शाम ढल चुकी है. अंधेरा छा चुका है और अब गहराने लगा है. पश्चिम दिशा में भी सूरज की लालिमा कहीं नहीं है और आकाश में सिर उठाकर देखिए तो चंद्रमौलि भगवान शिव की जटाजूट में बिंधा चतुर्थी का चंद्र अपनी शुद्ध धवलता लिए चमचमा रहा है. कल्पना कीजिए दूर कहीं किसी सरोवर में हंसिनी का एक चंचल शिशु अकेला बिछड़ गया है. पहले तो देर तक जल में अठखेलियां करता रहा और जब उसे अपने ही जैसे शुद्ध वर्ण वाले चंद्र देव नजर आए तब उसे घर का ध्यान आया, मां का ध्यान आया. अब वह हंस शिशु बड़ी ही करुणता से अपनी हंसिनी मां को पुकार रहा है.
गणपति वंदना का सबसे सुंदर राग
उसकी पुकार की ध्वनि हम्स... हम्स... हम्स... जैसे शब्द कर रही है. यह रात के दूसरे प्रहर का प्रारंभ है, लेकिन यह प्रारंभ सिर्फ दूसरे प्रहर का नहीं है, रात्रि के गहराने का नहीं है, यह सृष्टि का ही आरंभ है. ब्रह्म की शुरुआत है और यह हंस का हम्स ध्वनि करते हुए गूंजने वाला संनाद ही करुणा का राग हंसध्वनि बन जाता है. इस राग में आदि (यानी शुरुआत) की जो गंभीरता है, बालपन की जो चंचलता है और प्रथमेश की जो अभिव्यक्ति वही इस राग को प्रथम पूज्य गणपति की वंदना के सबसे उचित राग बना देती है.
कर्नाटक संगीत का प्रसिद्ध राग है हंसध्वनि
लिहाजा कर्नाटक संगीत का यह प्रसिद्ध राग हंसध्वनि गणेश पूजा, गणेश वंदना के लिए खासतौर पर गाया बजाया जाता है और इस तरह यह गणेश जी प्रिय तिथि चतुर्थी का भी प्रतिनिधि राग बन जाता है. गाने का समयकाल भी रात्रि के दूसरे प्रहर से चौथे प्रहर तक है. इसीलिए भारतीय शास्त्रीय संगीत में राग हंसध्वनि का खास स्थान है, खासकर जब बात भगवान गणेश की भक्ति से जुड़ी हो.
यह भी संयोग नहीं है कि कर्नाटक संगीत (यानी दक्षिण भारतीय शास्त्रीय संगीत) की दो प्रसिद्ध रचनाएं, जो भगवान गणेश को समर्पित हैं, हंसध्वनि राग में रची गई हैं. एक तो मुथुस्वामी दीक्षितर (संतकवि स्वामी मुथुस्वामी दीक्षित) द्वारा रचित संस्कृत कृति 'वटापि गणपतिम् भजे' और पापनाशम शिवन द्वारा रचित तमिल गीत 'मूलाधार मूर्ति' दोनों ही हंसध्वनि राग में हैं. कर्नाटक संगीत सीखने वाला संगीत का हर विद्यार्थी इन दो रचनाओं की शिक्षा तो लेता ही लेता है. इस तरह राग हंसध्वनि और इसकी सुरलहरियों में सजी भावपूर्ण रचना का महत्व और बढ़ जाता है.
कर्नाटक संगीत का प्रसिद्ध गणपति भजन
यहां यह बता देना जरूरी हो जाता है कि मुथुस्वामी दीक्षित 17वीं-18वीं सदी के दौरान कर्नाटक के प्रसिद्ध संत कवि हुए हैं. उनका जन्म तमिलनाडु के तिरूवरूर (तमिलनाडु राज्य में) में तमिल ब्राह्मण दंपति, रामस्वामी दीक्षित (रागा हम्सधवानी के शोधकर्ता) और सुब्बम्मा के यहां, सबसे बड़े पुत्र के रूप में हुआ था. लिहाजा राग हंसध्वनि (Raga Hamsadhwani) में बचपन से इनकी खास रुचि होना कोई बड़ी बात नहीं थी.
राग हंसध्वनि में समाया जीवन का रहस्य
आज भी कार्नाटक संगीत के लगभग सभी समारोह 'वटापि गणपतिम्' भजने के ही साथ शुरू होते हैं, जो विघ्नहर्ता गणेश को समर्पित एक प्रार्थना है. यह गीत मंगलकारी और कल्याणकारी शुरुआत का प्रतीक है. हंसध्वनि राग का नाम, जिसका अर्थ है "हंस की ध्वनि," भारतीय संस्कृति में गहरे प्रतीकात्मक अर्थों को समेटे हुए है. हंस, जो भारतीय परंपरा में आत्म-रूपांतरण, अंतर्ज्ञान, संवेदनशीलता और आत्मन का प्रतीक है, साथ ही योग और प्राणायाम में भी विशेष महत्व रखता है. प्राणायाम में हंस का अर्थ है प्राण, यानी जीवन की सांस. श्वास लेते समय 'हम्' और छोड़ते समय 'स:' की ध्वनि होती है. इस तरह, हंसध्वनि राग में गणेश भक्ति का यह संनाद जीवन की सांस और आध्यात्मिक जागृति का प्रतीक बन जाता है.
इस तरह यह राग बताता है कि गणेश ही जीवन और प्राण की शुरुआत है. इस राग की विशेषता कुछ ऐसी है कि पहले तो यह अपने मंद्र आलापों के जरिए एक काल्पनिक (जिसे अध्यात्म माया कहता है) संसार रचता है और फिर इसकी तेज तानें ऐसी लगती हैं कि माया के तमाम जड़ता वाले बंधन कटते-छंटते जा रहे हैं. फिर आत्मा का हंस मुक्त हो जाता है और स्वतंत्र हो जाता है. यही गणपति का कार्य भी है, ज्ञान की राह में आने वाली हर बाधा को काटदेना, ताकि आत्मा, चेतना से मिलकर ब्रह्म से एकाकार कर सके.
रात का दूसरा प्रहर और चतुर्थी का चंद्रमा
सूर्यास्त के बाद, जब अंधकार पूरी तरह घिर जाता है, तब हंसध्वनि के गाने का समय होता है. चतुर्थी का चंद्रमा धीरे-धीरे आकाश में प्रकट होता है, और इस शुभ शुरुआत को शब्द देता है राग हंसध्वनि, जो जीवन के उत्साह और उमंग को व्यक्त करता है.
कार्नाटक संगीत की महान गायिका एम.एस. सुब्बुलक्ष्मी की 'वटापि गणपतिम्' की प्रस्तुति को सुनना अपने आप में एक दैवीय अनुपम अनुभव है. उनकी गायकी में हंसध्वनि की ध्वनियां संयमित आनंद और व्यापकता के साथ पंख फैलाती हैं, जो इस राग की भव्यता को और आकार देती हैं. पूर्णता देती हैं. वहीं, डॉ. एम बालामुरीकृष्णन की गहरी आवाज में यह रचना एक अलग ही अनुभव देती हैं. उनकी प्रस्तुति में ऐसा लगता है कि हंस छोटे-छोटे कदमों से तट की ओर चल पड़ा है, फिर पंख फड़फड़ाता है, और धीरे-धीरे अकेली ही पूरी उड़ान भर लेता है. कबीर कहते हैं न 'उड़ जाएगा हंस अकेला' कुछ-कुछ वैसा ही आनंद वैसा ही रागअनुभव उनकी गायकी में जगह पाता है.
कैसे पड़ा राग हंसध्वनि नाम
राग हंसध्वनि में गणेश भक्ति की रचनाएं सुनना एक गहन आध्यात्मिक रहस्य की ओर ले जाता है. हंस, जो जल की सतह पर तैरता है, लेकिन उससे बंधा नहीं है, और आकाश में उड़ान भरने में भी उतना ही सहज है. यह प्राणियों की द्वैत प्रकृति का प्रतीक है. एक पौराणिक कथा है कि महर्षि मार्कंडेय ने महाकाल रूपी शिव को पा तो लिया, लेकिन सत्य का मर्म नहीं समझ सके. तब एक दिन वह यूं ही नदी तट पर ध्यान में बैठे थे. इसी दौरान हंस की ध्वनि, 'हम्स, हम्स,' सुनते हुए महर्षि मार्कंडेय के हृदय में सत्य का मर्म प्रकट हुआ है. इस ध्वनि में बार-बार सुनने से 'स:हम्, स:हम्' सुनाई देने लगा, जिसका अर्थ है, "मैं यह हूं." यहां 'स:' का अर्थ है 'यह,' यानी परम चेतना, और 'हम्' का अर्थ है 'मैं,' यानी सीमित चेतना वाला मानव. ऋषि को हंस की ध्वनि से आत्मा और परमात्मा की सत्ता का ज्ञान हुआ इसलिए राग हंसध्वनि आत्म चेतना का राग कहलाया.
हंसध्वनि में गणेश भक्ति की कृतियां और 'गणपति गीत' सुनना हमें हमारी संस्कृति में निहित संभावनाओं की ओर ले जाता है. हंसध्वनि राग और गणेश भक्ति का यह संगम आत्म-जागृति, भक्ति और जीवन की गहन समझ की कहानी है. यह न केवल एक संगीतमय अनुभव है, बल्कि एक आध्यात्मिक यात्रा भी है, जो हमें अपनी उच्च चेतना से जोड़ती है.
राग हंसध्वनि का परिचय
राग हंसध्वनि भले ही कनार्टक पद्धति का राग है, लेकिन अब यह उत्तर भारत मे भी काफी प्रचलित है. इसके थाट के विषय में दो मत हैं कुछ विद्वान इसे बिलावल थाट तो कुछ कल्याण थाट से निकला हुआ मानते हैं. इस राग में मध्यम तथा धैवत स्वर वर्जित हैं. ऐसे में इसकी जाति औडव-औडव मानी जाती है. सभी शुद्ध स्वरों के प्रयोग के साथ ही पंचम रिषभ, रिषभ निषाद और षडज पंचम की स्वर संगतियां बार-बार गायन में आती हैं. इसका निकटवर्ती और समान ध्वनि जैसा राग है, राग शंकरा.
आरोह-सा रे, ग प नि सां
अवरोह-सां नि प ग रे, ग रे, नि (मन्द्र) प (मन्द्र) सा।
पकड़-नि प ग रे, रे ग प रे सा