दिल्ली यूनिवर्सिटी ने हाल ही में ‘Negotiating Intimate Relationships’ नाम का कोर्स लॉन्च किया है. यानी रिश्तों को समझना, निभाना और वक्त आने पर छोड़ना, ये अब किताबों में पढ़ाया जाएगा. वहीं अब हरेक समस्या के लिए एक हीलर है, कुछ न कुछ सिखा रहा कोच है तो कहीं एक्सपर्ट-मोटिवेटर हैं. पहली नजर में यह सब बहुत प्रगतिशील लगता है. लेकिन अगर एक पल रुककर सोचें तो सवाल उठता है. क्या अब वो सबकुछ भी सिखाया-समझाया जाएगा जो कभी परिवार, समाज या जिंदगी अपने आप सिखाती थी? इस पूरे बदलाव के हर पहलू को हमने समझने की कोशिश की है.
ये बदलाव यूं ही नहीं आया
आप DU के इस कोर्स का उदाहरण जिसमें सिखाया जाएगा कि हेल्दी रिलेशनशिप क्या होता है, रेड फ्लैग क्या होते हैं, जब रिश्ता ज़हर बन जाए तो खुद को कैसे बचाया जाए. ये सब इसलिए जरूरी हुआ क्योंकि आजकल युवा रिलेशनशिप में पड़ तो रहे हैं लेकिन उससे निकलना नहीं जानते. प्यार करना जानते हैं पर बाउंड्रीज तय करना नहीं आता. इंस्टाग्राम पर 6 महीने की रिलेशनशिप में 'माई लाइफ, माई सोलमेट' लिखने वाले लोग अगले ही महीने डिप्रेशन में मिलते हैं.
इस कोर्स का आना बताता है कि हम उस दौर में पहुंच चुके हैं जहां इमोशनल एजुकेशन भी उतनी ही जरूरी हो गई है जितनी कि करियर की. दिल्ली यूनिवर्सिटी के मनोविज्ञान विभाग में प्रोफेसर डॉ. नवीन कुमार इस बदलाव को ज़रूरी मानते हुए कहते हैं कि आज की युवा पीढ़ी डिजिटल रूप से तो बहुत जुड़ी है लेकिन भावनात्मक रूप से बेहद अकेली है. रिश्तों की समझ अब सिर्फ अनुभव से नहीं आएगी बल्कि इसके लिए साइकोलॉजिकल फ्रेमवर्क की भी ज़रूरत है. ऐसे कोर्स रिश्तों को बेहतर समझने का जरिया बन सकते हैं.
क्यों अब हर भावना का कोच है
चलिए कोर्स की बात मान ली, लेकिन ये जो हर भावना के अलग अलग कोच हैं. क्या ये वाकई Gen-Z या मिलेनियल्स की हेल्प कर रहे हैं या सिर्फ सब कुछ कॉमर्शियल हो गया है. इसके लिए थोड़ा पीछे जाकर देखना होगा जब बहुत-से लेसन जिंदगी सिखाती थी, जिसके लिए अब बाजार में एक ‘कोचिंग’ है.
उदाहरण के लिए ब्रेकअप हुआ तो ब्रेकअप हीलर हैं. रिश्ते में हैं लेकिन कन्फ्यूज हैं? रिलेशनशिप कोच हैं. शादीशुदा हैं और खुद को खो चुके हैं? सेल्फ-लव कोच से मिलिए. पेरेंटिंग नहीं आ रही? पेरेंटिंग कोच लीजिए. यहां तक कि ‘वर्क-लाइफ बैलेंस कोच’ और नार्ससिस्टिक एब्यूज विक्टिम्स के पर्सनल कोच तक हैं. मतलब जो चीजें पहले दादी-नानी या अन्य बुजुर्गो से बातें करके या चुपचाप टेरेस पर बैठकर समझ आती थीं अब वो भी एक ‘कोच’ से समझ आने लगी हैं.
ये बदलाव अच्छा है या डरावना?
मनोचिकित्सक डॉ. सत्यकांत त्रिवेदी इस ट्रेंड को एक तरह की ‘इमोशनल रिकवरी’ मानते हैं. उनका कहना है कि बीते कुछ वर्षों में युवा जिस तेजी से रिश्तों में टूट-फूट, अस्थिरता और मेंटल हेल्थ इश्यूज़ से जूझे हैं, वो एक बड़ी चेतावनी थी कि भावनात्मक शिक्षा को अब औपचारिक बनाना होगा. लेकिन अगर ये कोर्स सिर्फ सर्टिफिकेट देने या सोशल मीडिया ट्रेंड्स से प्रभावित होकर बनाए गए हैं, तो वे भावनात्मक समझ नहीं, बस ज्ञान का भ्रम देंगे. वहीं हर भावना के अलग अलग कोच की बात पर डॉ सत्यकांत का कहना है कि ये सोशल मीडिया में एक ट्रेंड सा बन गया है. मनो चिकित्सा के क्षेत्र में बिना डिग्री या डिप्लोमा के झोलाछाप कोच तैयार हो गए हैं जो कि कई बार सही रास्ता बताने के बजाय मेंटल हेल्थ समस्या से जूझ रहे लोगों को और भटका देते हैं. मेरे पास ऐसे बहुत से केसेज आ चुके हैं जो मोटी-मोटी फीस देकर ऐसे कोच या हीलर से अपना इलाज करा चुके थे.
कभी रिश्ते इंसान बनाते थे, अब इंस्टिट्यूट
पहले हमें रिश्तों में कौन सी बात कहनी है, किस पर चुप रहना है, प्यार जताना है या सीमाएं बनानी हैं, ये सब धीरे-धीरे रिश्तों में रहकर सीखते थे. ग़लतियां होती थीं, अनुभव होते थे और ये सब इंसान बनाते थे. लेकिन, अब लगता है कि इंसान बनने से पहले कोर्स करना पड़ेगा. सवाल सिर्फ इतना है कि क्या इमोशन भी अब प्रोफेशनल स्किल बन जाएंगे? ये हो सकता है कि कुछ लोगों को इस तरह की कोचिंग से मदद मिलती है. डॉ सत्यकांत कहते हैं कि DU जैसे संस्थान अगर डिग्री कोर्स ला रहे हैं, तो उससे वाकई लोगों की सोच बदलेगी. लेकिन लाइफ कोचिंग के नाम पर चल रहा बाजार कई बार अधकचरे गाइडेंस, बिना ट्रेन्ड लोगों और सतही ज्ञान से भरा पड़ा है.
एक अमेरिकन रिपोर्ट में कहा गया था कि लाइफ कोचिंग अगर गलत तरीके से हो, तो यह भ्रम दे सकती है कि सिर्फ आप ही ठीक हैं, बाकी दुनिया गलत है. इसलिए शायद हमें इमोशन को भी उतनी ही गंभीरता से लेना चाहिए जितना मैथ या फिजिक्स को लेते हैं.