ये वक्त था जब भारत में मुगलों के पहले पड़ाव का अंत हो रहा था. पानीपत की लड़ाई में बाबर की जीत से सजाया गया मुगल दरबार बेटे हुमायूं की हार से तितर बितर होने को मज़बूर था. लुढ़क रहे मुगल साम्राज्य की बची खुची साख लिए पराजित हुमायूं अफगानिस्तान की ओर भाग रहा था और उसका पीछा कर रही थी सूरी साम्राज्य की सेना जिसकी बागडोर थी सुलतान शेर शाह सूरी के हाथों में.
1538 में मुगल साम्राज्य के अस्ताचल से दिल्ली और आगरा शेरशाह के आधीन था. मगर आठ बरस बाद वक्त ने करवट ली. बुंदेलखंड के कालिंजर किले को राजपूतों से जीतने की कोशिश ने शेरशाह के जीवन पर विराम लगा दिया. अब सूरी साम्राज्य उनके बेटे इस्लाम शाह सूरी की सरपरस्ती में आगे बढ़ रहा था. सत्ता संभालने का हुनर सीख रहा इस्लाम शाह जल्द ही एक ऐसे व्यक्ति के संपर्क में आने वाला था जो अभी दिल्ली से 96 कि.मी दूर रेवाड़ी के बाज़ार में नमक का व्यापार कर रहे थे जिनकी अगुआई में सूरी साम्राज्य की शक्ल बदलने वाली थी... हेमू
दिल्ली बाज़ार के सर्वेसर्वा बन चुके हेमू अब सैन्य कौशल विकसित करने में लगे थे. इस्लाम शाह की छत्र छाया में ही उन्होंने इसकी शुरुआत की और देखते ही देखते इस्लाम शाह के सबसे खास सिपासलारों में से एक हो गए. दूसरी ओर हुमायूं से खार खाए बैठा उसका भाई कामरान मिर्जा पड़ोस के मानकोट में अपनी चहलकदमी बढ़ाने की फिराक में था. इसकी ख़बर लगते ही इस्लाम शाह ने हेमू को कामराज के निगरानी का कार्य सौंप दिया. इधर अपने पिता की मौत का बदला लेने को आतुर इस्लाम शाह कालिंजर किले को अपने अधीन लाने की कोशिश में जी जान से जुटा था. सही मौके की ताक में बैठे इस्लाम शाह ने जल्द ही कालिंजर किले में घुस कर कत्लेआम मचा दिया. किले के अंदर से राजपूतों का नामोनिशान मिटा दिया गया.
लेकिन अब सूरी साम्राज्य एक बड़े बदलाव की ओर बढ़ रहा था.. जहां धोखा था, अय्याशी थी और अंत भी...
1554 में ख़राब स्वास्थ्य के कारण हुई इस्लाम शाह की मौत ने सूरी साम्राज्य को एक नया सुल्तान दिया... फिरोज शाह सूरी, जिसकी उम्र महज़ बारह बरस थी. नतीजतन सूरी साम्राज्य सत्ता की लोभ में बहने लगा. कई लोग अब खुद को सत्ता का प्रबल दावेदार बता रहे थे... उनमें से ही एक था फिरोजशाह का मामा मो. आदिल शाह. फिरोज शाह को सत्ता में आए हुए अभी महीना भर ही गुज़रा कि आदिल शाह ने उसका सिर कलम कर खुद को नया सुल्तान घोषित कर दिया. ये दावा किया जाता है कि आदिल शाह के इस साजिश में हेमु ने भी अहम भूमिका निभाई थी और यही कारण था कि आदिल शाह ने उन्हें सेनापति और वजीर की पदवी सौंपी. ‘नामी गिरामी’ में सुनने के लिए क्लिक करें
नया सुल्तान बन चुके आदिल शाह ने शासन चलाने में अपनी योग्यता साबित करने के बजाय भोग विलास से संगत कर ली. इसका असर सूरी साम्राज्य पर बेहद गहरा पड़ा. बंगाल से पंजाब के कुछ प्रांतों तक फैला सूरी साम्राज्य चार टुकड़ो में बंट गया. चूनार से बिहार तक का राज्य आदिल शाह के हिस्से आया. वहीं बंगाल, आगरा- दिल्ली, पंजाब का हिस्सा उसके हाथ से छिटक कर उसके परिवार वालों में बंट गया. वासना में डूबे आदिल शाह को सत्ता चलाने से कोई मतलब नहीं रह गया था. अब सारा कार्यभार हेमु के हिस्से आया और यहां से शुरुआत हुई हेमू के हेमचंद्र विक्रमादित्य बनने की कहानी को रफ्तार मिली. पदों पर नियुक्ति से लेकर दंड देने तक का प्रावधान हेमू के अधीन था. किस साम्राज्य पर हमला करना है और किस पर नहीं ये तय हेमू करते. देखते ही देखते हेमू की ताकत बढ़ती चली गई. जनता में अपनी धुरी तटस्थ कर रहे हेमू ने लोगों को कर्ज देना शुरू कर दिया. इस फैसले ने हेमू की लोकप्रियता में जबरदस्त इज़ाफा किया. लोगों की ज़ुबान अब हेमु का नाम बैठ गया था. आदिल शाह बस नाम मात्र का सुल्तान था क्योंकि अब असली ताकत हेमू के पास थी.
मगर हेमू की ताकत से बेखबर अफगानिस्तान में बैठा हुमायूं सूरी साम्राज्य के विघटन को भारत में अपने वापसी का संकेत समझ रहा था. राजनीतिक अस्थिरता का शिकार हो चुके सूरी साम्राज्य पर हुमायूं ने धावा बोला और 1555 में आगरा और दिल्ली पर आधिपत्य जमा लिया. भारत में मुगल सेना के दूसरे और अंतिम पड़ाव की शुरुआत हो चुकी थी जिसकी ज़िम्मेदारी जल्द ही अक़बर के कंधों पर आने वाली थी. मुगल साम्राज्य की दूसरी शासन में आने के सात महीने बाद ही हुमायूं के इंतकाल ने तेरह साल के अकबर को मुगल तख्त का सर्वेसर्वा बना दिया. अकबर के लिए ये खुद की सत्ता बचाए रखने की चुनौती थी मगर हेमू के लिए ये एक मौका था मुगलों को हिंदुस्तान से एक मर्तबा फिर बाहर फेंकने का. 'नामी गिरामी' में सुनने के लिए क्लिक करें
20 युद्ध से ज्यादा लड़ चुके हेमू के डर से इस्कंदर खां, तर्दी बेग खां एक साथ आ गए थे मगर ख़ौफ़ इतना कि अपने आस पास के राजाओं को से भी दोनों ने मदद मांगनी शुरु कर दी साथ ही अकबर को सैन्य मदद भेजने के लिए चिट्ठी लिखी. तब बालक अकबर की देखरेख कर रहा उनका सेनापति बैरम खां अनाधिकारिक तौर पर कार्यभार संभाल रहा था. उसने तुरंत पीर मो. शिरवानी की अगुआई में फौज़ की एक टुकड़ी को दिल्ली रवाना किया. दूसरी ओर ग्वालियर और आगरा फतह कर हेमू दिल्ली विजय के लिए कूच कर चुके थे. उनकी फौज में पच्चास हज़ार घुड़सवार,एक हज़ार हाथी, 51 बड़ी तोपें और 50 छोटी तोपें थीं. अफगान, उत्तर प्रदेश, बिहार के सैनिकों के साथ दिल्ली के पास पहुंच गए.
सात अक्टूबर 1556. कुतुब मीनार से पांच मील पूरब दिल्ली से सटे तुगलकाबाद मैदान में मुगल और हेमू की सेनाएं आमने सामने थी. घुड़सवारी में परंगत हासिल कर चुकी मुगल सेना की ये ताकत थी. दुश्मनों का ध्यान भटकाते हुए दायीं और बायीं ओर से कब मुगल सैनिक का हमला होता... पता भी नहीं चलता.
दूसरी ओर घड़ सवारी के कौशल से बिल्कुल परे थी हेमू की सेना.. जिसके ताकत उसके लंबे चौड़े हाथी थे और उन हाथियों पर बैठे तिरंदाज. सुबह आठ बजे युद्ध की शुरुआत हुई और मुगल सेना की बायीं टुकड़ी का नेतृत्व कर रहे इस्कंदर ख़ान की सेना के आठ हज़ार घुड़सवार ने हेमू की सेना की दायीं टुकड़ी पर हमला कर दिया.
ये हमला बहुत तेज़ था. देखते ही देखते इसने हेमू के तीन हज़ार सैनिकों को मौत के घाट उतार दिया और तकरीबन 40 हाथी को कब्जे में ले लिया. हेमु की दायीं टुकड़ी का ऐसा हर्ष होता देख मुगलों ने हमले और तेज़ कर दिए और सीधा हेमू के कैंप की ओर बढ़ने लगे.
मुगल सैनिक हेमू के जाल में फंस चुके थे. हेमू की सेना को अंदर तक खदेड़ने की लोभ में वो तर्दी बेग खाँ को काफी पीछे छोड़ आए जो उनकी फौज़ का नेतृत्व कर रहा था. हेमु इसी के इंतज़ार में थे और अब तेज़ हमले की बारी उनकी थी. अपने बाकी बचे दस्ते, तीन हज़ार घुड़सवार और तीन सौ हाथी को लेकर हेमू ने सीधा तर्दी बेग के कूल में हमला कर दिया और तर्दी बेग के बेहद करीब पहुंच गए. सामने हाथी पर बैठे हेमू को देखते ही तर्दी बेग कांप उठा. वो तुरंत हाथी से उतरा और घोड़े पर बैठ मैदान छोड़ कर भागने लगा. अपने सूबेदार को भागता देख बची हुई मुगल सेना में भी भगदड़ मच गई. हर कोई अब अपनी जान बचाकर भाग रहा था.
ये दिल्ली पर हेमू की जीत का ऐलान था. एक ऐसी जीत जिसने उन्हें हिंदुस्तान का हिंदू सम्राट बना दिया. मगर एक विवाद आजतक इसके साथ जुड़ता रहा. कई इतिहासकार मानते रहे कि हेमू ने खुद को हिंदुस्तान का सम्राट घोषित नहीं किया था मगर ऐसे भी इतिहासकार हैं जो ये कहते हैं कि हेमू ने खुद को सम्राट घोषित किया साथ ही अपने नाम के सिक्के भी निकाले. नामी गिरामी में सुनने के लिए क्लिक करें
खुद को हिंदुस्तान का स्वतंत्र सम्राट घोषित कर चुके हेमू का आधिपत्य ग्वालियर, आगरा, दिल्ली से होते हुए सतलज तक जा पहुंचा था. अपना केंद्र हार चुके मुगल पंजाब और पास के जंगलों की खाक छानने पर मज़बूर थे. तभी दिल्ली से हार कर भागे तर्दी बेग, इस्कंदर खान अपना जीवन सुरक्षित करने अकबर की पनाह में पंजाब आ गए. मालूम चला कि अकबर शिकार पर गए हैं. मुगलों में अपनी ख्याति के लिए जाने जाने वाला तर्दी बेग अपनी हार से घबराया हुआ बैरम खां से मिलने पहुंचा और उन्हें सारी बात बताई और काबुल वापस लौट जाने की सलाह दी.
तर्दी बेग की शिकस्त से गुस्साए बैरम ख़ां ने इतना सुनते ही तलवार निकाली और तर्दी बेग का सिर धर से अलग कर दिया. तर्दी बेग की हत्या को जायज ठहराते हुए बैरम खां ने अकबर के सामने हेमू पर चढ़ाई करने का प्रस्ताव रखा. इस वक्त महज़ 14 बरस के अकबर के पास बैरम खां की हां में हां मिलाने के अलावा कोई चारा भी नहीं था. उन्होंने हामी भरी और दस हज़ार की तादाद में मुगल सैनिक हेमू की सेना की ओर कूच कर गए.
इधर दिल्ली जीत कर हेमू भी रुकने वाले नहीं थे. उनके सिर पर मुगलों को भारत से खदेड़ने का भूत सवार हो गया था और जिस बात का तर्दी बेग को डर था वही हुआ. हेमू ने पंजाब की ओर कूच कर दिया. अब एक ऐसी लड़ाई की आमद होने वाली थी जिसने भारत के माथे की लकीरों को हमेशा के लिए बदल कर रख दिया. पानीपत की दूसरी लड़ाई. ‘नामी गिरामी’ में सुनने के लिए क्लिक करें
हाथियों की फौज से सुसज्जित हेमू की सेना को तोपों का इंतज़ार था जिसे वो अकबर के ख़िलाफ इस्तेमाल कर सके. हरियाणा से तोपे दिल्ली की ओर रवाना हुई मगर बैरम ख़ाँ को इसकी भनक लग गई. अपने सिपाही अली कुली खां को बुलाया और तोप कब्ज़ाने का आदेश दिया.
हेमू की तोपों पर अब मुगलों का कब्ज़ा था. लेकिन अभी कुछ एक घटना और होनी बाकी थीं. पानीपत के रास्ते में अपना पड़ाव डाल कर मुगलों का इंतज़ार कर रहें हेमु को एक रोज़ सपना आया. उन्होंने देखा कि वो एक नदी में डूब रहे हैं और मुगल सैनिक उनके गले में जंजीर बांध कर उन्हें बाहर निकाल रहे हैं. पंडितों ने इसे शुभ संकेत नहीं माना और लड़ाई को स्थगित करने का सुझाव दिया.. मगर हेमू ने बात ख़ारिज करते हुए पानीपत की ओर बढ़ने का आदेश दिया.
अक्टूबर-नवंबर का महीना था लिहाज़ा ठंड के साथ साथ बारिश ने भी अपना रूप दिखाना शुरू कर दिया. सफर के दौरान बारिश शुरु हो गई. तेज़ चमचमाती बिजली कड़कने लगी. तभी आसमान से एक बिजली हेमू के हाथी पर आ गिरी. एकबेग हुए इस हादसे ने हेमू के सबसे प्रिय हाथी की जान ले ली. पंडितों इसे अशुभ बताया और हेमू को एक मर्तबा फिर युद्ध रोकने की सलाह दी... मगर हेमू फैसला कर चुके थे. उनका काफिला आगे बढ़ता गया और 5 नवंबर 1556 वो तारीख़ थी जब मुगल और हेमू की सेना आमने सामने थी... इतिहास के पन्नों में एक भीषण युद्ध अपनी उपस्थिति दर्ज कराने वाला था. ‘नामी गिरामी’ में सुनने के लिए क्लिक करें
पच्चीस हज़ार की तादाद में मुगल सेना मैदान में अपना परचम बुलंद कर रही थी. खान शब्बानी के नेतृत्व में मुगल सेना की दाई भाग को सिकंदर खान अज़बुक की सरपरस्ती हासिल थी तो वहीं बाया हिस्सा अब्दुल्ला ख़ान अज़बुक के हाथों में था.
और इन सब के सामने खड़ी थी एक लाख सैनिकों से सुसज्जित हेमचंद्र विक्रमादित्य की सेना जहां एक हज़ार जंगी हाथी पैरों से दुश्मनों को कुचलने की तलबलाहट में थे. उनके सुड़ पर भाले लगे थे और महावत के पीछे बैठे सैनिकों ने अपने धनुष बाण मुगलों की ओर चढ़ा रखे थे. लड़ाई का बिगुल फूंक दिया गया.
हमले की पहल हेमू ने की. उन्होंने बाएं और दाएं दस्ते को आक्रमण करने का हुक्म दिया. दूसरी ओर हेमू की तोपों को कब्ज़ाए बैठे मुगलों के दोनों दस्ते आगे बढ़े मगर हेमु के सैनिकों ने उन्हें पीछे धकेलना शुरू किया. मौतों का तांडव शुरू हो चुका था. हेमू के हमले ने मुगलों की कपकपी बढ़ा दी. उनका बाए और दाए दस्ते को खदेड़ते हुए हेमू सेना उन्हें बेहद दूर ले गई. ये देख घबराए बैरम खां ने अपने तेज़ घुड़सवार मदद के लिए भेजा और खेल पलट गया. हेमू के सैनिक मुगलों को तितर बितर करते लेकिन वो मैदान छोड़ने के बजाय पीछे से आकर उन पर हमला करते. पासा पलट चुका था और अब मुगल हेमू की सेना पर हावी थे. हमले में सादीखान कक्कड़, भगवान दास जैसे हेमू के कई वफादार सिपाही मारे गए.
अब मुगलों के सामने सबसे बड़ी चुनौती थी सैकड़ों हाथियों का मुकाबला करना जो तेज़ रफ्तार से उनकी ओर बढ़े जा रहे थे. बैरम खां ने अपने सिपाही को हाथियों की सूड़ पर हमला करने का आदेश दिया. मुगल घुड़सवारों ने अब हाथियों से सीधा भिड़ने के बजाय बायी और दायीं और से हमला शुरु किया. सूड़ पर वार होते ही बेकाबू हाथी डगमगाता हुआ ज़मीन पर धराशायी हो जाता. युद्ध को पलटता देख हेमू ने तुगलकाबाद युद्ध वाली चाल चली और अपनी सेना को पीछे हटने का आदेश दिया. ‘नामी गिरामी’ में सुनने के लिए क्लिक करें
युद्ध के बाद बंदी बना लिए गए हेमू को अकबर के सामने घायल अवस्था में पेश किया गया. बैरम खां ने अकबर से हेमू का सिर कलम करने को कहा ताकी उन्हें गाज़ी की उपाधी मिल सके. मगर अकबर ने ऐसा करने से इंकार कर दिया. हारे हुए हेमू को घायल अवस्था में वो मौत नहीं देना चाहते थे. नतीजतन बैरम खां ने तुरंत तलवार निकाली और हेमू का सिर काट डाला. इसके बाद युद्ध में पकड़े गए हेमू के सभी सैनिकों का सिर धड़ से अलग कर एक नर खोपड़ियों का एक किला बना दिया गया. अकबर और बैरम खां की नज़र अब हेमू के परिवार पर थी. वो पूरी तरह से उनका खात्मा चाहते थे. बैरम खां ने तुरंत अपने सिपाही पीर मो. शिरवानी को दिल्ली रवाना किया.. मगर मुगलों की आने की ख़बर मिलते ही हेमू के परिवार वालों ने दिल्ली छोड़ दिया मगर पिता वहीं रह गए. पीर मो. शिरवानी ने हेमू के पिता के सामने एक शर्त और कहा कि अगर वो इस्लाम कबूल कर ले तो वो उसकी जान बख्श देगा.. मगर हेमू के पिता ने ऐसा करने से साफ इंकार कर दिया. तभी . पीर मो. शिरवानी की तलवार उनकी गर्दन पर जा लगी और उनका सिर ज़मीन पर गिर पड़ा.
एक महीने से भी कम वक्त के लिए हेमू हिंदुस्तान के सम्राट रहे.. मगर ये इतिहास की वो कड़ी है जो मुगलों के भारत में अपना परचम बुलंद करने का तार जोड़ता है. कई इतिहासकार कहते हैं कि अगर हेमू की आंखों में एक तीर न लगा होता तो आज हिंदुस्तान का इतिहास और वर्तमान दोनों ही कुछ और होता