो कर रहे थे. कुछ मुलाकातों में ही वो समझ गए कि आयरिश से दोस्ती बढ़ाना व्यर्थ है. उन्होंने आयरिश से ध्यान हटाया और वापस अपने काम में लग गए.  

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एक रोज़ वो पंजाब के अबोहर में कवि सम्मेलन में पहुंचे थे. रात को प्रेम प्रकाश जौहरी का एक टेलीग्राम उन्हें मिला- लिखा था. जितनी जल्दी हो सके बरेली आओ हरिवंश. जरूरी काम है.  हरिवंश उसी रात बरेली के लिए निकल पड़े. प्रेम बाबू के यहां पहुंचे तो मालूम पड़ा कि प्रेम बाबू ने एक महिला को भी बुलाया था. उनका नाम तेजी था. 

कुछ घंटों बाद तेजी कमरे में दाखिल हुईं. हरिवंश बाबू की नज़रें जब उन पर पड़ी तो हटने का नाम ही न लें. बड़ी मुश्किल से उन्होंने नज़रें संभाली और प्रेम बाबू की तरफ देखने लगे. आंखों ही आंखों में दोनों ने बातें की और तय किया कि क्यों न आज की रात बरेली घुमा जाए. तांगा बुलाया गया तो तेजी के बगल में हरिवंश जा कर बैठ गए. तभी तेजी ने कहा- मुझे आगे बैठना है. हवा का स्पर्श मुझे अच्छा लगता है. अब इतना सुनना था कि हरिवंश बाबू के ज़ुबान से भी शब्द फूट पड़े- अगर आप वहां बैठेंगी तो मुझे भी वहीं बैठना पड़ेगा. ये सुनते ही तेजी उस रोज़ बस मुस्कुरा कर रह गयीं. 

कुछ महीनों बाद एक मुलाकात और हुई. नया साल दस्तक देने वाला था. तय हुआ कि नया साल का आगाज़ हरिवंश बाबू की कविता को सुनते हुए किया जाएगा. दोस्तों की महफिल जम गई थी.. तभी हरिवंश बाबू ने अपनी कविता पढ़नी शुरू की.. 

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क्या करूँ संवेदना लेकर तुम्हारी

क्या करूँ

मैं दुखी जब-जब हुआ 

संवेदना तुमने दिखाई

मैं कृतज्ञ हुआ हमेशा,

रीति दोनो ने निभाई

किन्तु इस आभार का अब 

हो उठा है बोझ भारी

क्या करूँ संवेदना लेकर तुम्हारी

क्या करूँ

 

एक भी उच्छ्वास मेरा 

हो सका किस दिन तुम्हारा

उस नयन से बह सकी कब 

इस नयन की अश्रु-धारा

सत्य को मूंदे रहेगी 

शब्द की कब तक पिटारी

क्या करूँ संवेदना लेकर तुम्हारी

क्या करूँ

 

हरिवंश बाबू की आवाज़ में इस कविता को सुनते ही माहौल गमगीन हो गया. हरिवंश बाबू के सामने बैठी तेजी के आंखों से आंसू बह रहे थे. ये एक नए रिश्ते की शुरुआत थी जिसने 1941 में विवाह का रूप ले लिया. 

हरिवंश राय बच्चन की कविता की बात करें तो वो समाज के हर पहलुओं को ध्यान में रखकर लिखी गई. कभी वो सत्ता से सीधे हाथ भिड़ती है तो कभी प्रेम की उपासना करती हुई नज़र आती है. सुनने के लिए क्लिक करें. 

 

 

अपनी कविता के ज़रिए अहम मूल्यों का संदेश दे रहे हरिवंश बाबू का मन एक बात से हमेशा विचलित होता. किसी भी कवि सम्मेलन में तब कवियों को काव्य पाठ करने के पैसे नहीं दिए जाते थे. ऐसा समझा जाता कि सामने बैठे दर्शकों की वाहवाही से ही उनका पेट भर गया. इसी से जुड़ा एक किस्सा है 1954 का. इलाहाबाद के पुराने शहर जानसेनगंज में कवि सम्मेलन का आयोजन किया गया था. इसमें डॉ. हरिवंश राय बच्चन, गोपीकृष्ण गोपेश और उमाकांत मालवीय सरीखे कई लोकप्रिय कवि बुलाए गए थे. प्रोग्राम शाम को शुरू होना था. सभी कवि सम्मेलन में पहुंचे. लेकिन तभी हरिवंश राय बच्चन जी ने पहुंचते ही गुस्से में काव्य पाठ करने से मना कर दिया. 

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उन्होंने भड़कते हुए कहा -'जब टेंट-माइक वाले को पैसे मिलते हैं तो कवि को क्यों नहीं? जबकि कवियों की वजह से ही महफिल सजती है, वरना कवि सम्मेलन का क्या मतलब? ' उस दौरान बच्चन साहब की 'मधुशाला' से लेकर 'मधुकलश', 'मधुबाला' जैसी काव्य रचनाएं धूम मचा रही थी. उनकी बात मान ली गई.

कवि सम्मेलन खत्म होने के बाद बच्चन साहब को आयोजक मंडल ने 101 रुपए दिए। वहीं, उनके दोस्त कवि गोपीकृष्ण को 51 रुपए और उमाकांत मालवीय को 21 रुपए मानदेय मिला. सुनने के लिए क्लिक करें

 

गीतकार राजा मेहदी साहब और हरिवंश में अच्छी दोस्ती थी. राजा मेहदी साहब अपने काम के सिलसिले में अक्सर बरेली आया जाया करते. तब हरिवंश और तेज़ी की शादी नहीं हुई थी. बाद में जब दोनों बरेली छोड़कर इलाहाबाद आए, तो उनके दोस्त अक्सर उनकी शादी को लेकर बातें करते. सवाल करते कि शादी कब रहे हो. एक बार यूँ ही तेजी से राजा मेहदी साहब एक कार्यक्रम में मिले, तब उन्होंने तेजी से यही सवाल किया किया- कि हरिवंश बाबू से शादी कब कर रही हैं . तेजी ने इस उत्तर का तपाक से जवाब दिया. उन्होंने कहा 'कि मेरा झुमका तो बरेली के बाजार में गिर गया' अब राजा साहब को कुछ समझ आया नहीं और इस कथन अर्थ समझने में दिमाग खपाने लगे. बाद में हरिवंश और तेजी ने शादी भी कर ली. लेकिन राजा मेहदी अली ख़ान के दिमाग में तेजी का जवाब कई सालों तक घूमता रहा.  

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1969 में डायरेक्टर राज खोसला, सुनील दत्त और साधना स्टारर एक मूवी बना रहे थे... साया. गीतकार के रूप में राजा मेहदी को चुना गया. जब बारी डांस नंबर लिखने की आई तो उन्हें सालों पुराना तेजी का किस्सा याद आया जिसमें उन्होंने बरेली के झुमका का ज़िक्र किया था और फिर अस्तित्व में आया गाना- झुमका गिरा रे बरेली के बाज़ार में. सुनने के लिए क्लिक करें

 

हरिवंश बाबू ने कैंब्रिज से साल 1954 में अंग्रेजी में पीएचडी डिग्री भी हासिल की लेकिन कविताएं वो हिंदी में ही लिखते रहें. फिल्मों के लिए भी उन्होंने लेखनी की मगर मंचों से राब्ता ज्यादा रहा. सुनने के लिए क्लिक करें

 

 

 

कविताओं से खुद को परिभाषित करने वाले हरिवंश राय बच्चन 1966 से 1972 तक राज्यसभा के सदस्य रहे. उनकी पत्नी तेजी बच्चन इंदिरा की बहुत प्रिय मित्र थीं. 1976 में हरिवंश बाबू को पद्म भूषण से सम्मानित किया गया और 2003 में हरिवंश राय बच्चन के स्वर्गवास ने एक स्वर्णिम काल पर विराम लगा दिया जिसने न जाने कितने लोगों को कविता पढ़ने के लिए प्रेरित किया. हरिवंश का नाम आज भी जब सुनाई पड़ता है तो उनकी कविता के बोल खुद ब खुद मन में गूंज उठते हैं. 

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वृक्ष हों भले खड़े,

हों घने हों बड़े,

एक पत्र छाँह भी,

माँग मत, माँग मत, माँग मत,

अग्निपथ अग्निपथ अग्निपथ।

 

तू न थकेगा कभी,

तू न रुकेगा कभी,

तू न मुड़ेगा कभी,

कर शपथ, कर शपथ, कर शपथ,

अग्निपथ अग्निपथ अग्निपथ।

 

यह महान दृश्य है,

चल रहा मनुष्य है,

अश्रु श्वेत रक्त से,

लथपथ लथपथ लथपथ,

अग्निपथ अग्निपथ अग्निपथ।

 

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