देश में आगामी जनगणना के साथ जातीय गणना कराने का मोदी सरकार का फैसला न केवल विपक्षी INDIA गठबंधन के हमलों को कमजोर करने की रणनीति के तौर पर देखा जा रहा है, बल्कि इसके पीछे बिहार में हिंदू वोटों के संभावित बंटवारे का डर भी एक अहम वजह माना जा रहा है. हिंदी पट्टी के सबसे महत्वपूर्ण राज्यों में से एक बिहार, जहां अगले साल विधानसभा चुनाव हैं, उसके लिए यह भी यह अहम माना जा रहा है. यहां जातीय समीकरण हमेशा से निर्णायक रहे हैं.
गौरतलब है कि नीतीश कुमार की सरकार ने 2023 में ही राज्य स्तर पर जातीय सर्वेक्षण कराया था, जिसकी रिपोर्ट उसी साल 2 अक्टूबर को सार्वजनिक की गई थी. इस सर्वेक्षण को सभी दलों महागठबंधन (जेडीयू-आरजेडी-कांग्रेस) से लेकर उस समय विपक्ष में रही बीजेपी ने सर्वसम्मति से समर्थन दिया था.
हालांकि, सर्वेक्षण के बाद भी यह मसला शांत नहीं हुआ. नीतीश कुमार और तेजस्वी यादव जैसे ओबीसी नेताओं ने इसे राष्ट्रीय स्तर पर दोहराने की मांग की. कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने भी हाल ही में बिहार की अपनी रैलियों में 2023 के सर्वे को खारिज करते हुए एक नई राष्ट्रीय जाति जनगणना की मांग की. दिलचस्प बात यह है कि राहुल गांधी यह भूल गए कि 2023 में बिहार में हुई जाति जनगणना उस महागठबंधन सरकार द्वारा की गई थी, जिसमें कांग्रेस भी हिस्सेदार थी.
क्या कहते हैं विश्लेषक
राजनीतिक विश्लेषकों का हालांकि मानना है कि केंद्र सरकार का राष्ट्रीय जनगणना के साथ जाति गणना करने का फैसला न केवल मोदी सरकार की एक मास्टरस्ट्रोक रणनीति है, जिसने बिहार चुनावों में विपक्ष के प्रमुख मुद्दे को कुंद कर दिया, बल्कि यह बिहार चुनावों में हिंदू वोटों के बंटवारे के डर का भी नतीजा है.
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बिहार के राजनीतिक टिप्पणीकार अभय मोहन झा ने कहा, 'बिहार में भाजपा उत्तर प्रदेश के योगी आदित्यनाथ की तरह एक मजबूत हिंदुत्व चेहरा पेश करने में सफल नहीं रही है और इसलिए उसे क्षेत्रीय दलों की नियम पुस्तिका के अनुसार खेलने के लिए मजबूर होना पड़ा, जो जाति आधारित राजनीति पर टिकी है.'
केंद्र द्वारा बिहार विधानसभा चुनावों से पहले जाति जनगणना की घोषणा के पीछे एक बड़ा कारण यह भी प्रतीत होता है कि भाजपा, जो हिंदू वोटों को एकजुट करने की कड़ी मेहनत कर रही है, बिहार जैसे राज्य में ज्यादा सफलता नहीं पा सकी, जहां लोग अतीत में मुख्य रूप से जाति के आधार पर मतदान करते रहे हैं. बिहार में ध्रुवीकरण की राजनीति पर हमेशा जाति आधारित राजनीति हावी रही है, और शायद भाजपा ने नुकसान को नियंत्रित करने की कोशिश में राष्ट्रीय जाति जनगणना को हरी झंडी दे दी.
विपक्षी दलों की प्रतिक्रिया
आपको बता दें कि राजद सुप्रीमो लालू प्रसाद ने 2015 के बिहार विधानसभा चुनाव को तब अपने पक्ष में कर लिया था, जब उन्होंने आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत के उस बयान को पकड़ लिया था जिसमें उन्होंने देश में आरक्षण व्यवस्था की समीक्षा की बात कही थी. लालू ने अपनी चुनावी रैलियों में ओबीसी, अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के बीच यह डर पैदा कर दिया कि भाजपा की नीयत आरक्षण नीति को खत्म करने की है. बिहार में राजद जैसे क्षेत्रीय दल हमेशा से जाति आधारित राजनीति में लिप्त रहे हैं, जिसमें यादव और मुस्लिम उनके मुख्य वोट बैंक हैं. नीतीश कुमार की जनता दल यूनाइटेड भी कुर्मी-कोइरी, ओबीसी, ईबीसी, दलित और महादलित जैसे जाति आधारित वोट बैंक पर निर्भर है.
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जातीय जनगणना के ऐलान से बीजेपी ने न केवल अपने सहयोगी नीतीश कुमार और चिराग पासवान को संतुष्ट किया है, बल्कि आरजेडी और महागठबंधन से भी बड़ा चुनावी मुद्दा छीन लिया है.नीतीश कुमार ने कहा, "हमारी जातीय जनगणना की मांग पुरानी है. इससे समाज के सभी वर्गों की संख्या सामने आएगी और उनके विकास के लिए योजनाएं बनाई जा सकेंगी. इससे देश की प्रगति तेज़ होगी."
उपमुख्यमंत्री सम्राट चौधरी ने कहा, "जातीय जनगणना से वंचित वर्गों की सामाजिक-आर्थिक स्थिति का सही आकलन होगा और उनके उत्थान के लिए प्रभावी योजनाएं बनाई जा सकेंगी." आरजेडी प्रमुख लालू प्रसाद यादव ने इस फैसले को समाजवादी नेताओं की जीत बताया और कहा, "हम समाजवादियों ने 30 साल पहले जो एजेंडा तय किया, वही आज सब फॉलो कर रहे हैं. हम इन संघियों को अपने एजेंडे पर नचाते रहेंगे."