
पिछले कुछ दिनों से राजनीतिक कार्यकर्ता और किसान संगठन सड़क पर हैं. वे नए कृषि कानूनों के खिलाफ विरोध-प्रदर्शन कर रहे हैं. विरोध करने वालों को आशंका है कि नए कानूनों के चलते सरकार की ओर से फसलों को दिए जाने वाले न्यूनतम समर्थन मूल्य (minimum support price-एमएसपी) की व्यवस्था खत्म हो जाएगी.
न्यूनतम समर्थन मूल्य वह होता है जिस मूल्य पर सरकार विभिन्न एजेंसियों के जरिये किसानों से अनाज खरीदती है. यह एक तरह से फसल का गारंटी मूल्य होता है. पिछले 10 वर्षों के एमएसपी के आंकड़ों से पता चलता है कि सरकारें इस गारंटी कीमत को बढ़ाने में संकोच करती रही हैं. लेकिन मौजूदा विरोध को देखते हुए सरकार ने झटपट तरीके से छह रबी फसलों के लिए एमएसपी बढ़ा दी है. हालांकि, आमतौर पर रबी फसलों के लिए संशोधित एमएसपी की घोषणा अक्टूबर या नवंबर में की जाती है.
केंद्रीय कृषि मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर ने 21 सितंबर को संसद में कहा, “न्यूनतम समर्थन मूल्य जारी रहेगा, और इसमें बढ़ोतरी की घोषणा करके हमने यह साबित किया है.”
आंकड़ों से पता चलता है कि पिछले 10 वर्षों में रबी और खरीफ की लगभग सभी फसलों के लिए एमएसपी में औसतन गिरावट ही आई है. सरकार की ताजा घोषणा में गेहूं और धान की एमएसपी में क्रमशः 2.6 फीसदी और 2.9 फीसदी की वृद्धि हुई है जो कि पिछले एक दशक में सबसे कम है.
2016-18 से गेहूं के समर्थन मूल्य में लगातार वृद्धि हुई है. 2019 में धान का समर्थन मूल्य 13 फीसदी और मूंग का समर्थन मूल्य 25 फीसदी बढ़ा. लेकिन 2020-21 में उड़द, मूंग और अरहर छोड़कर सभी फसलों का समर्थन मूल्य कम हुआ है.

सोमवार को आर्थिक मामलों की कैबिनेट कमेटी (CCEA) द्वारा लिए गए निर्णय के अनुसार, गेहूं के समर्थन मूल्य में सिर्फ 50 रुपये बढ़ाकर 1,975 रुपये प्रति क्विंटल कर दिया गया है. ये मात्र 2.6 फीसदी की बढ़ोतरी है जो कि 2011 के बाद सबसे कम है. पिछले साल सरकार ने गेहूं के समर्थन मूल्य में प्रति क्विंटल सिर्फ 20 रुपये या 1.8 फीसदी की बढ़ोतरी की गई थी.
एक त्वरित राजनीतिक कदम?
केंद्र सरकार ने कमीशन फॉर एग्रीकल्चरल कास्ट एंड प्राइसेज (CACP) के सुझावों के आधार पर बुवाई के मौसम से पहले ही 22 फसलों का न्यूनतम समर्थन मूल्य घोषित कर दिया है.
न्यूनतम समर्थन मूल्य यानी एमएसपी वह मूल्य है, जिस पर केंद्र सरकार फूड कॉरपोरेशन ऑफ इंडिया (FCI) जैसी विभिन्न एजेंसियों के माध्यम से किसानों से उपज खरीदने की गारंटी देती है. इसके तहत किसानों को उत्पादन लागत का कम से कम डेढ़ गुना दाम मिलता है. यह व्यवस्था किसानों को उस उतार-चढ़ाव से बचाती है, जिसके चलते अनाज के दाम घटते बढ़ते हैं. प्रतिकूल मौसम के चलते फसल खराब होने या बाजार के जोड़तोड़ के कारण कीमत में उतार-चढ़ाव को लेकर भी किसानों को सुरक्षा मिलती है.
हालांकि, समर्थन मूल्य का इस्तेमाल ज्यादातर संकट में फंसे किसानों को शांत करने के लिए किया जाता है. उदाहरण के लिए, धान के समर्थन मूल्य में सबसे ज्यादा वृद्धि 2013 में देखी गई जब यूपीए सरकार थी. उस वक्त इसमें 16 फीसदी या 170 रुपये की बढ़ोतरी करके 1,250 रुपये प्रति क्विंटल कर दिया गया था. एनडीए सरकार में इसके समर्थन मूल्य में अधिकतम वृद्धि (13 प्रतिशत) 2019 में हुई. ये दोनों बढ़ोतरी चुनाव के पहले हुई.

समर्थन मूल्य की प्रासंगिकता को लेकर नीति निर्माताओं और अर्थशास्त्रियों में मतभेद हैं. 2019 में आम चुनाव से ठीक पहले प्रधानमंत्री कार्यालय के आर्थिक सलाहकार रहे सुरजीत भल्ला ने कृषि सुधारों की जरूरत पर जोर दिया और अगले तीन सालों में समर्थन मूल्य समाप्त करने का सुझाव दिया था.
मई 2019 में भल्ला ने कहा था, “अगली सरकार को कॉरपोरेट टैक्स में 5 फीसदी की कटौती करनी चाहिए, इनकम सपोर्ट योजना का विस्तार करना चाहिए और अगले तीन वर्षों में समर्थन मूल्य को खत्म करना चाहिए. कृषि में सरकारी हस्तक्षेप बिल्कुल नहीं होना चाहिए.”
हालांकि, अन्य जानकारों का कहना है कि कृषि क्षेत्र गंभीर संकट में है. इसे समर्थन मूल्य और ऐसे अन्य उपायों के जरिये संरक्षण देने की जरूरत है. आईआईटी दिल्ली से जुड़े अर्थशास्त्री वी उपाध्याय कहते हैं, “ किसानों को उत्पादन और बाजार के उतार-चढ़ाव में अनिश्चितता से बचाने के लिए समर्थन मूल्य जरूरी है.”
इसे भी पढ़ें: