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Future mode of transport: पॉड टैक्सी, फ्लाइंग टैक्सी, मैग्लेव ट्रेन, हाइपरलूप... ये 7 तकनीक हैं शहरी ट्रांसपोर्टेशन का फ्यूचर

दिल्ली-मुंबई-बेंगलुरु जैसे हमारे बड़े शहरों में रहने वाले लोग ट्रैफिक जाम की समस्या से रोज ही जूझते हैं. बढ़ते शहरीकरण के बीच सड़कों पर बढ़ती भीड़ की समस्या से निजात पाने के लिए नए तकनीकी संसाधन तेजी से अपनाना ही अब आगे का रास्ता है. दुनिया के तमाम बड़े शहरों में ट्रांसपोर्टेशन के मॉडर्न साधन अपनाए जा रहे हैं और ट्रांसपोर्ट के ये फ्यूचर साधन आने वाले सालों में हमारे शहरों के यातायात सिस्टम का भी हिस्सा होंगे. आइए जानते हैं कि दुनिया के मॉडर्न शहरों में हमारे शहरों से अलग किन तकनीकों का इस्तेमाल यातायात के लिए किया जा रहा है और ये कैसे बदल रहे हैं जिंदगी.

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सड़कों पर बेतहाशा भीड़ के बीच रेंगती गाड़ियां, कई-कई किलोमीटर लंबा ट्रैफिक जाम, रेड लाइट्स पर अटकी ट्रैफिक की रफ्तार, मेट्रो ट्रेनों की धक्का-मुक्की और इन सब परेशानियों से जूझता शहरी जीवन... कमोबेश ये नजारा दिल्ली-मुंबई समेत भारत या कहें तो एशिया के अधिकांश शहरों के आज के ट्रांसपोर्ट सिस्टम की हकीकत है. लेकिन दुनिया तेजी से बदल रही है और उतनी ही तेजी से दुनियाभर के मॉडर्न शहरों में ट्रांसपोर्ट की सुविधाएं भी.

दिल्ली-मुंबई-चेन्नई-कोलकाता जैसे देश के बड़े शहरों के साथ-साथ लखनऊ-जयपुर जैसे दूसरे शहरों में मेट्रो ट्रेनों की सुविधाओं के बाद अब देश में रैपिड ट्रेनों की शुरुआत हो रही है. लेकिन बदलावों का ये सिलसिला यहीं रुकने वाला नहीं है बल्कि मॉडर्न ट्रांसपोर्टेशन के कई आधुनिक साधन तेजी से विकसित हो रहे हैं. आज नई तकनीक पर आधारित ट्रांसपोर्ट की सुविधाएं हमारे शहरों की प्लानिंग में भी शामिल हो रही हैं और आने वाले कुछ महीनों या सालों में ये हमारे जीवन का भी हिस्सा हो सकती हैं. यूपी के नोएडा में देश की पहली पॉड टैक्सी सर्विस शुरू की जाएगी. इस प्रोजेक्ट के लिए लंदन और आबुधाबी मॉडल का अध्ययन किया गया है. इसके लिए ग्लोबल टेंडर जारी किए जाएंगे.

क्यों जरूरी है ट्रांसपोर्ट सिस्टम में बदलाव?

आज दुनिया की आबादी 8 अरब के पार है और 10-20 साल पहले बनी सड़कें या ट्रांसपोर्ट सिस्टम यातायात की जरूरतों को पूरी नहीं कर सकती हैं. भारत समेत दुनिया के हर देश में तेजी से शहरीकरण बढ़ रहा है. गांव-कस्बे शहरों में बदलते जा रहे हैं तो ग्रामीण इलाकों से तेजी से अच्छे जीवनयापन की तलाश में लोग शहरों की ओर पलायन कर रहे हैं और इसी का नतीजा है कि दुनियाभर के शहरों में तेजी से आबादी का बोझ बढ़ता जा रहा है. अगले दो-तीन दशकों में दुनिया और खासकर शहरों की डेमोग्राफी तेजी से बदलने वाली है. संयुक्त राष्ट्र के आंकड़ों की मानें तो साल 2050 तक दुनिया की 70 फीसदी आबादी शहरी इलाकों में रह रही होगी जो कि आज 54 फीसदी है.

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आज दुनियाभर में टोक्यो, दिल्ली और शंघाई सहित 33 मेगासिटीज हैं जो कि तीन दशक बाद 21.3 करोड़ लोगों की कुल बढ़ी हुई आबादी के साथ 14 और शहर मेगासिटीज की सूची में शामिल होंगे. दिल्ली के बारे में अनुमान है कि तब ये दुनिया का सर्वाधिक आबादी वाला शहर होगा. सरकारी अनुमान के मुताबिक भारत के शहरों में साल 2050 तक 85 से 90 करोड़ की आबादी रह रही होगी. इतनी बड़ी आबादी के लिए न तो शहर फैलाया जा सकेगा और न ही सड़कों पर आने से किसी को रोका जा सकेगा. ऐसे में ट्रांसपोर्ट सिस्टम में नई तकनीक को अपनाकर ही शहरों की जरूरतों को पूरा किया जा सकेगा. जाहिर है हमारे शहरों को तेजी से ट्रांसपोर्ट के आधुनिक साधनों को अपनाना होगा.

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क्या है इस विकराल होती समस्या का हल?

आज हम आपको बताएंगे कि दुनिया के तमाम आधुनिक शहर ट्रांसपोर्ट के कौन से फ्यूचर टेक्नोलॉजी को अपना रहे हैं और जो निकट भविष्य में हमारे शहरों की जिंदगी का भी हिस्सा बन सकती हैं. सड़कों पर, पटरियों पर और यहां तक कि आसमान में शुरू हो रहे ट्रांसपोर्ट के ये 7 फ्यूचर मोड हैं जो भारतीय शहरों में भी आने वाले सालों में दिख सकते हैं-

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1. पॉड टैक्सी

रैपिड ट्रेनों के बाद हमारे शहरों में जो ट्रांसपोर्ट सिस्टम सबसे जल्दी आते दिख रहा है वह है पॉड टैक्सी. भारत में सबसे पहले दिल्ली से सटे नोएडा शहर में पॉड टैक्सी चलाने की योजना है जो आसपास के इलाकों को एनसीआर में बन रहे जेवर एयरपोर्ट से जोड़ेगी. भारतीय पोर्ट रेल और रोपवे कॉर्पोरेशन लिमिटेड की ओर से तैयार रिपोर्ट में कहा गया है कि यह 14.6 किमी लंबा होगा. नोएडा में शुरू होने वाली पॉडी टैक्सी दुनिया की सबसे लंबे रूट वाली पॉड टैक्सी होगी. इसमें 12 स्टेशन होंगे और 37 हजार यात्री हर दिन सफर कर सकेंगे.

देश में सबसे पहले पॉड टैक्सी सर्विस उत्तर प्रदेश के नोएडा में शुरू होगी. नई फिल्म सिटी से जेवर एयरपोर्ट तक इसका संचालन होगा. प्रोजेक्ट में 641.53 करोड़ रुपए खर्च होंगे. डबल ट्रैक वाली पॉड टैक्सी के कॉरिडोर को पूरा करने में एक साल लगेंगे. प्रोजेक्ट को मार्च 2026 तक पूरा किया जाएगा.

क्या होती हैं पॉड टैक्सी?

पॉड टैक्सी वर्तमान में दुनिया के 5 देशों में सफलतापूर्वक चल रही हैं. लंदन और आबू धाबी की पॉड टैक्सी अपने लग्जरियस सुविधाओं के लिए जानी जाती हैं. पॉड टैक्सी दरअसल एक तरह से इलेक्ट्रिक कार की तरह होती है जो बिना ड्राइवर के चलती है. यह एक कंट्रोल सिस्टम से चलाई जाती है. दरअसल ये छोटी कार की वो सुविधा है जो ऑटोमैटिक चलती है और बहुत ही तेज स्पीड में लोगों को एक जगह से दूसरी जगह पहुंचाती है.

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कैसे काम करती है ये?

एक पॉड टैक्सी में तकरीबन 8 यात्री बैठ सकते हैं और 13 लोग खड़े होकर यात्रा कर सकते हैं. पॉड टैक्सी के ऑटोमेटिक सिस्टम में कमांड फीड कर दिया जाता है कि उसे कहां पर कब पहुंचना है और कब रुकना है. सेंसर टेक्नोलॉजी के जरिए यह सुनिश्चित किया जाता है कि एक ही रूट पर जा रही दो पॉड के बीच में पर्याप्त दूरी रहे.

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क्या फायदा होगा इससे?

पॉड टैक्सी का पूरा सिस्टम बिजली पर चलता है तो प्रदूषण को कंट्रोल करने के साथ-साथ सस्ती सेवा मुहैया कराने के लिहाज से भी काफी कारगर है. इसे अपनाने से हमारे शहरों में जहां तेज ट्रांसपोर्टेशन संभव हो पाएगा वहीं यातायात में दुर्घटनाओं को कम करने और प्रदूषण को कंट्रोल करने में भी मदद मिलेगी.

2. फ्लाइंग टैक्सी

आपने फिल्मों में उड़ने वाली कारों को तो देखा होगा लेकिन सोचिए अगर आपके शहर के आसमान में चारों ओर उड़ने वाली कारें दिखें तो कैसे नजारा हो. सोचिए अगर आप टैक्सी बुक करें और वो आपके घर की छत या बालकनी से आपको रिसीव कर ले जाए और पल भर में आपकी मंजिल तक पहुंचा दे. ये कोई सपना नहीं है बल्कि दुनिया इस हकीकत को हासिल करने के बहुत करीब है. आज दुनिया में करीब 20 कंपनियों ने फ्लाइंग टैक्सी का प्रोटोटाइप पेश किया है. ना सिर्फ अमेरिका बल्कि मेड इन इंडिया फ्लाइंग टैक्सी का मॉडल भी सामने आ चुका है.

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अमेरिका के कई शहर और दुबई समेत कई शहरों में कंपनियों ने फ्लाइंग टैक्सी चलाने का प्रपोजल पेश किया है. शहरों के आसमान में कैसे सुरक्षित फ्लाइंग टैक्सी को चलाया जाए इस बारे में टेस्टिंग के कई दौर के बाद इनको मंजूरी मिल सकती है.

भारत में भी चेन्नई की एक कंपनी ने देश की पहली उड़ने वाली इलेक्ट्रिक टैक्सी को 2024 के अंत तक लाने का दावा किया है. इस प्रोटोटाइप में दो सीटों की फ्लाइंग कार का प्रपोजल पेश किया गया. इस मेड इन इंडिया फ्लाइंड टैक्सी को बनाने वाली स्टार्टअप का दावा है कि ये सड़क पर चलने वाली कारों की तुलना में 10 गुनी स्पीड से लोगों को पहुंचाने में सक्षम है. जबकि किराया ऐप बेस्ड टैक्सी से दोगुनी होगी.

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फ्लाइंग टैक्सी से फायदा क्या?

सड़कों पर चलने वाले आम कारों की तुलना में फ्लाइंग टैक्सी की स्पीड बहुत ही ज्यादा होती है. फ्लाइंग टैक्सी 600 मील प्रति घंटे की रफ्तार से उड़ान भर सकती है. यह हवाई जहाज की तरह लंबी दूरी की यात्रा करते हुए बिना रनवे की आवश्यकता के उड़ान और जमीन पर लाई जा सकती है. वे विमानों की तुलना में कम शोर और कम प्रदूषण करते हुए यातायात के पूरे सिस्टम को बदल सकती है. इससे सड़कों पर रोज लगने वाले ट्रैफिक जाम से मुक्ति पाई जा सकती है. हालांकि, इनके शुरू होने में तीन बड़ी बाधाएं हैं- पहली- शुरुआत के लिए बड़ा खर्च, दूसरी- हवाई टैक्सी के लिए रूट और तीसरी- ट्रैफिक सिक्योरिटी और रेगुलेशन.

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3. ड्राइवरलेस कारें

ड्राइवरलेस कारें यानी जिन्हें चलाने के लिए किसी इंसान की जरूरत नहीं हो. यानी ऐसी कारें जो सेल्फ ड्राइविंग हो, ऑटोपायलट तरीके से सड़क के सिगनल्स को समझकर खुद कमांड ले और सेंसर टेक्नीक की मदद से स्पीड, दूसरी गाड़ियों से दूरी आदि को भी खुद नियंत्रित करें. सेल्फ ड्राइविंग या ड्राइवरलेस कारें कई आधुनिक देशों में आज हकीकत का रूप ले चुकी है.

कैसे काम करती है ये टेक्नोलॉजी?

सेल्फ ड्राइविंग कारें चलाने के लिए हाईटेक कंट्रोल सिस्टम के साथ सेंसर, कैमरा, नेविगेशन के लिए एआई तकनीक का इस्तेमाल किया जाता है. इनमें लगे सेंसर सड़कों पर आगे के रास्ते, सिग्नल्स, दूसरी गाड़ियों से दूरी आदि को जहां खुद समझकर कमांड लेते हैं वहीं डेटा के जरिए धीरे-धीरे अपनी यात्रा को तेज और सटीक बनाते जाते हैं.

किन देशों में चल रही हैं ये सुविधाएं

टेस्ला, ऑडी, वोक्सवैगन जैसी दुनिया की कई चुनिंदा कंपनियां ऑटोपायलट कारों की तकनीक पर काम कर रही हैं. ब्रिटेन, अमेरिका, नॉर्वे जैसे विकसित देशों के अलावा चीन जैसे हाईटेक एशियाई देशों में भी कुछ चुनिंदा रूट्स पर स्लो स्पीड के साथ अनुमति पाकर सेल्फ ड्राइविंग या ड्राइवरलेस कारें आज चलाई जा रही हैं. लेकिन भारत जैसे भीड़-भाड़ वाले देशों की शहरों में इन्हें रियालिटी बनने में अभी कुछ साल जरूर लगेंगे. सेफ्टी और रेगुलेशन से जुड़े सवालों के हल तलाशकर ही इन्हें अनुमति दी जा सकती है.

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भारत में ड्राइवरलेस कारों का क्या फ्यूचर है?

दुनिया की तमाम कंपनियों के साथ-साथ भारत की टॉप ऑटोमोबाइल कंपनियां भी ऑटोनोमस कारों की तकनीक पर काम कर रही हैं. हालांकि, भारत में ये अभी प्रोटोटाइप और डेमोंट्रेशन के लेवल पर ही है. टाटा मोटर्स, महिंद्रा एंड महिंद्रा जैसी कंपनियां और आईआईटी मद्रास समेत कई रिसर्च संस्थानों में सेल्फ ड्राइविंग कारों की टेक्नीक पर काम जारी है और जल्द ही इनके नतीजे दिखने लगेंगे.

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भारत में इससे क्या फायदा होगा?

सेल्फ ड्राइविंग कारों से भारत के शहरों में ट्रैफिक जाम से राहत दिलाने, पॉलुशन कम करने और सड़क हादसे कम करने और ट्रैफिक की स्पीड बढ़ाने में मदद मिल सकती है.

चुनौतियां क्या हैं इस राह में?

इस तरह की कारों में इंसानी ड्राइवरों की जगह रोबोट्स का इस्तेमाल कंपनियां कर रही हैं ताकि ह्यूमैन एरर से सड़कों पर हो रहे हादसों में कमी लाई जा सके. हालांकि, ऐसी कारों की लागत काफी ज्यादा है इसके साथ ही रोड सेफ्टी के कानून, लीगल सवाल और इंसानी रोजगार जैसे सवालों का सामना भी इस तरह की कोशिशों को करना पड़ रहा है. सेल्फ ड्राइविंग कारों को चला पाना अभी अमेरिका के लॉस एंजिलिस जैसे स्मार्ट शहरों की सड़कों पर ही संभव हो पा रहा है जहां सबकुछ सिग्नल से ऑटो सिस्टम के जरिए चलाया जाता है लेकिन निकट भविष्य में ऐसी कारें हमारी सड़कों पर भी दौड़ती दिख सकती हैं.

4. मैग्लेव ट्रेन

मैग्लेव ट्रेनों को रेल यातायात की दुनिया के चमत्कार के तौर पर दुनिया में देखा जा रहा है. बुलेट ट्रेनों से भी आगे की टेक्नीक इसे माना जाता है. खास बात ये है कि इनमें लोहे के पारंपरिक पहिये नहीं होते, बल्कि यह मैग्नेटिक लेविटेशन यानी मैग्लेव से चलती है. इस तकनीक में पटरियों में मैग्नेटिक प्रभाव रहता है और ट्रेन इन पटरियों से कई इंच ऊपर हवा में रहती है. चीन, दक्षिण कोरिया, जापान मैग्लेव ट्रेन इस्तेमाल करने वाले दुनिया के शुरुआती देश हैं.

क्या फायदा है इस तकनीक से?

मैग्लेव ट्रेन पटरी पर दौड़ने की बजाय हवा में रहती है. इसके लिए ट्रेन को मैग्नेटिक फील्‍ड की मदद से नियंत्रित किया जाता है. इसलिए उसका पटरी से कोई सीधा संपर्क नहीं होता. इसमें ऊर्जा की भी बहुत कम खपत होती है और यह आसानी से 500 से 600 किलोमीटर प्रति घंटे की रफ्तार पकड़ सकती है. इसकी परिचालन लागत भी कम होती है. हालांकि लैंड के साथ मैग्नेटिक एरिया में कोई बाधा न आए इसके लिए लाइन सेफ्टी इस तकनीक के लिए सबसे बड़ी चुनौती है.

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बुलेट ट्रेन और मैग्लेव ट्रेन में क्या अंतर है?

दोनों ही सबसे तेज ट्रेनें हैं, लेकिन मैग्लेव को बुलेट ट्रेनों से एक कदम ऊपर माना जा सकता है. बुलेट ट्रेनें 300 से 400 किलोमीटर प्रति घंटे की रफ्तार से चलती है जबकि मैग्लेव ट्रेनों की स्पीड 500 किलोमीटर प्रति घंटे से अधिक होती है. बुलेट ट्रेनें पटरी पर चलती है जबकि मैग्लेव ट्रेनें पटरी से कुछ इंच ऊपर मैग्नेट प्रभाव से चलती हैं.

5. डिलीवरी ड्रोन

ट्रांसपोर्टेशन के आधुनिक साधनों में सामान पहुंचाने के लिए डिलीवरी ड्रोन की तकनीक का इस्तेमाल भी बहुत तेजी से बढ़ रहा है. दुनिया की कई बड़ी कंपनियां आज डिलीवरी ड्रोन का इस्तेमाल करने लगी हैं. यहां तक कि अमेजॉन जैसी बड़ी कंपनियां तो ऑटोपायलट ड्रोन्स का इस्तेमाल कर बड़े पैमाने पर सामानों की डिलीवरी दूर-दराज के ठिकानों पर या एयरपोर्ट या बंदरगाहों तक करने लगी है.

किस तरह के कामों में हो रहा इस्तेमाल?

अमेरिका के कई शहरों में घर-घर दवाएं पहुंचाने से लेकर घरेलू सामानों की डिलिवरी तक कंपनियां डिलिवरी ड्रोन का इस्तेमाल करती हैं. हालांकि, रेगुलेशन के सवालों के बीच इन सुविधाओं को अभी मुख्य तौर पर दूर के ग्रामीण इलाकों में सामान पहुंचाने और अस्पताल कैंपसों तक जरूरी चीजे पहुंचाने के लिए इनके इस्तेमाल की अभी अनुमति मिली है.

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भारत में क्या हो रही पहल?

हालांकि, भारत में अभी घर-घर डिलिवरी ड्रोन से सामान पहुंचाने की सुविधा शुरू नहीं हो पाई है क्योंकि इसे शुरू करने से पहले सेफ्टी, रेगुलेशन और ड्रोन नेविगेशन की निगरानी की पूरी व्यवस्था करनी होगी. लेकिन इस दिशा में तेजी से कदम उठाए जा रहे हैं. स्विगी कंपनी ने फूड ऑर्डर और ग्रॉसरी डिलिवर करने के लिए बिड आमंत्रित कर इस दिशा में बड़ी पहल की है ताकि कुछ बड़े शहरों में ड्रोन के जरिए सामानों की डिलिवरी घर-घर तक शुरू की जा सके.

अभी पिछले महीने ही ड्रोन तकनीक की दिशा में बड़ा कदम उठाते हुए ड्रोन के जरिए 10 यूनिट ब्लड ग्रेटर नोएडा के राजकीय आयुर्विज्ञान संस्थान से दिल्ली स्थित लेडी हार्डिंग मेडिकल कॉलेज भेजा गया. भारत में यह पहला मौका था जब ड्रोन से ब्लड की डिलीवरी की गई. इस तरह के कदमों से जरूरतमंद मरीजों तक तेजी से मदद पहुंचाने में मदद मिलेगी.

6. अंडरग्राउंड सड़कें

दुनियाभर के शहरों में तेजी से बढ़ी भीड़ और आबादी की जरूरतों के लिए बनते मकान जगह को सीमित करते जा रहे हैं ऐसे में नई सड़कों के लिए आबादी को उजाड़ना कोई भी सिटी प्लानर नहीं चाहेगा. इसलिए हर जगह अंडरग्राउंड सड़कों का चलन तेजी से बढ़ रहा है. एक रिपोर्ट के मुताबिक, दुनियाभर में मौजूद सड़कों की कुल लम्बाई करीब साढ़े 6 करोड़ किलोमीटर तक है. जबकि दुनियाभर में जनसंख्या तेजी से बढ़ रही है, नए इलाके बस रहे हैं, नए शहर बनाए और बसाए जा रहे हैं ऐसे में आने वाले वक्त में सड़कों की और ज्यादा जरूरत होगी.

शहरों, कस्बों या गांवों में हर जगह रह रहे लोग अब ज्यादा कारें खरीद रहे हैं. एक अनुमान के मुताबिक साल 2040 तक सड़कों पर करीब 200 करोड़ कारें होंगी.यानी आज की तुलना में सड़कों पर 50 फीसदी तक ट्रैफिक और बढ़ जाएगा.

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टेस्ला सीईओ एलॉन मस्क सड़क पर बढ़ते ट्रैफिक को शहरी जीवनशैली की सबसे बड़ी चुनौती मानते हैं और इसका समाधान वे सड़कों की रिडिजाइनिंग और अंडरग्राउंड सड़कों को बताते हैं. इसके वे कई फायदे गिनाते हैं- पहला- यातायात वेदरप्रूफ होगा यानी बरसात हो या गर्मी ट्रैफिक में उतरे लोगों पर कोई असर नहीं होगा, दूसरा- सड़कों पर ट्रैफिक कम किया जा सकेगा, तीसरा- कम बाधाओं के होने के कारण अंडरग्राउंड सड़कों के जरिए ट्रैफिक की रफ्तार तेज किया जा सकेगा. एलन मस्क तो अंडरग्राउंड सड़कों पर ट्रैफिक की रफ्तार और तेज करने के लिए मेटल के मूविंग प्लेटफॉर्म बनाने की भी सलाह देते हैं.

7. हाइपरलूप ट्रेनें

टेस्ला सीईओ एलॉन मस्क ने पहली बार साल 2012 में हाइपरलूप तकनीक का विचार सामने रखा था. इस तकनीक से ट्रेनों को ट्यूब के अंदर चलाया जाता है और इस कारण स्पीड बहुत तेज रखना संभव हो पाता है बल्कि 1000 किलोमीटर प्रतिघंटे की रफ्तार से ट्यूब के अंदर पॉड दौड़ सकेगी.

आने वाले सालों में भारत समेत कई देशों में ट्रांसपोर्टेशन का सबसे आधुनिक माध्यम हाइपरलूप ट्रेनें बन सकती हैं. हाइपरलूप एक ऐसी तकनीक है जिसकी मदद से दुनिया में कहीं भी लोगों को या वस्तुओं को तेजी से और सुरक्षित पहुंचाया जा सकेगा. इससे पर्यावरण पर भी कम से कम प्रभाव पड़ता है.

हाइपरलूप तकनीक काम कैसे करती है?

हाइपरलूप तकनीक में पॉड या ट्रेनें एक ट्यूब के अंदर प्रेशर टेक्नीक से चलाई जाती है. इसमें पैसेंजर कैप्सूल वैक्यूम ट्यूबों की तरह हवा के दवाब से नहीं चलता है, बल्कि यह दो विद्युत चुम्बकीय मोटर द्वारा चलता है. इसलिए इसकी स्पीड काफी ज्यादा होती है.

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विशेष प्रकार से डिज़ाइन किये गए कैप्सूल या पॉड्स का इस तकनीक में प्रयोग किया जाता है. इनमें यात्रियों को बिठाकर या फिर कार्गो लोड कर के इन कैप्सूल्स या पॉड्स को जमीन के ऊपर पारदर्शी पाइप जो कि काफी बड़े हैं में इलेक्ट्रिकल चुम्बक पर चलाया जाएगा. चुंबकीय प्रभाव से ये पॉड्स ट्रैक से कुछ ऊपर उठ जाएंगे इसी कारण गति ज्यादा हो जाएगी और घर्षण कम होगा.

हाइपरलूप ट्रेनें 1200 से 1300 किलोमीटर प्रति घंटे की रफ्तार से चलती हैं यानी प्लेन से भी तेज. मतलब कुछ घंटों में ही आप दिल्ली से मुंबई और मुंबई से कोलकाता तक की यात्रा कर पाएंगे. प्लान के मुताबिक सबकुछ ठीक रहा तो भारत में भी जल्द ही हाइपरलूप ट्रेनें चलेंगी. महाराष्ट्र में मुंबई से पुणे के लिए सर्विस शुरू करने को लेकर वर्जिन हाइपरलूप कंपनी के साथ डील हुई है. ये सेवा शुरू होने पर मुम्बई से पुणे के बीच की दूरी को 25 मिनट के समय में तय किया जा सकेगा जिसमें अभी ढाई घंटे का समय लगता है.

ट्रांसपोर्टेशन के साधनों में बदलाव क्यों जरूरी?

1. शहरों को बचाना है तो जरूरी है
2. कार्बन उत्सर्जन घटाने का लक्ष्य हासिल करना है तो जरूरी है
3. सड़क हादसों को कम करना है तो जरूरी है
4. सड़कों पर भीड़-भाड़ को कम करने का टारगेट पूरा करना है तो जरूरी है
5. ट्रैवल स्पीड बढ़ाना है तो जरूरी है

दुनिया की बढ़ती आबादी, शहरीकरण, शहरों की भीड़ और क्लाइमेट चेंज की चुनौतियां ऐसे कई कारण हैं जो ट्रांसपोर्ट सिस्टम में बदलाव को जरूरी बना देती हैं और अगर इन समस्याओं से निजात पाना है तो नई टेक्नीक को अपनाना होगा. और ऐसे में दुनिया के सबसे आधुनिक शहरों से सबक लेकर उनकी तकनीक को अपने शहरों की प्लानिंग में शामिल किया जा सकता है.

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