ब्रज में होली के रंग हजार हैं. यहां सबकुछ कृष्ण के लिए है और कृष्ण सबके लिए. यही कारण है कि जहां देशभर में फाल्गुन पूर्णिमा के दिन होली खेली जाती है, वहीं ब्रजमंडल में यह सिलसिला महीने भर पहले से ही शुरू हो जाता है. लड्डुओं की होली से लेकर लट्ठमार होली, फूलों की होली से लेकर दाऊ जी के हुरंगे तक... ब्रज में होली की रंगत देश के हर हिस्से से अलग है.
सबसे बड़ी खास बात ये है कि आज भी ये होली कथा के भाव और पात्रों के अनुसार ही खेली जाती है, जिसमें पूरा ब्रजमंडल शामिल होकर अपना-अपना किरदार निभाता है. ब्रज में रहने वाला हर जीव (सिर्फ मनुष्य ही नहीं) खुद को कृष्ण का करीबी मानता है और उसकी इसी अभिलाषा को सदियों पहले कविवर रसखान कुछ यूं लिख गए हैं कि...
मानुष हौं तो वही रसखान बसौ ब्रज गोकुल गांव के ग्वारन,
जो पसु हौं तो कहा बसु मेरा चरौं नित नंद की धेनु मंझारन.
पाहन हौं तो वही गिरि को जो धर्यौ कर छत्र पुरंदर कारन,
जो खग हौं तौ बसेरो करौं मिलि कालिंदी-कूल-कदंब की डारन.
ब्रज के लोगों के इसी साक्षी भाव को देखने के लिए दूर-दराज से लोग पहुंचते हैं और इस होली का हिस्सा बनते हैं. वसंत पंचमी के बाद से ही मंदिरों में रसिया गीतों की गायन परंपरा के साथ होली शुरू हो जाती है और फिर ये उल्लास मंदिर से घर, घर से गली, गली से सड़क, सड़क से चौबारे और चौबारे से गांव-गांव और शहर-शहर तक फैलता जाता है. 15 दिन बीतते-बीतते पूरी मथुरा नगरी से लेकर गोकुल-वृंदावन तक सिर्फ और सिर्फ उल्लास का रंग ही छाया रहता है.
लड्डूओं की होली से होती है शुरुआत
ब्रज में होली की शुरुआत लड्डुओं की होली से होती है. बरसाना गांव से शुरू होने वाली इस होली को निमंत्रण का प्रतीक माना जाता है. मान्यता के अनुसार, राधा प्रतीक रूप से नंदगांव लड्डू लेकर जाती हैं और नंदगांव के हुरियारे हुड़दंग शुरू कर देते हैं. मीठे लड्डुओं की इस होली का नजारा देखने लायक होता है.
लड्डू होली कैसे शुरू हुई, इसकी एक लोककथा भी प्रचलित है. कहते हैं कि कंस के अत्याचारों से परेशान होकर नंदबाबा, पूरे गांव के साथ गोकुल से दूर चले गए थे और नंदगांव बसाकर वहां रहने लगे. बरसाना गांव से उनके पुराने संबंध थे और तीज-त्योहार-व्रत में दोनों गांव वाले साथ उत्सव मनाते थे, लेकिन गोकुल से जाने के बाद जब दोनों गांवों के बीच दूरी बढ़ी तो लगा कि सिलसिला टू़ट जाएगा, तब राधारानी के पिता वृषभानु जी के कहने पर उनके गोप-गोपियां लड्डू लेकर होली का निमंत्रण देने नंदगांव गए थे. तब से ये सिलसिला शुरू हो गया.
फिर तो कृष्ण की बाललीलाओं ने इसमें और भी रंगत भर दी. गोप सखाओं की टोलियां कन्हैया को होली खेलने का आमंत्रण देने आती थीं और वह रास्ते में लड्डू छीनकर उन्हें लुटाने लगते थे. लड्डू लुटाने का ये प्रक्रिया भी खेल और रास का हिस्सा बन गई और इस तरह लड्डू वाली होली की शुरुआत हो गई.
आज के दौर में बरसाना के राधाजी मंदिर से नंदगांव के लिए निमंत्रण के लड्डू भेजे जाते हैं और फिर नंदगांव से बिहारी जी के मंदिर से पंडा इस निमंत्रण पर राधाजी मंदिर पहुंचते हैं. यहां उनका उत्साह के साथ स्वागत होता है और विदाई में लड्डुओं की गठरी भेंट की जाती है. इन्हीं लड्डुओं को श्रद्धालुओं पर लुटाया जाता है.
बरसाना की प्रसिद्ध लट्ठमार होली
ब्रज की सबसे चर्चित होली में से है लट्ठमार होली. इसमें नंदगांव के हुरियारे बरसाना पहुंचते हैं और गोपिकाओं को रंग में सराबोर करने का प्रयास करते हैं. इसके जवाब में गोपियां उन्हें लाठियों से मारती हैं और हुरियारे कपड़ों की बनी ढाल से अपना बचाव करते हैं. ढोल-मृदंग की थाप पर यह अनोखी होली उमंग और उत्साह से भर देती है.
ब्रज की लट्ठमार होली केवल रंगों का उत्सव नहीं, बल्कि प्रेम, शरारत और परंपरा का अनूठा संगम है। यह होली मुख्य रूप से बरसाना और नंदगांव में खेली जाती है और इसकी जड़ें भगवान श्रीकृष्ण और राधा रानी की प्रेम कथा से जुड़ी हैं. पौराणिक मान्यताओं के अनुसार, श्रीकृष्ण अपने सखाओं के साथ नंदगांव से बरसाना होली खेलने आते थे. जब वे राधा और उनकी सखियों पर रंग डालते, तो गोपियां उनसे अपना बचाव करने के लिए लाठियों (लट्ठ) से वार करतीं थीं.
लट्ठमार होली, महज रंगों का त्योहार नहीं बल्कि नारी सशक्तिकरण का प्राचीन उदाहरण भी है. एक लोककथा प्रचलित है कि कंस कृष्ण-बलराम को मारने के लिए रोज कोई न कोई चाल चलता था. एक बार उसने अपने कुछ सैनिकों को भेजकर ब्रज गोपिकाओं के अपहरण की योजना बनाई. इसके लिए कंस ने होली का ही दिन चुना. कंस के सैनिक नंदगांव के हुरियारे बनकर टोली में शामिल हो गए. इसका पता कृष्ण को चल गया. उन्होंने अपने सखाओं और गोपियों के साथ मिलकर योजना बनाई. इसी योजना के अनुसार गोपियों ने हुरियारों के वेश में घुसे कंस के सैनिकों की खूब पिटाई की.
इसके बाद से लट्ठमार होली ब्रज की पहचान बन गई.
फूलों वाली होली
फूलों की होली राधा और कृष्ण के आत्मीय प्रेम का प्रतीक है. कहते हैं कि फुलेरा दूज की तिथि के दिन श्रीकृष्ण का राधा रानी से विवाह हुआ था और यह विवाह खुद ब्रह्नाजी ने करवाया था. यह विवाह भगवत स्वरूप में हुआ था, जिसमें राधा-कृष्ण दोनों ही अपने ईश्वर अंश में थे. इस विवाह की खुशी में सभी देवताओं ने दोनों पर प्रसन्नता से फूलों की वर्षा की थी और राधा-कृष्ण ने भी अपने सखा-सखियों के साथ इस होली में हिस्सा लिया था. आज भी जब हिंदू विवाह रीति में किसी के विवाह के लिए सही तिथि नहीं मिल पाती है तो उसका विवाह फुलेरा दूज को किया जाता है, क्योंकि यह तिथि शादी विवाह के लिए अबूझ मुहूर्त है. राधा-कृष्ण से जुड़ी इसी मान्यता के बाद फूलों की होली भी मथुरा की संस्कृति का हिस्सा बन गई.
धुलेंडी और सोटे वाली होली
धुलेंडी की होली ब्रज में खास अंदाज में मनाई जाती है. इस दिन देवर-भाभी के बीच प्यार भी नोकझोक और मस्ती देखने को मिलती है. देवर भाभियों पर रंग डालते हैं और भाभियां उन्हें रंग में भीगे कपड़ों से बने सोटे से पीटती हैं. यह होली पारिवारिक और सामाजिक रिश्तों में प्रेम और सौहार्द बढ़ाने का प्रतीक मानी जाती है.
दाऊजी का हुरंगा: बलराम के सम्मान में खेली जाती है होली
ब्रज में होली का समापन दाऊजी के हुरंगे से होता है. यह होली भगवान कृष्ण के बड़े भाई बलराम के सम्मान में खेली जाती है. जहां कृष्ण पूरे ब्रज के सखा माने जाते हैं, वहीं बलराम सबके बड़े भाई के रूप में पूजे जाते हैं. इस दिन मथुरा में विशेष आयोजन होता है, राधा-कृष्ण को भोग लगाया जाता है और फिर धुलेंडी का उत्सव अपने चरम पर पहुंचता है.
ब्रज में होली सिर्फ एक पर्व नहीं, बल्कि परंपरा, संस्कृति और भक्ति का संगम है. यहां हर गली, हर चौपाल और हर मंदिर होली के रंग में सराबोर दिखता है. यही वजह है कि दुनियाभर से लोग इस अनूठी होली का आनंद लेने के लिए ब्रजधाम पहुंचते हैं.