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...जिसने शहनाई प्रेम को ही 'इबादत' बना लिया

aajtak.in
  • 21 मार्च 2016,
  • अपडेटेड 12:00 AM IST
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आकाशवाणी और दूरदर्शन पर अल सुबह बजने वाली मंगल ध्वनि उस्ताद बिस्मिला खान की शहनाई की तान है, जिसके लिए उन्होंने विशेष एलपी तैयार कराया था.

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एक समय था जब इस मंगल ध्वनि से ही पूरे देश की सुबह होती थी.

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पेंगुइन द्वारा प्रकाशित यतीन्द्र मिश्र की उस्ताद बिस्मिल्ला खान पर लिखित किताब ‘सुर की बारादरी’ के मुताबिक इसके लिए 1957 में उस्ताद बिस्मिल्ला खान साहब ने एचएमवी के माध्यम से एक विशेष एलपी तैयार कराया था, जिसमें सुबह और शाम के अलग-अलग सात रागों को तीन-तीन मिनट के लिए बजाया गया है.

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बीते सालों में चौदह रागों का यह संग्रह अब आकाशवाणी और दूरदर्शन के मंगल ध्वनि का पर्याय बन गया.

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21 मार्च 1916 में बिहार के डुमराव में जन्मे बिस्मिल्ला खान कहा करते थे कि संगीत के बहुत से राग है और उनसे बनने वाली बहुत सारी रागनियां हैं.

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खान साहब आगे कहते थे कि बस यूं समझो कि बहुत सारे पुत्र हैं और उनकी भार्याएं हैं. उनसे पैदा होने वाले बच्चे नवासे और नवासियां हैं.

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गंगा-जमुनी तहजीब की प्रतिमूर्ति खान साहब ने एक संस्मरण में बताया-पंचगंगा घाट पर बालाजी का मंदिर है, जहां हम और हमारे बड़े भाई शम्सुद्दीन घंटों रियाज करते थे. वहाँ पर हमने आठ आने में शहनाई बजाई है.

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किताब में बकौल खान साहब-हम बजा रहे थे, तब तक मंदिर से पंडितजी निकलकर आए और बोले ‘हियां आ लड़के, तू रोज हियां बजाता है, मंदिर के सामने आरती के समय बजा दिया कर. हमने कहा एक रुपया लेंगे, फिर सौदा अठन्नी में पटा.

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इस्लाम में संगीत की कथित मनाही के बारे में उन्होंने किताब में कहा कि संगीत वह चीज है, जिसमें जात पात कुछ नहीं है. संगीत किसी मजहब का बुरा नहीं चाहता.

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मुझे लगता है कि इस्लाम में मौसिकी को इसलिए हराम कहा गया कि अगर इस जादू जगाने वाली कला को रोका न गया, तो एक से एक फनकार इसकी रागनियों में डूबे रहेंगे कि दोपहर शाम की नमाज कजा हो जाएगी.

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किताब में उन्होंने बनारस के बारे में कहा कि हमने कुछ पैदा नहीं किया है. जो हो गया, वह उसका करम है. हां अपनी शहनाई में जो लेकर हम चले है, वह बनारस का अंग है.

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जल्दबाजी नहीं करते बनारस वाले, बड़े इत्मीनान से बोल लेकर चलते हैं. जिंदगी भर मंगलागौरी और पक्का महल में रियाज करते जवान हुए हैं तो कहीं न कहीं बनारस का रस टपकेगा हमारी शहनाई में.

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उन्होंने बताया कि 20-22 बरस की उम्र में एक दफा वे रियाज कर रहे थे. अचानक तेज खुशबू आई. मुझे लगा इत्र तो लगाया नहीं खुशबू कहां से आ रही है.

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आंखें खोली तो देखा, सामने काफी लंबे और गोरे से बाबा खड़े है. लंबी दाढी, चौड़ी आँखे, हाथ में डंडा, कमर में बस एक लंगोटी.

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किताब के मुताबिक, उस्ताद उन्हें देखकर काफी डर गए, तभी बाबा हंसते हुए बोले, ‘वाह बेटा वाह, बजा, बजा, बजा. जा मजा करेगा.’

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इस वाकये को पहले मामू ने बताने से मना किया था, लेकिन घबराहट में उन्होंने यह वाकया जब मामू को सुनाया तो उन्होंने एक तमाचा लगाया.

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किताब के अनुसार, 21 अगस्त 2006 को बनारस में लंबे सफर के लिए जाने वाले उस्ताद के साथ दो और वाकये हुए, जिन्हें उन्होंने कभी किसी से नहीं कहा.

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गंगा जमुनी तहजीब वाले बनारस शहर की पहचान बन चुके विस्मिल्ला खान इस शहर को छोड़ने के हर प्रस्ताव को कड़ाई से ठुकरा दिया करते थे. इसी शहर में उनका स्थायी मकबरा न होने की बात उनके प्रशंसकों को बेहद सता रही है.

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उस्ताद बिस्मिल्ला खान ने बचपन से ही शहनाई प्रेम को इबादत बना लिया और उन्हें संगीत के लिए देवी सरस्वती के प्रति श्रद्धा व्यक्त करने और मंदिरों और गंगा के घाट पर शहनाई बजाने में कभी परहेज नहीं रहा.

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भारतीय समाज में शादी एवं अन्य शुभ समारोह में घर की ड्योढ़ी तक सीमित शहनाई को अंतरराष्ट्रीय फलक तक पहुंचाने में उस्ताद ने लंबा सफर किया.

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यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि आज देश विदेश में शहनाई की लोकप्रियता का जो मुकाम है वह सिर्फ उन्हीं के प्रयासों की देन है.

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उन्हें भारत रत्‍न के अलावा पद्मश्री और पद्मभूषण और पद्म विभूषण भी मिल चुका था.

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यही नहीं उन्हें संगीत नाटक अकादमी तानसेन अवार्ड जैसे तमाम प्रतिष्ठित पुरस्कार भी मिले.

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भारत को आजादी मिलने के बाद 1947 में उस्ताद बिस्मिल्ला खान ने लाल किले पर शहनाई बजाई.

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इसी प्रकार पहले गणतंत्रता दिवस की पूर्व संध्या पर भी उन्हें शहनाई बजाने का ऐतिहासिक अवसर मिला.

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उन्होंने अफगानिस्तान, यूरोप, ईरान, इराक, कनाडा, पश्चिम अफ्रीका, अमेरिका, सोवियत संघ, हांगकांग तथा तकरीबन सभी प्रमुख देशों की राजधानी को अपनी शहनाई की धुन से मोह लिया था.

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उस्ताद ने कुछ फिल्मों के लिए भी अपनी शहनाई की रागों का योगदान दिया.

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इस महान संगीतकार का संक्षिप्त बीमारी के बाद 21 अगस्त 2006 को निधन हुआ.

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उस्ताद कहा करते थे कि यदि दुनिया का अंत हो भी गया तो भी संगीत जिंदा रहेगा.भारतीय संगीत के जीवित रहने तक शहनाई और उस्ताद बिस्मिल्ला खान का नाम जिंदा रहेगा.

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