रामकथा की धारा में आगे बढ़ते चलें तो जब मेघनाद का जिक्र आता है वहां पर तंत्र-मंत्र का शास्त्र भी जुड़ जाता है. रावण महापंडित था, लेकिन मेघनाद बहुत बड़ा तांत्रिक था. वह कई तरह की गुप्त विद्या जानता था और मारण, वशीकरण, सम्मोहन, इंद्रजाल, मायामोहिनी, त्राटक जैसी विद्या उसके लिए सामान्य थी. शुक्राचार्य की सहायता से उसने देवी निकुंभला (निकुंबला) को प्रसन्न किया था और उनकी कृपा थी.
लक्ष्मण के साथ आखिरी युद्ध से पहले मेघनाद, देवी निकुंभला का ही मायायज्ञ कर रहा था, जिसे वानरों के साथ मिलकर लक्ष्मण ने भंग कर दिया था. इससे देवी का यज्ञ पूर्ण नहीं हुआ था और मेघनाद मारा गया था. निकुंभला देवी की मान्यता दक्षिण भारत में अधिक है. उन्हें तंत्र की देवी के साथ-साथ रक्षिका देवी में भी गिना जाता है. हालांकि उत्तर भारत में उनकी मौजूदगी लोक परिचित नहीं है, फिर भी कुछ स्थान ऐसे हैं जहां देवी का पूजन होता है.
देवी नारसिंही का अल्मोड़ा में मंदिर
निकुंभला देवी का एक मंदिर देवभूमि उत्तराखंड के अल्मोड़ा जिले में मौजूद है, यहां इन्हें मां नारसिंही के नाम से जाना जाता है. कुमाऊं के प्रसिद्ध इतिहासकार बद्रीदत्त पांडेय की प्रसिद्ध पुस्तक ,”कुमाऊं का इतिहास ” में दर्ज है कि, अल्मोड़ा का यह प्रसिद्ध देवी मंदिर चंदवंशीय राजा देवीचंद ने बनवाया था. वहीं वर्तमान में भी यहां स्थानीय लोग पूजा – पाठ कथा पुराण आदि इस मंदिर में समय समय पर आयोजित करते रहते हैं. साथ ही स्थानीय लोग मां नारसिंही देवी के दर्शार्थ यहां आते रहते हैं.
दरअसल अल्मोड़ा जिले में गोलुछीना की घाटी में गल्ली बस्यूरा की तलहटी में बसा, माता के इस मंदिर के दोनों तरफ छोटी नदियां बहती हैं. ये यहां एक अतुलनीय रमणीक वातावरण का निर्माण करती हैं.
नारसिंही देवी का ही एक नाम प्रत्यंगिरा देवी भी है. इन्हें ही निकुंभला देवी के नाम से भी जाना जाता है. दशानन रावण की कुल देवी भी प्रत्यंगिरा देवी थीं. इनका सिर शेर का और बाकी शरीर नारी का है. प्रत्यंगिरा देवी शक्ति स्वरूपा देवी हैं. यह देवी विष्णु ,शिव, दुर्गा का एकीकृत रूप है.
भक्त प्रह्लाद की कथा में देवी प्रत्यंगिरा का अस्तित्व
देवी प्रत्यिंगरा का अस्तित्व भक्त प्रह्लाद की कथा से सामने आता है. जब नृसिंह अवतार के बाद भी भगवान विष्णु का क्रोध शांत नहीं हुआ तब शिवजी ने शरभ अवतार लेकर उन्हें नियंत्रित करने की कोशिश की. इससे नृसिंह अवतार विष्णु शरभ अवतार शिव से हारने लगे. इस हार ने उनके गुस्से को और बढ़ा दिया और वह दो मुख वाले गरुड़ अवतार में आ गए, जिसे तंत्र में गंडभेरुंड कहा गया है. गंडभेरुंड और शरभ के बीच चल रही इस लड़ाई से धरती पर असंतुलन शुरू हो गया.
यहीं से शुरुआत हुई एक और नए अवतार की. देवी लक्ष्मी दूर खड़ी यह सब देख रही थीं. देवी लक्ष्मी को पुराणों में माया कहा गया है. पार्वती, दुर्गा, सरस्वती इसी माया के अलग-अलग नाम हैं. बल्कि देवी भागवत पुराण और विष्णु धर्मेत्तर साहित्य ऐसा मानता है कि त्रिदेव भी देवी के ही अधीन हैं. देवी लक्ष्मी ने अपनी आत्मिक तीनों शक्तियों (दुर्गा और सरस्वती) को खुद में समाहित किया.
फिर उन्होंने रुद्र और विष्णु की चेतना शक्ति को भी समाहित किया. ऐसा होते-होते देवी लक्ष्मी का पूरा शरीर अग्नि की तरह दहकने लगा और उनकी मुखाकृति बदलने लगी. पहले वह सौम्य से भयानक हुई और देखते-देखते देवी का चेहरा किसी शेरनी में बदल गया. उनका शरीर स्त्री का रहा, लेकिन हाथ शेर के पंजों की तरह हो गए. पूंछ सर्प की तरह हो गई, पंख गरुड़ की तरह हो गए. वह एक ही बार में नरसिंही, शिवानी, वैष्णवी, रुद्राणी का सम्मिलित अवतार हो गईं.
कैसा है देवी प्रत्यंगिरा का स्वरूप?
देवी के इस स्वरूप के प्रत्यंगिरा कहा गया है. देवी ने इस भयंकर अवतार को धारण करके अपना स्वरूप विस्तार किया और आकाश तक पहुंच गईं. उनका यह अवतार भगवान शिव के शरभ और विष्णुजी के नरसिंह अवतार से ही मिलता-जुलता था, लेकिन इसमें उन दोनों अवतारों (नरसिंह व गंडभेरुंड) की शक्तियां भी समाई हुई थीं. प्रत्यंगिरा देवी का रूप धारण करके देवी लक्ष्मी जो आदिशक्ति भी हैं, शरभ और गंडभेरुंड को नियंत्रित किया. उन्होंने ऐसी हुंकार भरी कि शरभ और गंडभेरुंड दोनों ही भयभीत हो गए और लड़ना छोड़ दिया. तब देवी ने दोनों को अपने एक-एक हाथ में पकड़ा और धरती पर ले आईं. देवी के संपर्क में आने से शिवजी और विष्णु जी की चेतना वापस आ गई और दोनों ही अपने असली स्वरूप में आ गए. इस प्रकार इन दोनों का युद्ध समाप्त हुआ.
इन्हीं देवी प्रत्यंगिरा की उपासना ब्रह्मा के प्रथम मानस पुत्रों ने की. इस तरह देवी विश्रवाकुल के ब्राह्मणों की पूज्यनीय देवी बन गईं. देवी कालीकुल परंपरा में उग्र देवी के तौर पर शामिल हैं. वह 64 योगिनियों में से भी एक हैं और सप्त भैरवी में भी शामिल हैं.