मोदी सरकार अपने महत्वाकांक्षी प्रोजेक्ट 'वन नेशन, वन इलेक्शन' पर बिल तो लाई, लेकिन कानूनी जामा नहीं पहना पाई है. इसी तरह कंटेंट क्रिएटर्स और ब्रॉडकास्टर को नियंत्रित करने वाला प्रस्तावित बिल भी आगे नहीं बढ़ पाया है. ऐसे में पीएम-सीएम और मंत्रियों को 30 दिन तक गंभीर अपराधों वाले आरोप में जेल में रहने पर कुर्सी से हटा दिए जाने का बिल भी किसी नतीजे पर पहुंचता नहीं दिखता.
वैसे भी केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने तीनों विधेयकों को संसद की संयुक्त समिति को भेजने के लिए लोकसभा में प्रस्ताव भी पेश कर दिया है. केंद्र सरकार के ये प्रस्तावित 3 विधेयक हैं - केंद्र शासित प्रदेश (संशोधन) विधेयक 2025, संविधान (130वां संशोधन) विधेयक 2025 और जम्मू-कश्मीर पुनर्गठन (संशोधन) विधेयक 2025.
अव्वल तो प्रस्तावित विधेयक का कानून बनना मुश्किल है, क्योंकि ये पूरी तरह अव्यावहारिक है. जब दागी नेताओं के लिए दो साल की सजा मुकर्रर होने पर एक्शन होता है, तो महीना भर में ये कैसे संभव हो सकता है? ऊपर से ये कानून न्याय के नैसर्गिक सिद्धांत के पूरी तरह खिलाफ हैं - बगैर ट्रायल के किसी को सजा कैसे दी जा सकती है.
सिर्फ जमानत नहीं मिल पाने ये 30 दिन तक जेल में रह जाने से कोई मुजरिम तो हो नहीं जाता. नंबी नारायणन को तो बेकसूर साबित होने में दो दशक से ज्यादा समय लग गया, एक महीने में किसी को सजा दे देना तो अपने आप में नाइंसाफी होगी.
1.क्या पूरा NDA एकमत होगा इस बिल को कानून बनाने के लिए?
विपक्षी पार्टियों की तरह बीजेपी और उसके सहयोगी संगठन भी राजनीतिक विरोधी सरकारों पर बदले की कार्रवाई का आरोप लगाते रहे हैं. एनडीए सरकार चंद्रबाबू नायडू पर ही ढेर सारे केस लगाए गए हैं - और नीतीश कुमार की तरह ही चंद्रबाबू नायडू भी एनडीए के मजबूत सहयोगियों में से एक हैं.
अगर ये कानून हकीकत में लागू हुआ, तो चाहे वो चंद्रबाबू नायडू हों या फिर नीतीश कुमार, दोनों ही इसके दायरे में आ जाएंगे. ऐसे में से किसी को भी ये मंजूर नहीं होगा. और, ये दोनों ही क्यों चिराग पासवान या जीतनराम मांझी भी अपने लिए अभी से भविष्य की मुसीबत क्यों मोल लेंगे.
अभी तो बीजेपी एनडीए के बाकी सहयोगियों के साथ एक दूसरे के प्रति मददगार की भूमिका में है, लेकिन कानून बन जाने पर केंद्र की सत्ता में जो हो उसके लिए मामला एकतरफा हो जाएगा. क्योंकि, केंद्रीय जांच एजेंसियां ही ऐसे कानूनो का इस्तेमाल कर पाएंगी, जो जिनके गलत इस्तेमाल का आरोप केंद्र सरकार पर लगता रहा है.
2. केंद्र बनाम राज्य की लड़ाई को नया मोर्चा बन जाएगा ये कानून
सीबीआई और ईडी जैसी एजेंसियों की बात और है, लेकिन किसी भी राज्य की पुलिस में तो हिम्मत होगी नहीं कि वहां के सीएम या किसी मंत्री को जेल में डाल दें. मुमकिन है कानून बन जाने पर केंद्रीय एजेंसियों से निबटने के लिए राज्य सरकारें भी कानून बना लें.
जैसे मौजूदा कानूनों के रहते हेमंत सोरेन और अरविंद केजरीवाल जांच एजेंसियों के नोटिस को परवाह किये बगैर अपना काम करते रहे, जब तक कि अदालत से मदद मिलना बंद नहीं हो गया. आगे भी ये होता ही रहेगा, और केंद्र सरकार और राज्य सरकारों के बीच लड़ाई का एक नया मोर्चा खड़ा हो जाएगा.
3. विपक्षी दलों के बीच भी नहीं बन पाई है एक राय
विपक्षी दलों की बात कौन कहे, प्रस्तावित कानूनों को लेकर तो अभी कांग्रेस में ही मतभेद दिखाई पड़ रहा है. हालांकि, बिल का सपोर्ट कांग्रेस सांसद शशि थरूर ने ही किया है, जो पहले से ही तमाम मुद्दों पर पार्टी से अलग रुख अपनाते रहे हैं. क्रिमिनल कानूनों के पक्ष में शशि थरूर का कहना है, अगर आप 30 दिन जेल में बिताएं, तो क्या आप मंत्री बने रह सकते हैं? ये सामान्य ज्ञान की बात है... मुझे इसमें कुछ भी गलत नहीं लगता.
लेकिन कांग्रेस महासचिव प्रियंका गांधी वाड्रा कहती हैं, मैं इसे पूरी तरह से क्रूर मानती हूं, क्योंकि यह हर चीज के खिलाफ है. इसे भ्रष्टाचार विरोधी उपाय कहना लोगों की आंखों पर पर्दा डालने जैसा है.
ये चीज पहले भी देखी जा चुकी है. दागी नेताओं को बचाने वाला पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के नेतृत्व वाली यूपीए सरकार के दौरान ऐसे ही एक ऑर्डिनेंस की कॉपी फाड़कर राहुल गांधी ने विरोध जताया था. माना जा रहा था कि लालू यादव को चारा घोटाले में हुई सजा के प्रभाव से बचाने के लिए वो अध्यादेश लाया गया था. लेकिन, राहुल गांधी को वो मंजूर न था. ये बात अलग है कि आज लालू यादव के साथ राहुल गांधी एक मंच पर दिखाई देने लगे हैं.
4. न्यायपालिका को 30 दिन के भीतर सुनवाई के लिए बाध्य कर पाएगा ये कानून?
अभी जो कानून है, उसमें दो साल की सजा मिलने पर ही कोई सदस्यता जाती है. प्रस्तावित कानूनों में भी आरोपी के खिलाफ एक्शन तभी हो सकता है जब पांच साल की सजा वाला गंभीर अपराध हो. क्योंकि, 30 दिन तक हिरासत की शर्त भी तभी पूरी हो सकेगी.
लेकिन ये तो हो नहीं सकता कि आरोपों के साबित हुए बगैर ही सजा का प्रावधान कर दिया जाए. अगर ऐसा हुआ तो ये नैसर्गिक न्याय के सिद्धांत के खिलाफ चला जाएगा, जिसे पूरी दुनिया में माना जाता है - और ऐसी भी कोई बाध्यता नहीं है कि 30 दिन के भीतर सुनवाई पूरी करने का प्रावधान हो, फिर तो ये सब फिजूल की कवायद ही लगती है.
5. बिल के संसदीय समिति को भेजे जाने की उम्मीद ज्यादा, और वहां भी नतीजे की उम्मीद कम
केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने बिल पेश करने के कुछ देर बाद ही कहा था कि सरकार बिल को जेपीसी को भेजने का प्रस्ताव रखती है, लेकिन उसके बाद भी विपक्ष ने बिल का विरोध किया. AIMIM नेता असदुद्दीन ओवैसी ने तो तीनों विधेयकों का विरोध किया ही, टीएमसी सांसद कल्याण बनर्जी ने तो बिल पेश होते ही नारेबाजी शुरू कर दी थी. कांग्रेस सांसद केसी वेणुगोपाल ने अपनी सीट से बिल की कॉपी फाड़कर फेंक दी थी.
अमित शाह के 21 सदस्यों वाली जेपीसी के पास बिल को भेजने का प्रस्ताव ध्वनि मत से मतदान के दौरान विपक्ष ने वेल से ही विरोध दर्ज कराया. लेकिन, प्रस्ताव के ध्वनिमत से पारित भी हो गया.
मृगांक शेखर