राहुल गांधी को लोकसभा चुनाव के नतीजों से बहुत बड़ा सपोर्ट मिला. और, उसी का असर है कि कांग्रेस ने हरियाणा और दिल्ली चुनाव अकेले लड़ने का फैसला किया. झारखंड और महाराष्ट्र में तो कांग्रेस गठबंधन के साथ बनी रही, लेकिन हरियाणा और दिल्ली में आम आदमी पार्टी के साथ कोई समझौता नहीं हो सका - और अब दिल्ली चुनाव की तरह बिहार में भी कांग्रेस का वैसा ही तेवर नजर आ रहा है.
बिहार चुनाव से पहले कांग्रेस ने गुजरात पर काम करना शुरू कर दिया है. बिहार में तो चुनाव इसी साल होना है, लेकिन गुजरात में 2027 में, दो साल बाद. कांग्रेस अधिवेशन के बाद तो साफ हो गया है कि राहुल गांधी गुजरात में बिहार से ज्यादा दिलचस्पी ले रहे हैं. ये बात तो वैसे भी काफी पहले ही साफ हो गई थी.
लोकसभा में विपक्ष के नेता बनने के बाद राहुल गांधी ने कहा था, आप लिखकर ले लो... आपको इंडिया गठबंधन गुजरात में हराने जा रहा है.
तब से अभी तक बस यही फर्क आया है कि दिल्ली के बाद बिहार में भी इंडिया ब्लॉक टूट की कगार पर दिखाई पड़ रहा है, और गुजरात तक बने रहने की तो कोई संभावना ही नहीं दिखाई देती. लोकसभा चुनाव में कांग्रेस और आम आदमी पार्टी मिलकर गुजरात में चुनाव लड़े थे, लेकिन विधानसभा में तो दूर दूर तक ऐसा कुछ दिखाई नहीं पड़ रहा है.
ये तो अभी से साफ हो गया है कि कांग्रेस अकेले दम पर बीजेपी से मुकाबले के लिए खुद को तैयार कर रही है. और, तैयारियों में कांग्रेस के भीतर भी आमूल चूल परिवर्तन के संकेत दिये गये हैं - सवाल है कि क्या 10 साल बाद कांग्रेस के नये सिरे से एक्टिव होने से बीजेपी के लिए परेशान होने जैसी कोई बात है क्या?
10 साल बाद कांग्रेस को कितनी उम्मीदें
2022 का विधानसभा चुनाव राहुल गांधी ने गुजरात कांग्रेस के हवाले कर दिया था. राहुल गांधी खुद भारत जोड़ो यात्रा पर निकले थे, और प्रियंका गांधी वाड्रा हिमाचल प्रदेश चुनाव में व्यस्त थीं. नतीजे भी वैसे ही आये थे, लेकिन 2027 के लिए 2017 जैसी सक्रियता महसूस की जा रही है.
कांग्रेस अधिवेशन से आई खबरों से तो ऐसे ही संकेत मिल रहे हैं. महीना भर पहले गुजरात दौरे पर गये राहुल गांधी ने कहा था कि गुजरात कांग्रेस की लीडरशिप में दो तरह के लोग हैं. ऐसे लोगों के बारे में राहुल गांधी का कहना था कि जो विचारधारा के साथ हैं, वे तो जनता के साथ खड़े हैं, लेकिन दूसरी कैटेगरी वालों में आधे बीजेपी से मिले हुए हैं.
ऐसे नेताओं को राहुल गांधी ने तभी हटाये जाने की बात बोल दी थी, और अब तो मल्लिकार्जुन खड़गे ने भी कह दिया है कि ऐसे लोग वीआरएस ले लें. जाहिर है, अपने से नहीं हटेंगे तो जबरन हटा दिया जाएगा, या फिर हाशिये पर भेज दिया जाएगा.
अब सवाल है कि राहुल गांधी गुजरात में क्या क्या बदलाव करने वाले हैं. कुछ बातें तो कांग्रेस अधिवेशन के आयोजन से ही साफ हो गई हैं. महात्मा गांधी के कांग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष बनने की 100वीं वर्षगांठ और सरदार पटेल की 150वीं जयंती दोनो से कांग्रेस ने जुड़ने की कोशिश की. तभी तो अधिवेशन के लिए साबरमती आश्रम और सरदार स्मारक जैसी जगहें भी चुनी गईं.
राहुल गांधी की सीधी लड़ाई प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और उनके साथी केंद्रीय मंत्री अमित शाह से है. ये दोनो गुजरात से ही आते हैं, और यही वजह है कि राहुल गांधी 2017 के बाद एक बार फिर गुजरात पर फोकस कर रहे हैं.
2017 के गुजरात चुनाव से पहले कांग्रेस का एक कैंपेन काफी हिट रहा. 'गुजरात गांडो थयो छे. कैंपेन में बीजेपी के गुजरात मॉडल को टार्गेट किया गया था. कैंपेन की वजह से बीजेपी परेशान हो उठी थी, और आखिर में अमित शाह ने मैदान में मोदी को उतार दिया, तब कहीं जाकर कांग्रेस ने कैंपेन रोका.
तब कांग्रेस के कैंपेन का ऐसा असर हुआ कि बीजेपी के लिए 100 सीटों के आंकड़े तक पहुंचना मुश्किल हो गया था. लेकिन, पांच साल बाद सब कुछ उलट पलट गया. बीजेपी तो रिकॉर्ड सीटों पर जीती ही, आम आदमी पार्टी ने भी कांग्रेस के हिस्से की 5 सीटों पर हाथ साफ कर दिया.
अब एक बार फिर कांग्रेस नई रणनीति और नये कैंपेन शुरू करने जा रही है. नये कैंपेन को नाम दिया गया है, ‘नूतन गुजरात, नूतन कांग्रेस’. कांग्रेस अधिवेशन में नेताओं ने संकल्प लिया है कि तीन दशक बाद सत्ता में वापसी के लिए वे पूरी ताकत झोंक देंगे. कांग्रेस महासचिव केसी वेणुगोपाल का दावा है कि 15 अप्रैल से गुजरात में बदलाव की प्रक्रिया शुरू हो जाएगी.
कांग्रेस की तैयारी कितनी दमदार
2022 के विधानसभा चुनाव में बीजेपी ने गुजरात की 182 में से 156 सीटें जीत कर रिकॉर्ड दर्ज किया था. पहले ऐसा रिकॉर्ड कांग्रेस ने 1985 में 149 सीटें जीतकर बनाया था, लेकिन इसके बाद से कांग्रेस का असर और नंबर दोनो कम होता गया.
पांच साल पहले हुए चुनाव में कांग्रेस कांग्रेस 17 सीटों पर सिमट गई थी. अब तो गुजरात में कांग्रेस के पास सिर्फ 12 विधायक ही रह गये हैं, और बीजेपी 161 सीटों पर पहुंच चुकी है - चूंकि दुनिया में कुछ भी असंभव नहीं होता, इसलिए कांग्रेस के टास्क को नामुमकिन तो नहीं कह सकते, लेकिन मुश्किल तो बहुत ही ज्यादा लगता है.
ये अच्छी बात है कि कांग्रेस नेतृत्व ऐसे नेताओं को ठिकाने लगाने का फैसला कर चुका है जो भरोसे के काबिन नहीं हैं, और निकम्मे नकारे बन चुके हैं. सत्ता के विकेंद्रीकरण वाली नीति के तहत जिलाध्यक्षों और जिले स्तर की कमेटियों को ज्यादा अधिकार देने का फैसला भी काम आएगा, लेकिन वक्त भी लगेगा. सब कुछ जल्दी से तो होने से रहा.
जोर शोर से जातिगत जनगणना अभियान चला रहे राहुल गांधी बहुजन समाज से फिर से जुड़ने की कोशिश कर रहे हैं, और ये संदेश देने की कोशिश है कि वे अपने भविष्य के लिए कांग्रेस का साथ दें, और हाथ मजबूत करें.
लेकिन, कांग्रेस की मुश्किल बस इतनी ही नहीं हैं. प्रस्ताव तो पारित हो जाते हैं, मुहिम भी शुरू हो जाती है, लेकिन जमीन पर काम ही नहीं होता. अक्सर ऐसे काम बताकर स्थानीय या छोटे नेताओं के भरोसे छोड़ दिया जाता है. अगर लालू यादव को मैसेज नहीं देना होता तो राहुल गांधी शायद ही बेगूसराय में कन्हैया कुमार के साथ पदयात्रा करते दिखे होते.
ओवरसीज कांग्रेस के अध्यक्ष सैम पित्रोदा ने भी तो ऐसी ही चिंता जताई है. कहते हैं, कांग्रेस के अधिवेशन में आइडियोलॉजी पर अच्छी चर्चा होती है, लेकिन एग्जीक्यूशन नहीं हो पाता. बीते कांग्रेस सम्मेलनों की याद दिलाते हुए सैम पित्रोदा पूछते हैं कि जो टास्क तय हुए थे, उनका क्या हुआ. लगता है कांग्रेस सैम पित्रोदा को उनकी ही भाषा में जवाब दे रही है, हुआ तो हुआ.
जब तक कांग्रेस अपनी कमजोर कड़ियों पर काम नहीं करती, कैसे मान लिया जाये कि बहुत कुछ होने वाला है - और तब तक बीजेपी को भी बहुत फिक्र करने की जरूरत नहीं लगती.
मृगांक शेखर