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छठ महापर्व: सूर्य पूजा और लोक आस्था का चार दिवसीय व्रत आज से, वेदों से लेकर रामायण-महाभारत के जरिए विकसित हुई परंपरा

छठ महापर्व चार दिवसीय लोकपर्व है जो सूर्य पूजा, प्रकृति संरक्षण और ऋतु परिवर्तन से जुड़ा है. इसका इतिहास वेदों और पौराणिक कथाओं से जुड़ा है, जिसमें सूर्य देव की उपासना और छठी माता की पूजा शामिल है. यह पर्व बिहार, उत्तर प्रदेश, बंगाल और नेपाल में विशेष रूप से मनाया जाता है.

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छठ पूजा का जिक्र रामायण से लेकर महाभारत तक में मिलता है
छठ पूजा का जिक्र रामायण से लेकर महाभारत तक में मिलता है

प्रकृति की पूजा और आस्था के लोकपर्व छठ महापर्व की शुरुआत आज से हो रही है. चार दिवसीय यह पर्व प्रकृति को दैवीय सम्मान, परिवेश की स्वच्छता, नदी या जल स्त्रोत के महत्व और ऋतु परिवर्तन से जुड़ा हुआ है. 

कब से शुरू हुई छठ पूजा?
छठ पूजा कबसे शुरू हुई? इस प्रश्न का ठीक सटीक जवाब देना मु्श्किल हो सकता है, क्योंकि इस पर्व की मान्यता एक देवी से जु़ड़ी हुई है, लेकिन वास्तव में पूजा सूर्य की ही होती है. वेदों से लेकर पौराणिक आख्यान में सूर्य पूजा का तो विस्तार से उल्लेख मिलता है, लेकिन छठी माता का सीधा जिक्र नहीं मिलता है. हालांकि भारत की लोक परंपरा जो कि बच्चों के जन्म से जुड़ी हुई है, उसमें षष्ठी तिथि का बहुत महत्व है और बच्चों के जन्म के पांचवें-छठें दिन उनकी छठी संस्कार की विधि की जाती है. 

नवजात बच्चों की सुरक्षा की लोकदेवी
छठी एक लोक देवी हैं, और माना जाता है कि वह नवजात बच्चों की सुरक्षा करती हैं. वहीं सूर्य पूजा का जिक्र भारत के दोनों प्रसिद्ध महाकाव्यों (रामायण-महाभारत) में तो मिलता ही है. हालांकि वह छठ पूजा के आज के स्वरूप जैसा नहीं है. सभी पुराणों में वर्णित जल प्रलय की पहली कथा का जो जिक्र होता है, उसकी शुरुआत सूर्यपूजा से ही होती है.

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जलप्रलय की कथा से सूर्यपूजा का जिक्र

महाराज मनु ने जब स्नान के बाद कमर तक जल में रहकर सूर्यदेव को अर्घ्य दिया उसी समय उनकी हथेली के जल में एक मछली आ गई. उस मछली ने मनु से खुद को बचाने की प्रार्थना की. वही मछली भगवान विष्णु का मत्स्य अवतार थी. 

कमर तक गहराई वाले जल में खड़े रहकर सूर्यपूजा
इसी तरह वैदिक ऋषिगण स्नान के बाद कमर तक जल में खड़े रहकर सूर्य उपासना करते रहे हैं. रामायण में, जब भगवान राम और माता सीता वनवास को निकले तब देवी सीता ने गंगा के जल में खड़े रहेकर अयोध्या की सुरक्षा और अपने सफल वनवास की कामना की थी. फिर जब वह लौटकर आए तो अयोध्या में प्रवेश से पहले माता सीता ने 14 वर्ष पहले किए सूर्य व्रत का गंगा में पारायण किया था. 

माता सीता ने किया था सूर्यपूजा का अनुष्ठान
दीपावली के मौके पर अयोध्या वापसी के छह दिन बाद ही रामराज की स्थापना हुई थी और इस दिन भी श्रीराम ने अपने कुल के ईष्ट सूर्यदेव का व्रत रखा था. माता सीता ने सूर्य षष्ठी की पूजा की जो कि एक वैदिक अनुष्ठान रहा है. इसी अनुष्ठान के जरिए ही उन्हें लव और कुश के रूप में दो पुत्रों का आशीर्वाद भी मिला था. चंपारण (बिहार, भारत) और मधेश प्रांत (नेपाल) में, यह विश्वास है कि अयोध्या छोड़ने के बाद, सीता ने नारायणी (गंडकी) नदी के किनारे चितवन जिले में, भारत-नेपाल सीमा पर स्थित वाल्मीकि आश्रम में निवास किया. उस समय, उन्होंने नेपाल में सूर्यपूजा का अनुष्ठान किया. इसलिए छठ की मान्यता नेपाल में भी गहरे में हैं. 

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कुंती और द्रौपदी ने भी की थी सूर्य की उपासना
महाभारत में, पांडु पत्नी और पांडवों की माता कुन्ती द्वारा भी सूर्य पूजा का जिक्र और वर्णन मिलता है. उन्होंने पांडवों पर बार-बार आ रहे प्राणघातक संकट से बचाव के लिए सूर्यव्रत का अनुष्ठान किया था. लाक्षागृह से बचकर निकले पांडव जब वारणावत गांव की सीमा पर नदी तट पर पहुंचे तब कुंती ने कमर तक जल में खड़े रहकर सूर्यदेव की पूजा की. कुंती कहती हैं कि जिस तरह चंद्र आपके मित्र हैं और नभमंडल में आपके ही प्रकाश से प्रकाशित हैं, उसी तरह चंद्रवंश के इन पांच चंद्रमा को भी मैं आपके संरक्षण में रखती हूं. 

कुंती द्वारा सूर्य पूजा का जिक्र तो उनके विवाह के पहले से ही होता है. ऋषि दुर्वासा के मंत्र से उन्होंने ही सूर्यदेव का आह्वान किया था और सूर्यदेव के वरदान से ही उन्हें कर्ण का गर्भाधान मिला था. सूर्यपूजा का जिक्र द्रौपदी के द्वारा भी मिलता है. 

द्रौपदी की पूजा से प्रसन्न होकर सूर्यदेव ने उसे अक्षयपात्र दिया था, जिसमें कभी भी अन्न समाप्त नहीं होता था. पांडवों के लंबे वनवास के समय द्रौपदी के लिए यह अक्षय पात्र बहुत काम आया था. द्रौपदी इस पात्र से हर रोज अपनी जरूरत का अन्न निकाल सकती थी और जब तक आखिरी में वह खुद भोजन न कर ले और पात्र को धोकर न रख दे, तबतक उसमें से अन्न निकलता था.  एक बार पात्र धोने के बाद फिर अगले ही दिन अन्न प्राप्त किया जा सकता था. 

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रांची के नागड़ी गांव में द्रौपदी ने किया था सूर्यषष्ठी व्रत
द्रौपदी ने कुरुक्षेत्र का युद्ध जीतने के लिए भी सूर्यषष्ठी की पूजा की थी. माना जाता है कि द्रौपदी ने रांची के नागड़ी गांव में एक झरने के पास छठ पूजा की. इस गांव में आज, यह त्योहार नदी या तालाब के बजाय इसी झरने के पास मनाया जाता है. ब्रह्म वैवर्त पुराण में उल्लेख है कि छठ त्योहार के दौरान छठी मैया की पूजा की जाती है. इसमें कहा गया है कि छठ पूजा की शुरुआत गाहड़वाल वंश द्वारा पवित्र शहर वाराणसी में की गई. काशी खंड के अनुसार, छठ पूजा का चलन वाराणसी से देश के अन्य हिस्सों में फैला.

छठ पर्व की प्राचीन कथा
एक अन्य कथा के अनुसार, पहले मनु स्वयंभुव के पुत्र राजा प्रियव्रत दुखी थे क्योंकि उनके कोई संतान नहीं थी. इसकी पूर्ति के लिए, कश्यप ने उनसे यज्ञ करने को कहा. थोड़ी देर बाद, रानी मालिनी को एक पुत्र प्राप्त हुआ; हालांकि, शिशु मृत पैदा हुआ. मृत जन्म के बाद, राजा और उनका परिवार हताश हो गया. राजपरिवार के प्रति सहानुभूति रखते हुए, माता षष्ठी आकाश में प्रकट हुईं. जब राजा ने उनसे प्रार्थना की, तो उन्होंने कहा: "मैं षष्ठी देवी हूं, प्रकृति का छठा रूप. मैं दुनिया के सभी बच्चों की रक्षा करती हूं और सभी संतानहीन माता-पिता को संतान का आशीर्वाद देती हूं." इसके बाद, देवी ने निर्जीव शिशु को अपने हाथों से आशीर्वाद दिया, जिससे वह जीवित हो गया. षष्ठी देवी की कृपा के लिए आभारी होकर, राजा ने देवी की पूजा की. माना जाता है कि इस पूजा के बाद, यह त्योहार विश्वव्यापी उत्सव बन गया.

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सूर्य का प्राकट्य दिवस भी माना जाता है छठ
यह भी माना जाता है कि बिहार के बक्सर क्षेत्र में ही प्राचीन काल में ऋषि कश्यप और अदिति का आश्रम था. माता अदिति ने कार्तिक के छठे दिन सूर्य को पुत्र के रूप में जन्म दिया. सूर्य को अदिति का पुत्र होने के कारण आदित्य भी कहा जाता है. इसी कारण, छठ पूजा सूर्य के जन्मदिन के रूप में मनाई जाती है और कार्तिक मास को वर्ष भर पवित्र मास माना जाता है. मुंगेर क्षेत्र में, यह त्योहार सीता मां पत्थर (या सीता चरण) से जुड़ा हुआ है. माना जाता है कि देवी सीता ने मुंगेर में सूर्य षष्ठी व्रत किया था. गंगा नदी के बीच में मुंगेर के एक पत्थर पर स्थित सीताचरण मंदिर, छठ त्योहार के संबंध में जन विश्वास का मुख्य केंद्र है.

सूर्य आराधना की तिथि है षष्ठी
छठ पर्व मूलतः सूर्य की आराधना का पर्व है, जिसे हिन्दू धर्म में विशेष स्थान प्राप्त है. हिन्दू धर्म के देवताओं में सूर्य ऐसे देवता हैं जिन्हें मूर्त रूप में देखा जा सकता है. सूर्य की शक्तियों का मुख्य श्रोत उनकी पत्नी ऊषा और प्रत्यूषा हैं. छठ में सूर्य के साथ-साथ दोनों शक्तियों की संयुक्त आराधना होती है. प्रात:काल में सूर्य की पहली किरण (ऊषा) और सायंकाल में सूर्य की अंतिम किरण (प्रत्यूषा) को अर्घ्य देकर दोनों का नमन किया जाता है.

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ऋग्वैदिक काल से जारी है सूर्य उपासना
भारत में सूर्योपासना ऋगवैदिक काल से होती आ रही है. सूर्य और इसकी उपासना की चर्चा विष्णु पुराण, भागवत पुराण, ब्रह्मा वैवर्त पुराण आदि में विस्तार से की गयी है. मध्य काल तक छठ सूर्योपासना के व्यवस्थित पर्व के रूप में प्रतिष्ठित हो गया, जो अभी तक चला आ रहा है. सृष्टि और पालन शक्ति के कारण सूर्य की उपासना सभ्यता के विकास के साथ अलग-अलग स्थानों पर अलग-अलग रूप में शुरुआत हुई, लेकिन देवता के रूप में सूर्य की वन्दना का उल्लेख पहली बार ऋगवेद में मिलता है. इसके बाद अन्य सभी वेदों के साथ ही उपनिषद् आदि वैदिक ग्रन्थों में इसकी चर्चा प्रमुखता से हुई है. निरुक्त के रचियता यास्क ने द्युस्थानीय देवताओं में सूर्य को पहले स्थान पर रखा है.

सूर्य का मानवीयकरण और उत्तर वैदिक काल
उत्तर वैदिक काल के अन्तिम कालखण्ड में सूर्य के मानवीय रूप की कल्पना होने लगी. इसने कालान्तर में सूर्य की मूर्ति पूजा का रूप ले लिया. पौराणिक काल आते-आते सूर्य पूजा का प्रचलन और अधिक हो गया. अनेक स्थानों पर सूर्यदेव के मंदिर भी बनाये गये. पौराणिक काल में सूर्य को आरोग्य देवता भी माना जाने लगा था. सूर्य की किरणों में कई रोगों को नष्ट करने की क्षमता पायी गयी. ऋषि-मुनियों ने अपने अनुसन्धान के क्रम में किसी खास दिन इसका प्रभाव विशेष पाया. सम्भवत: यही छठ पर्व के उद्भव की बेला रही हो.

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पौराणकिता और आस्था के साथ कई परतों में हुआ व्रत का विकास
आज का छठ पर्व कोई एक बार की प्रक्रिया या प्रणाली से नहीं उत्पन्न हुआ है, बल्कि इसका विकास पौराणिकता और जन सामान्य के विश्वास से मिलकर कई परतों में हुआ है, बल्कि ऐसा माना जाना चाहिए कि हर बार हो रहा है. पहले छठ पर्व सिर्फ बिहार-बंगाल-झारखंड और पूर्वी उत्तर प्रदेश तक सीमित था, जिसका कोई खास प्रचार नहीं था, लेकिन बीते 20 सालों में यह लोकआस्था के महापर्व के रूप में विकसित हुआ है और इसे अलग पहचान मिली है.

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