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कांटों पर फूल लगाकर तर्पण, बुंदेलखंड की लड़कियां खेल-खेल में कर देती हैं अनजान पितरों का श्राद्ध

बुंदेलखंड के गांवों में पितृपक्ष के दौरान किशोर लड़कियां माबूलिया नामक खेल खेलती हैं, जो पितरों के तर्पण का प्रतीक है। यह परंपरा झांसी, जालौन, ललितपुर, महोबा, हमीरपुर आदि में प्रचलित है. इस खेल को तर्पण का ही एक तरीका माना जाता है.

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बुंदेलखंड की लड़कियां बबूल के कांटों को फूलों से सजाती हैं और फिर फेरी लगाकर विसर्जन करने जाती हैं
बुंदेलखंड की लड़कियां बबूल के कांटों को फूलों से सजाती हैं और फिर फेरी लगाकर विसर्जन करने जाती हैं

एक तरफ जब सनातन परंपरा में श्राद्ध पक्ष के कर्म-विधान जारी हैं तो दूसरी तरफ बुंदेलखंड के क्षेत्र में, गांवों में, गलियों में एक अलग ही तरह की हलचल है. यहां 8 से 10 साल की 14-15 साल की लड़कियां इकट्ठा हैं. अपनी बोली में कुछ गीत गा रही हैं. उनके हाथों में एक कांटे की झाड़ है और इस झाड़ को लड़कियां पीले-गुलाबी, लाल फूलों से सजा रही हैं. ये उनके लिए एक खेल की तरह है. खास बात ये है कि ये खेल इसी मौसम में खेला जाता है, जब खेतों में कास फूलने लगती है, सुबहें धुंध भरी होने लगती हैं और हारसिंगार के पेड़ों से फूल झरने लगते हैं.

आश्विन कृष्ण पक्ष की पहली से लेकर अमावस्या तक ये किशोरी (टीनएजर) लड़कियां समूह में ये खेल खेलती हैं. ये खेल सिर्फ खेल नहीं है, बहुत बड़ी तपस्या है. श्रद्धा का काम है, क्योंकि इसके जरिए उन भूले-बिछड़े पितरों का तर्पण हो जाता है जिन्हें कोई याद नहीं कर पाता है. इस खेल को कहते हैं महामूलिया, मामुलिया या माबूलिया.

श्राद्ध-तर्पण की अनोखी परंपरा
उत्तर प्रदेश के झांसी, जालौन, ललितपुर, महोबा, हमीरपुर, बांदा और चित्रकूट और मध्य प्रदेश के दतिया, टीकमगढ़, छतरपुर, दमोह, सागर और पन्ना में ये खास परंपरा अभी भी जगह बनाए हुए है. हालांकि समय की मार वहां भी पड़ी है और जब से गांवों से पलायन होना शुरू हुआ है तब से इस परंपरा में कुछ कमी, कुछ बदलाव और कुछ खानापूर्ति तो हुई है, लेकिन फिर भी कुछ हिस्सों में- गांवों में लड़कियां इस परंपरा को जीवित बचाए हुए हैं. यह उस बात का जवाब भी है कि जो लोग भ्रमवश कहते हैं कि लड़कियां श्राद्ध-तर्पण नहीं कर सकतीं या महिलाओं को इसकी इजाजत नहीं है. 

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लेकिन, इन लड़कियों द्वारा खेल-खेल में किया गया ये तर्पण माता-पिता और दोनों के परिवारों को तार देता है.

कैसे बनाते हैं माबूलिया?

लड़कियां इसके लिए कुछ खास नहीं करती हैं. वह कांटेदार बमूरा (बबूल) की टहनी ले आती हैं. इसके कांटों में मौसमी फूल जो भी उपलब्ध हों उन्हें खोंस देते हैं. इस तरह सूखा कांटेदार बबूल, रंग-बिरंगी झाड़ में तब्दील हो जाता है. इस सजे-धजे बबूल को लड़कियां किसी छायादार पेड़ के नीच गोबर से लीप कर उस पर आटा-हल्दी से चौक पूरकर बीच में स्थापित करती हैं. फिर यहीं इसके इर्द-गिर्द जमती है टोली. 

बड़ी लड़कियां चौका संभाल लेती हैं और छोटी बच्चियां कोई भी खेल खेलने लगती हैं. फिर सब मिलकर खाना बनाती-खाती हैं और प्रसाद बांटती है. इसके बाद एक बालक माबूलिया का हाथ में लेकर आगे-आगे चलता है. सभी लड़कियां और उनकी टोली उसके पीछे-पीछे चलती हैं और गीत गाती रहती हैं. ये बुंदेली गीत मौसम, बारिश, राधा-कृष्ण, शिव-पार्वती से जुड़े होते हैं. इनमें तोता-कौवा और गौरेया का भी जिक्र आता है और गाय-भैंस बछिया का भी. कुल मिलाकर आस-पास की प्रकृति में जिस-जिस की मौजूदगी है, इन नन्हीं लड़कियों के गीत में वह सब कुछ है.

ये गीत बड़े प्यारे, बड़े ही मनोहर होते हैं. इसकी बानगी देखिए...

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‘छिटक मोरी मामुलिया
मामुलिया के दो दो फूल, छिटक मोरी मामुलिया।
कहाँ लगा दऊं मामुलिया, छिटक मोरी मामुलिया।
अंगना लगा दऊं मामुलिया, छिटक मोरी मामुलिया

ऐसा ही एक और गीत देखिए

ल्याइयो ल्याइयो रतन जड़े फूल, सजइयो मोरी मामुलिया
ल्याइयो गेंदा हजारी के फूल, सजइयो मोरी मामुलिया।
ल्याइयो चम्पा चमेली के फूल, सजइयो मोरी मामुलिया।
ल्याइयो घिया तुरैया के फूल, सजइयो मोरी मामुलिया।
ल्याइयो सदा सुहागन के फूल, सजइयो मोरी मामुलिया।

ऐसे ही मामूलिया पर एक और गीत देखिए जो लड़कियां गाती हैं..
‘‘चूँ चूँ चिरइयां, बन की बिलैया
ताते ताते माड़े, सीरे सीरे घैला
सो जाओ री चिरैंया
उठो उठो री चिरैंया
तुमाये दद्दा लड़ुआ ल्याये।’’

माबूलिया खेलने सजाने का मनोविज्ञान इतना खूबसूरत और सीख से भरा है कि आप उसे जानकर आश्चर्य से भर जाएंगे. जो बबूल की झाड़ी कांटों भरी थी, लड़कियों के हुनरमंद हाथों ने उसे भी फूलों से भर दिया. इससे शिक्षा मिलती है कि हाथों में हुनर हो तो कांटों में भी फूल खिलाई जा सकती हैं. यानी विपरीत परिस्थितियों को भी अपने लायक बनाया जा सकता है. यह शिक्षा, ऐसी सीख बुंदेलखंड का ही वीर और आत्मविश्वास से भरा समाज दे सकता है.

माबूलिया की निकाली जाती है फेरी
लड़कियां माबूलिया को सजाकर, चौक पूजकर फिर फेरी के लिए निकलती हैं. इस तरह गांव में जुलूस से निकालते हुए बच्चे हर घर के सामने से निकलते हैं, कुछ नेग लेते हैं, प्रसाद देते हैं और इस तरह घूमते-घूमते पहुंच जाते हैं नदी-तालाब के तट पर. इस तालाब के किनारे माबूलिया को फिर से पूजाकर उसका विसर्जन किया जाता है. इस माबूलिया को जल में अर्पित कर देते हैं और माना जाता है कि इस तरह उन भूली-बिछड़ी आत्माओं का तर्पण हो जाता है जो अब याद नहीं रह गए हैं. 

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लड़के बनाते हैं विमान
बुंदेलखंड में इसी तरह चिपचिपी घास से विमान भी बनाते हैं और इस विमान को भी गांव में घूमाते हैं. इस विमान का चौक-चौराहों पर स्वागत भी किया जाता है और लोग प्रसादी ग्रहण करते हैं. स्थानीय बुजुर्गों बताते हैं कि माबूलिया खेल पूर्वजों की स्मृति और सम्मान का प्रतीक है. यह खेल बच्चों को पितरों के प्रति आस्था और संस्कारों से जोड़ता है. इसी कारण यह परंपरा पीढ़ी दर पीढ़ी चली आ रही है.

माबूलिया का करते हैं विसर्जन
पितृपक्ष के दौरान बच्चे रोज झाड़ियों को फूलों से सजाते हैं. सभी बच्चे मिलकर सामूहिक रूप से माबूलिया खेलते हैं. पितृपक्ष की समाप्ति पर परंपरा के अनुसार सजाए गए मामूलियों को जलाशयों या नदियों में विसर्जित किया जाता है. कई माबूलिया को पूरे 15 दिन रखकर फिर अमावस्या को विसर्जित किया जाता है तो कुछ उसी दिन सुबह सजाकर शाम तक विसर्जित कर दिए जाते हैं.

आज चारों तरफ मोबाइल युग है. इंटरनेट का युग है. लिहाजा हर ओर एक जैसी ही परंपराएं चल पड़ी हैं, लेकिन बुंदेलखंड में जब कहीं माबूलिया के गीत कान से टकराते हैं तो एक उम्मीद जगती है कि परंपरा को बचाने वाले हाथ अभी मौजूद और मजबूत हैं. बुंदेलखंड में पितृपक्ष की पहचान माबूलिया से ही है, बिना इस खेल के बुंदेलखंड, वो नहीं है जो वो असल में है.

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