मथुरा के वृंदावन में मौजूद बांके बिहारी मंदिर इस वक्त विवाद और अनियमितता में फंसा दिख रहा है. मंदिर में दर्शन और शयन के समय में बदलाव का मामला कोर्ट में है, वहीं आए दिन बढ़ती भीड़ के कारण भी नए-नए विवाद सामने आते रहते हैं.
बांके बिहारी मंदिर से जुड़ी इस तरह की खबरों और विवादों से श्रद्धालुओं में दुख भी है और चिंता भी. इसके साथ ही श्रीकृष्ण के इस सुंदर-मनोहर स्वरूप की सदियों पुरानी भक्ति परंपरा पर कोई आंच न आए इसे लेकर भी डर सता रहा है. बांके बिहारी में भगवान श्रीकृष्ण की छवि जितनी सलोनी है, उतनी ही यह अलग भी है. यही विशेषता इस मंदिर को बाकी अन्य कृष्ण मंदिरों से अलग भी करती है.
बांके बिहारी मंदिर में होते हैं श्रीकृष्ण के युगल छवि के दर्शन
असल में बांके बिहारी मंदिर में भगवान श्रीकृष्ण की युगल छवि के दर्शन होते हैं. यह सनातन और अध्यात्म की अद्वैत परंपरा के सिद्धांत और दर्शन का सटीक उदाहरण है, साथ ही इसका आदर्श शैव परंपरा के तत्वों से भी मेल खाता है. शैव परंपरा में यह प्रसिद्ध है कि शिव और शक्ति (पार्वती या काली) अलग-अलग होते हुए भी दो नहीं बल्कि एक ही हैं. ऐसे कई मौके भी आए हैं जब शिव और शक्ति एक में समाहित होते हुए अपना रूप प्रकट करते हैं.
शिव-पार्वती के अर्धनारीश्वर स्वरूप जैसा वर्णन
पुराण कथाओं में शिवजी के अर्धनारीश्वर स्वरूप का वर्णन है. इसमें शिवजी के शरीर का आधा हिस्सा पुरुष और आधा हिस्सा स्त्री का है. दाएं भाग में शिवजी के दर्शन होते हैं और वाम भाग में स्त्री स्वरूप में देवी पार्वती नजर आती हैं. यही अद्वैत सिद्धांत है कि संसार में पुरुष और प्रकृति दो पहलू जरूर हैं, लेकिन वह अलग-अलग नहीं हैं, बल्कि एक ही हैं.

ऐसा ही स्वरूप बांके बिहारी की युगल छवि के दर्शन में उभरता है. मंदिर में विराजी ठाकुर जी की ही प्रतिमा में सांवले सलोने कृष्ण और भोली-भाली श्रीजी यानी राधारानी भी समाहित हैं. दोनों ही एक-दूसरे के रूप और एक-दूसरे के पूरक हैं. कहते हैं कि यह श्रद्धालु के ऊपर है कि वह अपनी श्रद्धा के अनुसार अपने कान्हा को देखना चाहता है, या फिर राधारानी को देखना चाहता है या फिर दोनों के दर्शन एकसाथ पाना चाहता है. वह जिस दृष्टि और भावना के साथ ठाकुर जी को देखता है वह उसे वैसे ही नजर आते हैं.
यहां संत तुलसीदास की चौपाई बहुत काम आती है, वह लिखते हैं, 'जाकी रही भावना जैसी, प्रभु मूरत तिन देखी तैसी'.
बाबा हरिदास ने की थी मंदिर की स्थापना
बांके बिहारी मंदिर की स्थापना श्रीकृष्ण के बांके स्वरूप के अनन्य भक्त स्वामी बाबा हरिदास ने की थी. उन्होंने ही अपनी दिव्य गायकी के जरिए श्रीकृष्ण और राधा की युगल छवियों को प्रकट किया था. कहते हैं कि, जब स्वामी हरिदास जी भक्ति में लीन होकर पद गाते, तो वे खुद को भूल जाते. उनकी भक्ति और संगीत से प्रसन्न होकर भगवान श्रीकृष्ण उनके समक्ष प्रकट हो जाते. हरिदास जी भावविभोर होकर श्रीकृष्ण को स्नेहपूर्वक दुलारते.
एक दिन उनके एक शिष्य ने निवेदन किया कि आपको तो अकेले श्रीकृष्ण के दर्शन होते हैं, हमें भी राधा–कृष्ण के संयुक्त दर्शन कराइए. इस पर स्वामी हरिदास जी ने राधा–कृष्ण की युगल उपासना में पद गाना शुरू किया. आलाप-तान के साथ भजन जैसे ही अपने उच्च अवस्था में पहुंचा तो पूरा वातावरण ही बदल गया. किवदंती है कि लोगों ने आस-पास दिव्य चंदन जैसी सुगंध महसूस की और वह स्थान गोलोक की तरह बदल गया.
इसी दौरान उनके समक्ष राधा–कृष्ण युगल स्वरूप में प्रकट हुए और हरिदास जी की तान में स्वयं तान मिलाकर गाने लगे
“री सखी री सही जोड़ी विराजै भाई,
ज्यों जुरंग गौरा श्याम घन दामिनी.”
हरिदास जी भावविभोर हो उठे. राधा–कृष्ण की अद्भुत छवि उनके नेत्रों के सामने थी. उनके दिव्य भजनों को राधा जी रोज सुनती थीं और बहुत समीप से उनके दर्शन करना चाहती थीं. श्रीजी की इच्छा जानकर भगवान श्रीकृष्ण ने इच्छा प्रकट की कि वे हरिदास जी के समीप ही निवास करना चाहते हैं.
स्वामी हरिदास ने की थी एक विग्रह में दोनों के दर्शन की विनती
स्वामी हरिदास जी ने विनम्रता से कहा, 'प्रभु, मैं तो एक विरक्त साधु हूं. आप तो सादा वस्त्र धारण कर सकते हैं, लेकिन श्रीजी राधा जी के लिए अलंकार और आभूषण कहां से लाऊं.' अपने भक्त की इस सरल भावना को समझते हुए श्रीकृष्ण और श्रीराधा एकाकार होकर एक ही विग्रह में प्रकट हुए. यही विग्रह ‘बांके बिहारी’ के नाम से प्रसिद्ध हुआ.
एक ही विग्रह में होता है स्त्री और पुरुष शृंगार
यही वजह है कि दोनों का शृंगार एक ही विग्रह में होता है. भगवान श्रीकृष्ण को दोनों तरह के आभूषण धारण किए जाते हैं. जब उनकी शृंगार सेवा की जाती है तो उनके मुख पर कुंकुम शृंगार होता है. उनके शीष पर दो तरह के मुकुट धारण कराए जाते हैं, जिनमें एक तरफ मोरपंख और दूसरी ओर चूड़ामणि शामिल होते हैं. इसी तरह उनके वस्त्र भी एक तरफ लहरदार और दूसरी तरफ घेरा लिए होते हैं. बांके बिहारी के चरण हमेशा उनके वस्त्रों से ढंक कर रखे जाते हैं, क्योंकि उनके ही चरणों में श्रीजी के चरण भी शामिल हैं और उन्हें आलता लगाया जाता है. इस चरण दर्शन का सौभाग्य कुछ खास मौकों पर ही मिलता है. इसलिए चरणों को छिपाकर ही रखते हैं.
ब्रह्मवैवर्त पुराण में भी राधा और कृष्ण के युगल स्वरूप का है वर्णन
ब्रह्मवैवर्त पुराण में भी राधा और कृष्ण को एक ही स्वरूप में बताया गया है. एक लोककथा भी है कि एक बार श्रीकृष्ण और राधा अपने सभी गोप और गोपी सखाओं के साथ लुकाछिपी खेलने लगे. सभी गोप-गोपी छिप गए और ललिता सखी उन्हें खोजने लगीं. ललिता सखी ने बाकी सभी को तो खोज लिया, लेकिन वह न राधा को खोज सकीं और न ही श्रीकृष्ण को. अब सभी सखा-सखी मिलकर दोनों को खोजने लगे और अलग-अलग भटक गए.
अब हुआ क्या कि जो राधा को खोज लेते वह कृष्ण को नहीं खोज पाते और जिन्हें कृष्ण मिल जाते उन्हें राधा नहीं मिलती. सभी बहुत परेशान हुए. तभी वहां एक साधु हरिगुण गा रहे थे. उन्होंने अपने पद में ब्रह्म की व्याख्या करते हुए कहा- दोनों को अलग-अलग क्यों खोजते हो, वो तो एक ही हैें.

लोककथाओं में जगह पाती है युगलछवि लीला
यह बात ललिता सखी को समझ आ गई. उन्होंने जब श्रीराधा और कृष्ण का एक साथ ध्यान किया तो उन्हें दोनों के दर्शन एक ही छवि में हो गए. असल में खेल के दौरान जब सभी पेड़ के पीछे, लताओं में और अन्य स्थानों पर छिप रहे थे, तब राधारानी श्रीकृष्ण के हृदय में जा छिपी थीं. ललिता सखी ने उसी समय इस अलौकिक छवि के दर्शन का वरदान मांगा. इसलिए श्रीकृष्ण और राधा का एक ही विग्रह प्रकट हुआ और उनका एक साथ शृंगार किया जाता है.
परमप्रेम और परम आनंद के मिलन का विग्रह
श्री कृष्ण परम आनंद हैं, और श्रीराधा परम प्रेम हैं. आनंद और प्रेम एक-दूसरे के पूरक हैं, इसलिए वे अलग नहीं हो सकते. उनका एक साथ होना ही संपूर्णता है. राधा और कृष्ण का संबंध शरीर और आत्मा जैसा है. आत्मा के बिना शरीर और शरीर के बिना आत्मा अधूरी है. इसी तरह, श्रीराधा के बिना श्री कृष्ण और श्री कृष्ण के बिना श्री राधा का अस्तित्व अधूरा है. लीला के लिए वे अलग दिखते हैं, लेकिन परम तत्व के रूप में वे एक ही हैं. वे एक अखण्ड रसमय तत्व हैं जो अपनी लीलाओं से प्रकट होते हैं.