हिंदी फिल्मों में तमाम किस्सों-कहानियों, नायकों-नायिकाओं और खलनायकों के बीच एक किरदार ऐसा रहा है, जिसने कई दफा फिल्मी कथानक को अपने मजबूत कंधे का सहारा देकर आगे बढ़ाया है. कई बार ऐसा हुआ कि इस किरदार कि स्क्रीन प्रेजेंस बहुत लंबी नहीं रही है, इन्हें संवाद भी बहुत अधिक नहीं मिला, अभिनय की दुनिया में जलवा बिखेर दें, ऐसा भी नहीं था, लेकिन जो भी था और जितना भी मौका मिला इस किरदार ने न सिर्फ कहानी को गढ़ा, बल्कि हिंदी फिल्मों के 'हीरो' को हीरो बनाने में पूरी भूमिका भी अदा की है.
सिनेमा में ममतामयी मां
साहित्यकार प्रेमचंद अपनी 'ईदगाह' कहानी में जिस मौन-मूक और ठोस प्रेम का जिक्र करते हैं, सिनेमा के रुपहले पर्दे पर यही मौन-मूक और ठोस प्रेम 'मां' बनकर छाया रहा. श्वेत-श्याम के दौर से लेकर आज की रंगीनियत तक यह किरदार ऐसा छाया हुआ है कि अब तो मेन स्ट्रीम की अभिनेत्रियां भी 'मां' के इस विविध आयाम वाले चरित्र को निभाने से नहीं चूक रही हैं. जबकि एक जमाने में यह किरदार भले ही स्क्रीन पर कितना ही 'पवित्र रिश्ता' सा रहा हो, अभिनेत्रियों ने इसे निभाने के लिए एक उम्र का इंतजार किया.
श्रीदेवी, काजोल, ऐश्वर्या रॉय, रानी मुखर्जी, विद्या बालन ये सभी सिनेमा के नए दौर की 'मां' के तौर पर हमारे सामने हैं, लेकिन एक वक्त था जब हिंदी सिनेमा 'मां' के इस विविध आयामी चरित्र में हमारे पास इसी किरदार के तौर पर अमर अभिनेत्रियों की एक पूरी सूची रही है. बीते शुक्रवार राजधानी स्थित इंडिया हैबिटेट सेंटर में मौजूद अमलतास (द थिएटर) सभागार हिंदी सिनेमा की इसी ममतामयी मूर्तियों की कहानियों का साक्षी बना. 'मेरे पास मां है' नाम से हुए इस खास आयोजन के जरिए एक शाम 'मां' के नाम रही.
जीवंत हो उठा ललिता पवार, दुर्गा खोटे, अचला सचदेव का फिल्मी सफर
वरिष्ठ नागरिक दिवस के मौके पर कात्यायनी और थ्री आर्ट्स क्लब की ओर से आयोजित कहानी कहने की खास परंपरा में 'मां' विषय को चुना गया. यह शाम उन अद्भुत अभिनेत्रियों को समर्पित रही जिन्होंने हिन्दी सिनेमा में मां की छवि को अमर किया. अचला सचदेव, दुर्गा खोटे, ललिता पवार, लीला चिटनिस, लीला मिश्रा और निरुपा रॉय की इस कहानी और कलात्मक सफर को सुनाने का जिम्मा उठाया, राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय की पूर्व निदेशक अनुराधा कपूर और प्रसिद्ध लेखिका, नाट्यकार, निर्देशक अभिनेत्री सोहेला कपूर ने.
सफर की शुरुआत हुई पचास के दशक से और इस दौरान हिंदी सिनेमा की 'मां' सिर्फ मां ही नहीं बल्कि अलग-अलग किरदारों में भी नजर आईं. जैसे अभिनेत्री दुर्गा खोटे को ही लें, आज जमाना भले ही उन्हें फिल्म मुगल-ए-आजम में शहजादे सलीम की मां महारानी जोधा के तौर पर पहचानता है, लेकिन उनका सफर न यहां से शुरू हुआ और न ही इतना भर रहा. बल्कि उनके करियर की तमाम फिल्में मुख्य अभिनेत्री की भूमिका वाली रहीं.

साल 1934 में उन्होंने ईस्ट इंडिया फिल्म कंपनी से निर्मित फिल्म बनी 'सीता'. इसमें दुर्गा खोटे ने सीता की मुख्य भूमिका निभाई थी. फिल्म दूसरे वेनिस इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल में प्रदर्शित हुई और सम्मानित भी हुई.
इसी तरह अचला सचदेव को कौन नहीं जानता. एक समय बाल कलाकार के तौर पर फिल्मों में अपनी भोली-चुलबुली भूमिकाओं से रिझाने वाली अचला ने वक्त के साथ ऐसा कदमताल किया, कि आज 'वक्त' फिल्म में निभाई गई उनकी मां की भूमिका भुलाए नहीं भूलती. इसी के साथ सभागार में गूंज उठा, वही आइकॉनिक Song,
ऐ मेरी ज़ोहरा ज़बीं, तुझे मालूम नहीं
तू अभी तक है हंसीं और मैं जवां
तुझपे क़ुरबान मेरी जान मेरी जान
ये शोखियां ये बांकापन
जो तुझमें है कहीं नहीं
ये शोखियां ये बांकापन
जो तुझमें है कहीं नहीं
दिलों को जीतने का फन
जो तुझमें है कहीं नहीं
कहानी आगे बढ़ी, माताओं के अभिनय का सिलसिला जारी रहा और ये माताएं कभी नायिकाएं, कभी पथप्रदर्शक बनकर सामने आती रहीं और हमेशा असाधारण प्रतिभा की मिसाल रहीं. किस्सा सुनने के शौकीन सुनने वाले इन गीतों के रस से पगे किस्सों में डूबते-इतराते रहे और विभोर होते रहे.
मां सिर्फ ममतामयी ही नहीं रही, अभिनय की इस परंपरा में मां के किरदार में कई और रूप भी निखरकर आए हैं. इन सबके बीच 'मंथरा मां' को कैसे भूल सकते हैं. मंथरा मां यानी टीवी के सबसे अमर शो, रामायण की मंथरा, यानी ललिता पवार.
दिलचस्प है ललिता पवार की कहानी
ललिता पवार की कहानी तो बेहद दिलचस्प रही, जिसे लोगों को गुदगुदाने और सोचने पर भी मजबूर कर दिया. उनके जन्म का नाम तो अंबा लक्ष्मण राव था, लेकिन हुआ यूं कि एक समय था कि फिल्म में सभी को क्रेडिट्स नहीं दिए जाते थे. जिनके नाम आते भी थे तो छद्म और गुप्त नाम आते थे. ललिता पवार ने ही ये किस्सा बताया था. हर नई फिल्म के साथ एक नया नाम अदाकारा को मिल जाता था. उस वक्त मेरे कम से कम सैकड़ों नाम हो गए थे. फिर जब मैंने (ललिता पवार) ने अपनी खुद की फिल्म (दुनिया क्या है) प्रोड्यूस की तब पहली बार अपना खुद का नाम दिया ललिता पवार. इस तरह ललिता नाम उनकी पहचान बन गया और इस नाम से उन्होंने कम से कम 700 फिल्में की और गिनीज बुक ऑफ वर्ल़्ड रिकॉर्ड में नाम दर्ज कराया.
घराना फिल्म का एक गीत ललिता पवार की मां नहीं बल्कि 'दादी मां' के तौर पर पहचान कराता है. ये गीत अभी तक बच्चों की जुबान पर रहने वाला पीढ़ियों से चला आ रहा बालगीत है.
दादी अम्मा दादी अम्मा मान जाओ
दादी अम्मा दादी अम्मा मान जाओ
छोड़ो जी ये गुस्सा ज़रा हँस के दिखाओ
दादी अम्मा दादी अम्मा मान जाओ
छोटी-छोटी बातों पे न बिगड़ा करो
गुस्सा हो तो ठंडा पानी पी लिया करो
खाली-पीली अपना कलेजा न जलाओ
दादी अम्मा दादी अम्मा…
इस तरह कहानियों का सिलसिला चलते हुए आज के दौर में फिल्मों में मां और दादी-नानी के किरदारों को जीवंत करने वाली अदाकार 'कमलेश गिल' तक पहुंचा. कमलेश गिल के अभिनय की खासियत है कि बतौर मां उनकी भली लगने वाली बुजुर्गियत बिल्कुल हमारे-आपके घरों की बुजुर्ग की परछायीं सी होती हैं. उनके घुटने का दर्द, उनकी दवाइयों की गोलियां, उनकी सीख, उनकी डांट और उनका खांटी प्यार.
हालांकि स्वास्थ्य कारणों से वह इस शानदार स्टोरी टेलिंग शो में मौजूद नहीं रहीं. वह वरिष्ठ कलाकार और थ्री आर्ट्स क्लब की सदस्य भी हैं, इस मौके पर उनकी बेटी दीपिका शेरगिल ने भी मां के फिल्मी सफर की अनसुनी बातें शेयर कीं. इसे सुनकर दर्शक भावुक हो उठे और तालियों से उनका स्वागत किया.
'मेरे पास मां है'
इसके पहले सिनेमा की दो 'माताएं' निरुपा रॉय और राखी को नहीं भूला जा सकता. राजा और रंक फिल्म में उनकी मां की भूमिका और उनपर फिल्माया भावुक गीत 'तू कितनी अच्छी है, तू कितनी भोली है, प्यारी-प्यारी है, ओ मां. ओ मां...' आज भी लोगों के जेहन में बसता है. इसी कड़ी में उनकी दीवार फिल्म का मशहूर सीन भी सामने रखा गया और जब यह डॉयलॉग आया 'मेरे पास मां है' तो दर्शकों ने अपने-अपने अंदाज में इसे दोहराया भी.
इसी तरह करन-अर्जुन का ऑइकॉनिक डॉयलाग, 'मेरे करन-अर्जुन आएंगे.' को भी लोगो ने याद किया और सराहा भी. इस तरह यह खास शाम मां की ममता, शक्ति और सिनेमा की कालजयी छवियों को समर्पित रही. कात्यायनी और 1943 से सक्रिय दिल्ली के प्रतिष्ठित रंगमंच समूह थ्री आर्ट्स क्लब की यह संयुक्त प्रस्तुति, सोहेला कपूर और अनुराधा दर की रचनात्मक जुगलबंदी का एक और खूबसूरत अध्याय बनकर यादों में दर्ज हो गई.