खिसकते पहाड़, आपदा और इंसानी गलतियां... 54 करोड़ साल पुरानी ढीली मिट्टी पर बसी है उत्तराखंड की हर्षिल घाटी!

हर्षिल घाटी की जियोलॉजी, भारतीय और यूरेशियन प्लेटों के टकराव, ढीली एलुवियल मिट्टी, खड़ी ढलानें और ग्लेशियरों की उपस्थिति इसे भूकंप, बाढ़ और फ्लैश फ्लड के लिए बेहद संवेदनशील बनाती है. जलवायु परिवर्तन और मानवीय गतिविधियां इस जोखिम को और बढ़ा रही हैं. अगस्त 2025 की ताजा घटना हमें चेतावनी देती है कि प्रकृति के साथ संतुलन बनाना जरूरी है.

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ये है हर्षिल घाटी से बहती हुई भागीरथी नदी. (File Photo: Pexel) ये है हर्षिल घाटी से बहती हुई भागीरथी नदी. (File Photo: Pexel)

ऋचीक मिश्रा

  • नई दिल्ली,
  • 06 अगस्त 2025,
  • अपडेटेड 2:25 PM IST

हर्षिल घाटी, उत्तराखंड के उत्तरकाशी जिले में बसी एक खूबसूरत जगह है, जो भागीरथी नदी के किनारे 2,745 मीटर (9005 फीट) की ऊंचाई पर स्थित है. यह घाटी अपनी प्राकृतिक सुंदरता, सेब के बागानों और गंगोत्री जैसे तीर्थ स्थल के रास्ते के लिए जानी जाती है. लेकिन इस घाटी की भूगर्भीय संरचना और भौगोलिक स्थिति इसे भूकंप, बाढ़ और फ्लैश फ्लड जैसी प्राकृतिक आपदाओं के प्रति बेहद संवेदनशील बनाती है. आइए, वैज्ञानिक तथ्यों और शोध के आधार पर समझते हैं कि हर्षिल घाटी की जियोलॉजी कैसी है? ये आपदाएं क्यों बार-बार आती हैं? 

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हर्षिल घाटी के पहाड़ हर साल खिसक रहे हैं 

हर्षिल घाटी गढ़वाल हिमालय का हिस्सा है, जो दुनिया की सबसे युवा और भूगर्भीय रूप से सक्रिय पर्वत श्रृंखलाओं में से एक है. हिमालय का निर्माण भारतीय और यूरेशियन टेक्टोनिक प्लेटों के टकराव से हुआ है, जो आज भी हर साल 40-50 मिलीमीटर की रफ्तार से एक-दूसरे की ओर बढ़ रही हैं. इस टकराव से पर्वतों में भारी दबाव पैदा होता है, जिसके कारण भूकंप, भूस्खलन और चट्टानों का टूटना आम है.

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54 करोड़ साल पुरानी है हर्षिल घाटी की मिट्टी

हर्षिल घाटी की मिट्टी और चट्टानें मुख्य रूप से शिस्टोज फिलाइट, फिलाइट और स्लेटी फिलाइट से बनी हैं, जो कैम्ब्रियन युग (लगभग 54 करोड़ साल पुरानी) की हैं. इसके अलावा, यहां चूना पत्थर, मैग्नेसाइट और कुछ धातुओं के भंडार भी मिलते हैं. भागीरथी नदी के किनारे रेत, बजरी और बड़े-बड़े पत्थर (एलुवियल सामग्री) भी पाए जाते हैं, जो नदी के बहाव से जमा होते हैं. ये एलुवियल मिट्टी और चट्टानें ढीली होती हैं, जिसके कारण भूस्खलन और बाढ़ का खतरा बढ़ जाता है.

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भूकंप: हर्षिल क्यों है जोखिम में?

हर्षिल घाटी भूकंपीय जोन IV और V में आती है, जो भारत के सबसे ज्यादा भूकंप-संवेदनशील क्षेत्रों में गिने जाते हैं. इन जोनों में 7.0 या उससे अधिक तीव्रता वाले भूकंप का खतरा रहता है. भारतीय भूवैज्ञानिक सर्वेक्षण (GSI) के अनुसार, हिमालय क्षेत्र में भूकंप का मुख्य कारण भारतीय और यूरेशियन प्लेटों का टकराव है, जिससे चट्टानों में तनाव जमा होता है और अचानक रिलीज होने पर भूकंप आता है.

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वैज्ञानिक तथ्य: वाडिया इंस्टीट्यूट ऑफ हिमालयन जियोलॉजी के शोध बताते हैं कि उत्तराखंड में छोटे-मोटे भूकंप (3.0-4.0 तीव्रता) अक्सर आते रहते हैं. ये छोटे भूकंप बड़े भूकंप (8.0 तीव्रता तक) की आशंका को बढ़ाते हैं.

उदाहरण: 1991 में उत्तरकाशी में आए 6.6 तीव्रता के भूकंप ने हर्षिल और आसपास के इलाकों में भारी नुकसान पहुंचाया था. भूकंप न केवल इमारतों को नष्ट करते हैं, बल्कि भूस्खलन और ग्लेशियर टूटने जैसी घटनाओं को भी ट्रिगर करते हैं.

बाढ़ और फ्लैश फ्लड: क्यों बार-बार तबाही?

हर्षिल घाटी में बाढ़ और फ्लैश फ्लड की घटनाएं मॉनसून के मौसम में आम हैं. इसके कई कारण हैं...

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खड़ी ढलानें और संकरी घाटियां: हर्षिल घाटी की भौगोलिक संरचना में खड़ी ढलानें और संकरी घाटियां हैं. जब भारी बारिश होती है, तो पानी तेजी से नीचे बहता है, जिससे बाढ़ और फ्लैश फ्लड का खतरा बढ़ जाता है. 

भारी बारिश और बादल फटना: भारतीय मौसम विज्ञान विभाग के आंकड़ों के अनुसार, उत्तराखंड में मॉनसून के दौरान (जून-सितंबर) औसतन 1000-1500 मिमी बारिश होती है. अगस्त में यह बारिश सबसे ज्यादा होती है. बादल फटने की घटनाएं, जैसे कि 2013 की केदारनाथ त्रासदी में देखी गई, फ्लैश फ्लड का प्रमुख कारण हैं.

ग्लेशियल लेक आउटबर्स्ट फ्लड (GLOF): हर्षिल के आसपास गंगोत्री ग्लेशियर जैसे कई हिमनद यानी ग्लेशियर हैं. जलवायु परिवर्तन के कारण ये ग्लेशियर तेजी से पिघल रहे हैं, जिससे हिमनदीय झीलें बन रही हैं. अगर ये झीलें टूटती हैं, तो अचानक बाढ़ आ सकती है. उदाहरण के लिए, 2013 में चोराबारी ग्लेशियर की झील टूटने से केदारनाथ में भारी तबाही हुई थी.

भूस्खलन और नदी अवरोध: भूस्खलन के कारण नदियां अवरुद्ध हो सकती हैं, जिससे अस्थायी झीलें बनती हैं. इनके टूटने से बाढ़ आती है. 2021 में चमोली की ऋषिगंगा और धौलीगंगा में ऐसा ही हुआ था, जब ग्लेशियर टूटने और भूस्खलन से बाढ़ ने तपोवन बांध को नष्ट कर दिया.

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एलुवियल मिट्टी का प्रभाव: हर्षिल घाटी में नदी किनारों पर जमा एलुवियल मिट्टी (रेत, बजरी, और मलबा) ढीली होती है. भारी बारिश या भूकंप में यह आसानी से बह जाती है, जिससे भूस्खलन और बाढ़ का खतरा बढ़ता है.

मानवीय गतिविधियों का योगदान

हर्षिल घाटी में प्राकृतिक आपदाओं का खतरा केवल प्रकृति की देन नहीं है. मानवीय गतिविधियां भी इसे बढ़ा रही हैं...

  • अनियोजित निर्माण: सड़कों, सुरंगों और जलविद्युत परियोजनाओं के लिए पहाड़ों में ड्रिलिंग और विस्फोट चट्टानों को कमजोर करते हैं. उदाहरण के लिए, ऋषिकेश-कर्णप्रयाग रेल लाइन के लिए बनाई जा रही सुरंगें भूस्खलन का कारण बन रही हैं.
  • पर्यटन का दबाव: हर्षिल और गंगोत्री जैसे इलाकों में हर साल लाखों पर्यटक आते हैं. इससे जंगलों की कटाई, कचरा और प्राकृतिक संसाधनों पर दबाव बढ़ता है.
  • जलवायु परिवर्तन: ग्लेशियरों का तेजी से पिघलना और अनियमित बारिश का पैटर्न हर्षिल में फ्लैश फ्लड को बढ़ावा दे रहा है.

समाधान और आपदा प्रबंधन

उत्तराखंड सरकार और वैज्ञानिक समुदाय ने हर्षिल जैसे संवेदनशील इलाकों में आपदाओं से निपटने के लिए कई कदम उठाए हैं...

  • अर्ली वॉर्निंग सिस्टम: यू-प्रिपेयर स्कीम के तहत बाढ़ और भूस्खलन की चेतावनी देने के लिए सेंसर और सैटेलाइट आधारित सिस्टम लगाए जा रहे हैं.
  • आपदा प्रबंधन ढांचा: उत्तराखंड में स्टेट डिजास्टर रिस्पॉन्स फोर्स (SDRF) और स्टेट डिजास्टर मैनेजमेंट अथॉरिटी (SDMA) सक्रिय हैं. हर जिले में आपदा प्रबंधन के लिए 50 लाख रुपये का फंड भी उपलब्ध है.
  • टिकाऊ विकास: वैज्ञानिक सलाह देते हैं कि निर्माण कार्यों को भूकंपीय जोन और पर्यावरण को ध्यान में रखकर किया जाए। छोटे और पर्यावरण-अनुकूल बांध बनाने पर जोर देना चाहिए.
  • जंगल संरक्षण: जंगलों को बचाकर और पेड़ लगाकर भूस्खलन को कम किया जा सकता है. हर्षिल में देवदार के जंगल इस दिशा में मददगार हो सकते हैं.
  • स्थानीय जागरूकता: स्थानीय लोगों को आपदा प्रबंधन की ट्रेनिंग दी जा रही है ताकि वे आपात स्थिति में तुरंत कार्रवाई कर सकें.
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