नवरात्रि, जन्माष्टमी, रामनवमी, गणेश पूजा और हनुमान जयंती... त्योहारों के नाम लेते जाइए और ईष्ट के अलग-अलग स्वरूपों को देखते जाइए. अवतारवाद के विषयों पर जो भी त्योहार हैं, उनमें एक बात कॉ़मन दिखती है कि यहां ईष्ट की मान्यता उनके बालस्वरूप में अधिक है. देवी दुर्गा का स्वरूप 9 वर्ष तक की कन्याएं मानी जाती हैं. जन्माष्टमी पर लड्डू गोपाल की मान्यता अधिक है, रामनवमी पर रामलला का वंदन होता दिखता है, गणेश पूजा पर बाल गणपति याद किए जाते हैं और हनुमान जयंती पर बाल हनुमान...
देवताओं की मान्यता बालरूप में ही क्यों?
सवाल उठता है कि सभी देवताओं की मान्यता बाल रूप में ही अधिक क्यों है? इस प्रश्न का उत्तर मार्कंडेय पुराण में मिलता है. इस पुराण में ईश्वर के स्वरूप को एक प्रकार की सिद्धि बताया गया है, जिसे ईशत्व कहते हैं. यह आठ सिद्धियों में से एक है, और सातवें स्थान पर है. इस सिद्धि के मिल जाने से व्यक्ति ईश्वर के जैसा हो जाता है.
लेकिन, ईश्वर बनने के लिए ईशत्व की ही प्राप्ति काफी नहीं है. इसके लिए सबसे जरूरी तथ्य है निश्छलता. जिसका हृदय जितना अधिक निश्छल है ईशत्व की सिद्धि उसके पास ही ठहर सकती है. यह निश्छलता सिर्फ बचपन में ही रहती है. बचपन हमेशा छल, छद्न, राग-द्वेष और मोह से दूर रहता है, साथ ही बच्चे सभी से एक समान-एक जैसा प्यार करते हैं. इसलिए भी देवताओं के बालस्वरूप का बहुत महत्व बताया जाता है. वहीं उनकी कल्पना भी बालरूप में की जाती है.
दैव शक्तियों ने बालरूप में ही किए बड़े-बड़े कार्य
इसके पीछे जो एक और जिम्मेदार कारण है, वह है पुराण कथाओं में जिस तरह ईश्वरीय बचपन को सामने रखा गया है वह बड़े पैमाने पर जनमानस पर असर डालता है. जैसे देवी दुर्गा ने महिषासुर को एक कुंआरी कन्या के रूप में चुनौती दी थी. भगवान राम ने अपने बालपन में कागभुशुंडि को ब्रह्मांड का चक्कर लगवा दिया था. श्रीकृष्ण की बाललीलाएं तो सबसे अधिक सहज-सरल और प्रसिद्ध हैं. गणेशजी ने बालरूप में ही शिवजी को चुनौती दी थी. वह बालरूप में ही परशुराम से लड़े थे और बालरूप में ही उन्होंने रावण का रास्ता रोका था. हनुमान जी ने बालरूप में सूर्य देव को खा लिया था. बालपन में हुई ये सारी घटनाएं ही देवी-देवताओं के बाल स्वरूप को श्रद्धालुओं के मन में जगह बनाती हैं.

इसी तरह नवरात्रि के मौके पर कन्या पूजन का विधान है. इस दौरान दो वर्ष से 9 वर्ष तक की कन्याओं का पूजन किया जाता है. उनके पांव पखारे जाते हैं. रोली-अक्षत और तिलक करके उन्हें आसन देते हैं और फिर कन्या देवी को हलवा-पूड़ी का भोजन कराया जाता है जो कि देवी का ही प्रसाद होता है. कन्याओं की इस पूजा की शुरुआत कहां से हुई और किसने पहली बार कन्या पूजन किया? ये एक बड़ा प्रश्न है.
मार्कंडेय पुराण में कन्या पूजन का जिक्र बड़े ही विस्तार से आता है. इस पुराण के अनुसार, देवी दुर्गा ने अपने बाल रूप में प्रकट होकर उन दानवों का संहार किया जो देवताओं और मानवता को खतरे में डाल रहे थे. यही कारण है कि कन्याओं की पूजा को देवी दुर्गा की पूजा के रूप में देखा जाता है. प्राचीन परंपराओं में, संतों और ऋषियों ने भी हर महिला और लड़की में विद्यमान दिव्य ऊर्जा (शक्ति) को पहचाना. बच्चों के रूप में इस दिव्य शक्ति का सम्मान करके, उन्होंने महिलाओं के प्रति सम्मान पर जोर दिया, जो सृष्टिकर्ता, पालनकर्ता और रक्षक के रूप में हैं. कन्या पूजा की यह प्रथा युगों से चली आ रही है, जो मंदिरों की रस्मों से विकसित होकर घरेलू उत्सवों में बदल गई है, जहां परिवार युवा लड़कियों को आमंत्रित करते हैं, उनकी पूजा करते हैं और भोजन तथा उपहार अर्पित करते हैं.
कात्यायन ऋषि से जुड़ी है कथा
देवी भागवत पुराण में जिक्र आता है कि कात्य वंश के ऋषि थे कात्यायन. ऋषि ने देवी भगवती के मंत्र को सिद्ध किया था, तब देवी ने प्रकट होकर उनसे उनकी पुत्री के रूप में जन्म लेने की मांग की थी. समय आने पर देवी ने उनके वंश में उनकी पुत्री के रूप में जन्म लिया और कात्यायनी कहलाईं. देवी कात्यायनी उसी सर्वशक्ति का अंश है जिसे देवताओं ने महिषासुर के अत्याचार के विरोध में प्रकट किया था.
महिषासुर को वरदान था कि वह कुंआरी कन्या के हाथ से मारा जाएगा. इसलिए वह खुद को अमर समझता था. तब देवी ने कात्यायन गोत्र में जन्म लेकर बालरूप में ही असुर का अंत किया. ऋषि कात्यायन इस बात को जानते थे कि उनके घर जन्मी पुत्री कौन है, इसलिए उन्होंने कात्यायनी देवी के जन्म पर उनकी पूजा की थी, जब देवी ने असुरों के खिलाफ अपना अभियान शुरू किया, तब भी ऋषि कात्यायन ने उन्हें देवी का स्वरूप मानकर उनकी पूजा की. उन्होंने देवी को मधुपर्क (दही और शहद का शरबत) पिलाया, गन्ने का रस पीने को दिया और सात्विक भोजन देकर युद्ध के लिए विदा किया, तबसे यही देवी का सात्विक स्वरूप में प्रमुख आहार बन गया. इसलिए देवी की कन्यारूप में पूजन के दौरान उन्हें भोजन कराया जाता है.

कन्या पूजा की शुरुआत 14वीं सदी के आसपास हुई
देवी के कन्या पूजन का यही पौराणिक आधार है. हालांकि देवी के कन्या पूजन की शुरुआत 14वीं से 16वीं सदी के दौरान से मानी जा सकती है. इस दौर तक माता वैष्णों देवी की गुफा खोज ली गई थी और वहां तीर्थयात्रियों का जाना शुरू हो चुका था. इस दौरान उनकी कथाएं भी काफी प्रसिद्ध हुईं, जिसमें सबसे अधिक ये प्रचलित हुआ कि देवी कुंआरी हैं और अपने स्वामी के तौर श्रीराम की प्रतीक्षा कर रही हैं. कलियुग में कल्कि अवतार के समय वह श्रीराम की पत्नी बनेंगीं. ऐसा आश्वासन श्रीराम ने भी उन्हें दिया था.
वहीं, विष्णु धर्मेत्तर साहित्य और पुराण में वैष्णों देवी का जिक्र विष्णु की ही शक्ति वैष्णवी के रूप में मिलता है. उनका संबंध लक्ष्मी से भी जोड़ा जाता है, जो धन की देवी हैं और विष्णु जी की पत्नी भी. वह सप्तमातृ का देवियों में से एक हैं, जिन्हें देवी दुर्गा की ही एक शक्ति माना जाता है.
उनके जन्म के विषय में कथा आती है कि समुद्र मंथन के दौरान देवी लक्ष्मी सागर में विलुप्त हो गई थीं. इस दौरान समुद्र ने उन्हें अपनी बेटी की तरह रखा और खूब मान-सम्मान दिया. जब सागर मंथन के दौरान लक्ष्मी भी 14 निधियों में से एक बनकर जाने वाली हैं, तब राजा रत्नाकर और उनकी पत्नी विजया, जिन्हें समृद्धि भी कहते हैं, वह दोनों दुखी हो गए. तब उन्होंने देवी से पुत्री बनकर जन्म लेने की प्रार्थना की. देवी ने उन्हें अपना स्वरूप बताया और कहा कि वह आदिशक्ति हैं, और अजन्मा हैं. वह सिर्फ एक ऊर्जा हैं, जो समस्त प्राणियों में विद्यमान है. जब राजा-रानी ने बहुत प्रार्थना की तब देवी ने उन्हें अपनी अनन्य भक्ति दी और अपने दिव्य नौ कन्या स्वरूपों का दर्शन दिया. देवी ने इन कन्याओं के पूजन का महत्व बताया और फिर अंतर्धान हो गईं.
देवी के नाम नौ स्वरूप नौ देवियों का प्रतिनिधित्व करते हैं और कन्या पूजा में आई कन्याओं को इन्हीं देवियों का रूप माना जाता है. ये नौ नाम देवी की 9 महाशक्तियों के नाम से अलग हैं. ये सभी देवी के बाल स्वरूप हैं.
कुमारिका
त्रिमूर्ति
कल्याणी
रोहिणी
काली
चंडिका
शांभवी
दुर्गा
सुभद्रा
राजा रत्नाकर ने पत्नी सहित किया था कन्या पूजन
राजा रत्नाकर ने पत्नी सहित देवी के इन नौ रूपों की पूजा की और नौ कन्याओं को बुलाकर कन्या भोज कराने लगे. इस तरह पौराणिक आधार पर राजा रत्नाकर वह पहले व्यक्ति हैं, जिन्होंने कन्या पूजन और कन्या भोज किया था. देवी प्रसन्न हुईं और कन्या रूप में उनके घर जन्म लिया. विष्णु प्रिया और उनकी शक्ति होने के कारण कन्या का नाम वैष्णवी रखा गया. यही देवी वैष्णवी आगे चलकर वैष्णों माता कहलाई.
माता वैष्णों अखंड कुंआरी कन्या रूप की देवी हैं. वह उमा-पार्वती के बजाय देवी लक्ष्मी का प्रतिनिधित्व करती हैं और जम्मू के जिस त्रिकूट पर्वत तीन पिंडी के स्वरूप में वह विराजमान हैं, महालक्ष्मी पिंडी ही देवी का स्वरूप है. बाकी महासरस्वती और महाकाली उनकी दो शक्तियां हैं.
वैष्णों देवी के एक और भक्त हुए श्रीधर पंडित. उनका काल अधिकतम 700 से 800 साल पहले का है. कहते हैं कि देवी ने कन्या स्वरूप में उन्हें दर्शन देकर कन्या भोज कराने के लिए कहा था. भक्त श्रीधर ने कन्याओं को बुलाकर भोज कराया. ये सभी कन्याएं दिव्य थीं और उन्होंने आदेश दिया कि भक्त श्रीधर विशाल भंडारे का आयोजन करें. जिसमें दूर-दूर से लोग आएं. इसी भंडारे में नागपंथी अहंकारी साधु भैरोंनाथ भी पहुंचे, जिन्होंने सिर्फ माता की असली शक्ति को पहचानने के लिए बार-बार उन्हें चुनौती दी. तब माता ने उन्हें पहले तो खूब भगाया फिर अंत में अपने भवन तक ले गईं. वहां उन्होंने भैरों नाथ का वध कर दिया.
इधर, कन्या जिस-जिस रास्ते से भवन तक गई थी, श्रीधर पंडित उसी रास्ते को खोजते हुए मां के भवन पहुंचे और इस तरह देवी की तीर्थयात्रा शुरू हो गई. मान्यता है कि श्रीधर पंडित ने आधुनिक युग में पहली बार कन्या पूजन किया, जिसने धीरे-धीरे प्रसिद्धि पा ली और नवरात्रि के मौके पर, देवी लक्ष्मी की खास पूजा के दौरान, किसी देवी तीर्थ स्थल से लौटने पर कन्या पूजन और कन्या भोजन का रिवाज शुरू हो गया है.

राजस्थान और महाराष्ट्र में भी कन्या पूजन
कन्या पूजन की ऐसी ही कहानी है राजस्थान के प्रसिद्ध देवी तीर्थ कैला देवी से भी जुड़ी है. यहां भी देवी की मान्यता कन्या रूप में है और मंदिर परिसर में ही कन्या पूजन किया जाता है. महाराष्ट्र के तुलजा भवानी मंदिर में भी देवी को कन्या स्वरूप में ही माना जाता है. क्योंकि देवी ने अपनी जन्मदात्री मां की रक्षा के लिए कन्या रूप में ही अपनी शक्ति प्रकट की थी.
सिर्फ स्त्रीलिंग की पहचान का शब्द नहीं है कन्या
असल में कन्या सिर्फ एक स्त्रीलिंग की पहचान भर का शब्द नहीं है. ये एक ऊर्जा का स्वरूप है. 'कन्या' शब्द की उत्पत्ति संस्कृत धातु 'कन' से हुई है, जिसका अर्थ 'दीप्त होना' या 'चमकना' है, और इससे 'कन्या' शब्द निकला है जिसका अर्थ युवा या कुमारी है. यह शब्द संस्कृत से हिंदी सहित कई भारतीय भाषाओं में आया है, और इसका उपयोग देवी-देवताओं से जुड़ी युवा महिलाओं, और ज्योतिष में कन्या राशि के लिए भी किया जाता है. ऊर्जा का आधार दैवीय रूप में स्त्री तत्व के रूप में होने के कारण कन्या को शक्ति का आधार माना गया है.
अब यहां एक रोचक जानकारी भी देते हैं. महिषासुर ने जब वरदान मांगा कि उसका वध कन्या के हाथों हो, तब उसके साथ एक तरीके से वर्डप्ले किया गया था. उसने कन्या का अर्थ सिर्फ बालिका समझा, जबकि संस्कृत में कन्या का अर्थ शक्ति का आधार भी होता है. इसलिए उसकी इच्छा के अनुसार उसका वध शक्ति स्वरूपा के हाथों ही हुआ, लेकिन इसके लिए भगवती जो कि इसके पहले तक निराकार स्वरूप में थीं, उन्हें साकार स्वरूप में आना पड़ा. यही कन्या पूजन की वजह है.