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मिट्टी के पुतलों, लोकगीतों और भाई-बहन के स्नेह से सजा मिथिला का सामा-चिकेवा

मिथिलांचल में कार्तिक मास की द्वितीया से पूर्णिमा तक मनाया जाने वाला सामा-चिकेवा पर्व भाई-बहन के प्रेम और पारिवारिक बंधन को दर्शाता है। इस उत्सव में मिट्टी के पुतले बनाकर, गीत गाकर और पारंपरिक रीति-रिवाजों के साथ इसे मनाया जाता है।

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एक गोल घेरे में बैठकर सामा चिकेवा खेलती युवतियां, सामा-चिकेवा को समूह में मनाया जाता है
एक गोल घेरे में बैठकर सामा चिकेवा खेलती युवतियां, सामा-चिकेवा को समूह में मनाया जाता है

बिहार के मिथिलांचल में जैसे ही छठ पर्व की समाप्ति होती है, अगले ही पल एक और उत्सव लोगों की राह देख रहा होता है. यह है सामा-चिकेवा. कार्तिक मास की द्वितीया तिथि से पूर्णिमा तिथि तक मनाया जाने वाला यह पर्व भाई-बहन के प्रेम को सामने रखता है. इसमें सामा एक शापित चिड़िया है, जो श्रीकृष्ण की बेटी है और चिकेवा उसका भाई है जिसने बहन को शाप से मुक्त कराने के लिए संघर्ष किए थे. 

महारानी वेबसीरीज में भी दिखाया गया था सामा-चिकेवा
ओटीटी पर आई अभिनेत्री हुमा कुरैशी की प्रसिद्धि वेबसीरीज 'महारानी' जो कि बिहार के राजनीतिक पृ्ष्ठभूमि पर बनी हुई है, इसमें एक पूरा एपिसोड सामा-चिकेवा की परंपरा पर आधारित दिखाया गया है. वेबसीरीज में सामा-चिकेवा उत्सव कहानी को आगे बढ़ाने में सहायक साबित होता है, जहां केंद्रीय पात्र हुमा कुरैशी (रानी भारती) और उनके भाई के बीच की बॉन्डिंग को शब्द दिए जाते हैं. इसमें सीएम रानी भारती अपने हाथ से सामा-चिकेवा की मूर्ति बनाती दिखती हैं और ग्रामीण महिलाओं के साथ समूह में सामा-चिकेवा खेलती हैं और घाट पर दोनों की मूर्ति का विसर्जन भी करती हैं.

सामा-चिकेवा के पुतले बनाने से होती है शुरुआत
इस पर्व के मनाने की शुरुआत पहले ही दिन से सामा-चिकेवा के पुतले बनाने और सजाने से शुरू होती है. द्वितीया के दिन बहनें सामा-चकेवा पर्व के लिए मिट्टी के पुतले बनाती हैं और छठ पर्व के खरना या पारण से इन पात्रों के निर्माण का कार्य तेजी से किया जाता है. यह पर्व मिथिलांचल की प्राचीन सामाजिक और पारिवारिक परंपराओं का प्रतीक है. इसे लोकनाट्य का एक रूप भी कहा जा सकता है, जिसमें महिलाएं सूत्रधार होती हैं और पात्रों के रूप में मिट्टी से बने मानव, पशु और पक्षियों के स्वरूप दिखाए जाते हैं.

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Sama Chikewa

कैसे मनाते हैं सामा-चिकेवा
उत्सव के दौरान महिलाएं अपने-अपने डालों (टोकरी) को एक स्थान पर रखकर वृत्ताकार में बैठती हैं. इस समय चुगलखोर चुगला की जूट से बनी मूंछ जलाई जाती है और चुगिला को झुलसाया जाता है. फिर स्त्रियां उन्हें शाप देती हैं कि ऐसी ही कोई भाई-बहनों के बीच चुगली लगाए तो उसका मुंह जल जाए. बहनें अपने भाइयों की प्रशंसा में गीत गाती हैं और चुगला-चुगिला को गालियां देती हैं.

छठ पर्व के खरना या पारण के दिन से इन बन चुके तैयार पुतलों को एक पात्र में रखा जाता है और उनके आगे दीप जलाते हैं.  फिर रात को अन्य महिलाओं-लड़कियों के साथ सभी बहनें गीत गाते हुए चौक या मैदान में जाती हैं. चौक पर सामा-चकेवा को शीतल घास और दूब खिलाने की परंपरा है. महिलाएं गोलाकार बैठकर गीत-संवाद के माध्यम से अपने पात्रों को जीवंत बना देती हैं.

इस पर्व में सामा-चकेवा, चुगला, ढोलिया, भरिया, सतभइया, खंजन चिरैया, वनतीतर, झांझी कुत्ता, भैया-बटककनी, मलिनिया और वृंदावन जैसे अनेक पात्र शामिल होते हैं. कार्तिक की पू्र्णिमा की रात पास के ताल-तालाब या पोखरा में सामा-चिकेवा को सिरवाकर उन्हें विदाई दी जाती है. 

इस पर्व में मिथिलांचल के पारिवारिक जीवन, लोकआस्था और प्रकृति के बीच गहरा संबंध दिखाई देता है. इसमें न केवल मनुष्य, बल्कि पशु-पक्षी और घरेलू जीवन का भी सुंदर दर्शन झलकता है. सामा-चकेवा के खेल में महिलाएं डाल में मूर्तियां रखकर जब चौक की ओर निकलती हैं तो कई तरह के गीत गाती हैं, इसकी बानगी देखिए...

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'डालाले बहार भेली, बहिनी से पलां बहिनो
फलां भइया लेल डाला छीने, सुनु गे राम सजनी…'

भाई की समृद्धि और मंगलकामना करते हुए इन गीतों में जनकपुरधाम का उल्लेख भी मिलता है, जो इसकी पुरातन सांस्कृतिक इतिहास को सामने रखता है,

सिरी रे जनकपुर सऽ आबि गेल भ्रमरा,
लागि गेल पनमा दुकान…

जब चुगला आता है, तो महिलाएं जूट से बनीं उसकी मूंछों में आग लगाकर यह गीत गाती हैं...

धान-धान-धान, भइया कोठी धान,
चुगला कोठी भुस्सा…

यहां ‘भैया की कोठी धान से भरी हो’ यह आशीर्वाद है, जबकि चुगलखोर की कोठी ‘भूसा’ से भरी हो, यानी खाली हो, यह व्यंग्य और निंदा का प्रतीक है. फिर वह आगे गाती हैं, उसी भूसे में आग लग जाए और चुगला का मुंह झौंस (झुलस) जाए.

Sama Chikewa

वृंदावन में आग लगने पर बहन अपने भाई की वीरता पर विश्वास जताते हुए गाती हैं 

वृंदावन में आगि लागे,
कोइ ने मिझावे हे,
हमर भइया फलना भइया,
दौड़ि-दौड़ि मिझाबे हे…

यानी वृंदावन में आग लगी है, लेकिन किसी में हिम्मत नहीं कि बुझा दे, लेकिन मेरे भैया में ही इतनी ताकत है कि वह सारे वृंदावन की आग बुझा सकता है.

पूर्णिमा की रात सामा-चकेवा के विसर्जन के समय महिलाएं यह भावपूर्ण गीत गाती हैं —

सामचको, सामचको अइह हे,
जोतल खेत में बइसिह हे…

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इस गीत के साथ माटी से बने सभी पात्रों का विसर्जन किया जाता है, और बहनें अगले वर्ष फिर मिलने की प्रार्थना करती हैं. इस आखिरी दिन भाई-बहन दोनों साथ होते हैं. शादीशुदा बहनें जब घर आती हैं तो इन गीतों के जरिए भाई के साथ बिताए गए अपने बचपन के दिन भी याद करती हैं. वह अपने खेल-खिलौनों और शरारतों को याद करती हैं और कई बार उनकी आंखें भर आती हैं.

मिथिलांचल की सदियों पुरानी विरासत
सामा-चिकेवा सिर्फ सात-आठ दिनों का उत्सव नहीं है. यह बिहार की, मिथिला संस्कृति की सदियों पुरानी विरासत है. हालांकि अब नए दौर में इस उत्सव की परंपरा कम होती चली जा रही है, लेकिन नवंबर की गुलाबी सर्दियों के साथ जब प्रवासी पक्षी पंख फड़फड़ाते, किलोलें करते नजर आते हैं तो श्यामा चिड़िया की आवाज इस उत्सव के लुप्त हो रहे गीतों को सुर देने लग जाती है. फिर लगता है कि परंपरा ही वह खोई हुई बहन है जो अपने भाइयों को बुला रही है. कह रही है, 'भैये मैं यूं, भैये मैं यूं... पर क्या आप उसकी आवाज सुन पा रहे हैं?

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