जब रूस और चीन के बीच छिड़ गई थी जंग, अलर्ट पर रखी गई थीं परमाणु मिसाइलें

रूस और चीन अच्छे दोस्त समझे जाते हैं. आज भी दोनों के संबंध काफी अच्छे हैं, लेकिन एक समय ऐसा भी आया, जब ये रिश्ता बिगड़ गया था. दोनों के बीच युद्ध शुरू हो चुका था. काफी मुश्किल से हालात संभले और लंबे समय तक तनातनी बनी रही. यह कहानी है सिनो-सोवियत बॉर्डर विवाद की, जिसने दोनों दोस्तों के बीच बना दिए थे युद्ध जैसे हालात.

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सिनो-सोवियत बॉर्डर विवाद की वजह से चीन और रूस के बीच शुरू हो गया था युद्ध (Photo - AFP) सिनो-सोवियत बॉर्डर विवाद की वजह से चीन और रूस के बीच शुरू हो गया था युद्ध (Photo - AFP)

सिद्धार्थ भदौरिया

  • नई दिल्ली,
  • 03 दिसंबर 2025,
  • अपडेटेड 1:10 PM IST

रूस और चीन के बीच फिलहाल दोस्ताना रिश्ता है, लेकिन एक समय ऐसा भी आया जब परिस्थितियां बिलकुल बदल गई. हालात यहां तक बिगड़ गए कि दोनों देशों ने एक दूसरे के खिलाफ सीमा पर परमाणु बम तक तैनात कर दिए थे. ये कहानी है सीनो-सोवियत विवाद की. जब इन दो महाशक्तियों के बीच एक तरह से युद्ध शुरू हो गया था.   

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2 मार्च 1969 की सुबह, सोवियत सीमा रक्षकों ने 30 चीनी सैनिकों का सामना करने के लिए प्रस्थान किया, जो चीन और सोवियत संघ के बीच उसुरी नदी पर स्थित एक छोटे से द्वीप, झेनबाओ  की ओर बढ़ रहे थे.

सिनो-सोवियत बॉर्डर विवाद की कहानी 
बिजनेस इनसाइडर की रिपोर्ट के मुताबिक, झेनबाओ द्वीप पर नियंत्रण विवादित था, लेकिन यह कोई विशेष रूप से असामान्य घटना नहीं लगती थी, क्योंकि 1964 से चीन-सोवियत सीमा पर ऐसी कई घटनाएं घट चुकी थीं. हालांकि कई घटनाओं में झगड़े हुए, जिनमें झेनबाओ में हुई कुछ घटनाएं भी शामिल थीं और कुछ में घातक बल का प्रयोग हुआ.

झेनबाओ द्वीप पर नियंत्रण को लेकर शुरू हुई झड़प 
1969 में जो झड़प शुरू हुई, वह एक जाल था. जैसे ही सोवियत सेना - जिसमें 60 सैनिक, दो बीटीआर बख्तरबंद गाड़ियों(एपीसी), एक ट्रक और एक कार शामिल थी - जमी हुई नदी पर स्थित द्वीप के पास पहुंची, चीनी सैनिकों ने, जिनमें पिछली रात द्वीप पर घुसे 300 सैनिक भी शामिल थे, गोलीबारी शुरू कर दी.इस झड़प में सात सोवियत सीमा रक्षक मारे गए. इनमें उनके कमांडर भी शामिल थे. दो घंटे तक चली भीषण गोलीबारी में मोर्टार, तोपखाने और टैंक-रोधी हथियारों का इस्तेमाल किया गया.

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रूस ने 200 से ज्यादा चीनी सैनिकों के मारे जाने का दावा किया 
इसके बाद अतिरिक्त बल तेजी से आगे बढ़े और जब लड़ाई बंद हुई, तो 31 सोवियत सैनिक मारे जा चुके थे और 14 घायल हो गए थे. एक बीटीआर नष्ट हो गया था. वहीं सोवियत सैनिकों ने 200 से ज़्यादा चीनी सैनिकों को मारने का दावा किया और दोनों पक्ष अपने-अपने क्षेत्र में वापस चले गए.

परमाणु मिसाइलों को हाई अलर्ट पर रख दिया गया
लड़ाई अभी खत्म नहीं हुई थी. आने वाले दिनों में, संघर्ष इतना तीव्र हो गया कि दोनों पक्षों ने अपनी परमाणु मिसाइलों को हाई अलर्ट पर रख दिया, जिससे दुनिया परमाणु युद्ध के कगार पर पहुंच गई.

घात लगाकर किए गए हमले के कुछ ही देर बाद, सोवियत सेना की अतिरिक्त टुकड़ियां घटनास्थल पर पहुंचीं और द्वीप पर मौजूद चीनियों पर हमला कर दिया. वे उन्हें खदेड़ने में कामयाब रहे, लेकिन तभी भारी तोपखाने और टैंक-रोधी गोलाबारी ने सोवियत सेना को पीछे हटने पर मजबूर कर दिया.

दोनों पक्षों ने एक-दूसरे पर बिना उकसावे के कार्रवाई करने का आरोप लगाया, चीन ने दावा किया कि सोवियत सेना ने पहले गोलीबारी की. द्वीप के चारों ओर कई दिनों तक छिटपुट लड़ाई चलती रही. चीनियों को पता नहीं था कि सोवियत सेना जवाबी हमले की तैयारी कर रही थी और भारी संख्या में टैंक और तोपखाने तैनात कर रही थी.

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15 मार्च को टैंकों और फाइटर जेट से शुरू हुआ हमला
15 मार्च को हमला शुरू हुआ. नए टी-62 टैंक समेत पचास टैंकों और एपीसी ने द्वीप पर या उसके आसपास मौजूद लगभग 2,000 चीनी सैनिकों पर नौ घंटे तक चली लड़ाई में हमला किया. सोवियत विमानों ने ऑपरेशन के समर्थन में 36 उड़ानें भरीं, और नए BM-21 मल्टीपल रॉकेट लांचर सहित सोवियत तोपखाने ने चीन में 4 मील दूर तक 10,000 राउंड फायर किए.

रूस ने चीन को दी थी परमाणु युद्ध की चेतावनी
लड़ाई के बाद दोनों पक्ष फिर से द्वीप से पीछे हट गए. सोवियत सेना ने ऑपरेशन कमांडर समेत 60 से ज़्यादा सैनिक खो दिए, लेकिन दावा किया कि उसने 800 से ज़्यादा चीनी सैनिकों को मार गिराया. यह निश्चित न होने के कारण कि चीन क्या प्रतिक्रिया देगा, सोवियत संघ ने सुदूर पूर्व में अपने सामरिक रॉकेट बलों को उच्च अलर्ट पर रखा, तथा सोवियत मीडिया ने चीन को परमाणु युद्ध की कीमत के बारे में चेतावनी दी.

ऐसे बातचीत के लिए टेबल पर आए दोनों देशों के नेता
झेनबाओ के आसपास बड़े पैमाने पर लड़ाई नहीं हुई, लेकिन वहां और सीमा पर अन्य स्थानों पर स्थिति महीनों तक तनावपूर्ण रही - अगस्त 1969 में चीन के सुदूर-पश्चिमी शिनजियांग क्षेत्र में सोवियत घात लगाकर किये गये हमले में 20 से अधिक चीनी सैनिक मारे गये.

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इन घटनाओं ने चीनी नेताओं को एहसास दिलाया कि वे युद्ध के कितने करीब पहुंच गए थे. सितंबर में, दोनों देश बातचीत पर लौटने पर सहमत हुए. सोवियत इरादों से अभी भी आशंकित, चीन ने 20 अक्टूबर को बातचीत शुरू होने तक अपनी परमाणु शक्तियां अलर्ट पर रखीं.

इस विवाद ने पश्चिम को सबसे ज्यादा हैरान किया
इस लड़ाई ने पश्चिम को सबसे ज़्यादा हैरान किया. सोवियत संघ और चीन प्रमुख साम्यवादी शक्तियां थीं और उन्हें साम्यवाद फैलाने के लिए मिलकर काम करने वाले भाइयों के रूप में देखा जाता था.

उन्होंने 1950 में एक पारस्परिक रक्षा संधि पर हस्ताक्षर किए थे. सोवियत संघ ने चीन की सेना को बड़े पैमाने पर प्रशिक्षित और सुसज्जित किया था और चीन के परमाणु हथियार कार्यक्रम को शुरू करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी.

रूस को लेकर माओ की धरणा से बिगड़ने लगी बात
माओत्से तुंग का मानना ​​था कि मास्को पश्चिम के साथ गंभीरता से टकराव करने से हिचकिचा रहा है, जैसा कि कोरिया में हुआ था, जहां चीन ने अमेरिका और संयुक्त राष्ट्र से लड़ाई लड़ी थी जबकि सोवियत संघ इससे दूर रहा था.

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रिश्ते तब और बिगड़ गए जब स्टालिन के उत्तराधिकारी निकिता ख्रुश्चेव ने गुप्त रूप से स्टालिन की निंदा की और डी-स्टालिनाइज़ेशन शुरू किया, जिसे माओ ने संशोधनवाद का कार्य बताया. ख्रुश्चेव ने अमेरिका के साथ परमाणु परीक्षण प्रतिबंध संधि पर भी बातचीत शुरू कर दी.

खुद को बड़ा कम्युनिस्ट ताकत बताने से बढ़ा टकराव
माओ ने कहना शुरू कर दिया कि सोवियत संघ चीन पर हावी होने की कोशिश कर रहा है और सोवियत संघ नहीं, बल्कि चीन ही प्रमुख साम्यवादी शक्ति होना चाहिए. 1960 तक, सभी सोवियत सलाहकार चीन छोड़ चुके थे, और मास्को ने चीन के परमाणु कार्यक्रम का समर्थन करने के अपने वादों से मुकर गया था.

कैसे शुरू हुआ चीन और रूस सीमा विवाद
चीन-सोवियत विभाजन के बीच , चीन अपनी सैन्य क्षमताओं का निर्माण जारी रखता रहा. चीन ने 1964 में अपना पहला परमाणु बम और तीन साल बाद एक हाइड्रोजन बम का विस्फोट किया. 1966 तक, उसकी सेना लगभग 40 लाख सैनिकों की हो गई थी.

इस पृष्ठभूमि में, चीन-सोवियत सीमा विवाद केंद्र में आ गया. चीन ने शिकायत की कि उसकी उत्तरी सीमाएं रूसी साम्राज्य के साथ अनुचित संधियों द्वारा निर्धारित की गई थीं और उन्हें संशोधित करने की आवश्यकता थी.

विवाद का केंद्र बन गया एक द्वीप
झेनबाओ द्वीप, जिसे सोवियत संघ दमांस्की द्वीप के नाम से जानता था, विवाद का केन्द्र बिन्दु बन गया, जबकि इसका कोई सामरिक महत्व नहीं था. नदी के चीनी हिस्से से मात्र 100 मीटर और सोवियत हिस्से से 400 मीटर की दूरी पर स्थित यह द्वीप निर्जन था, इसका सतही क्षेत्रफल मात्र 0.28 वर्ग मील था, तथा वर्ष के कुछ समय में यह पूरी तरह जलमग्न रहता था.

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1964 में सुलझ गया था विवाद
यह विवाद 1964 में लगभग सुलझ गया था, जब दोनों पक्ष झेनबाओ सहित लगभग 400 नदी द्वीपों पर चीन का नियंत्रण देने पर सहमत हो गए थे. लेकिन अन्य रूसी क्षेत्रों के बारे में माओ की टिप्पणियों के सार्वजनिक होने के बाद यह समझौता रद्द कर दिया गया.

इसके बाद सोवियत संघ ने सीमा का सैन्यीकरण कर दिया तथा 1969 तक अपनी सेना की संख्या 34 डिविजनों तक बढ़ा दी. इनमें 290,000 सैनिक थे. 1966 में मंगोलिया के साथ हस्ताक्षरित एक पारस्परिक रक्षा संधि के तहत हजारों और सोवियत सैनिकों को वहां तैनात करने की अनुमति दी गई, तथा 1967 में सोवियत संघ ने अपने सुदूर पूर्व में परमाणु हथियार भेज दिए.

दोनों तरफ से सीमा पर भारी संख्या में तैनात थे सैनिक
सीमा पर चीन की लगभग 59 डिविजनें थीं, जिनमें से अधिकांश केवल पैदल सेना और तोपखाने से बनी थीं. पहली मौत 5 जनवरी, 1968 को हुई, जब किलिकिन द्वीप पर हुई झड़प में चार चीनी मारे गए. क्रोधित होकर माओ और चीन के केंद्रीय सैन्य आयोग ने जवाब मांगा और इसके लिए झेनबाओ को स्थान के रूप में चुना गया.

इन लड़ाइयों का चीन-सोवियत संबंधों पर गहरा असर पड़ा. शीत युद्ध के बाकी समय में दोनों देशों के बीच एक-दूसरे के प्रति गहरा अविश्वास बना रहा और इसने अन्य साम्यवादी देशों को एक पक्ष लेने पर मजबूर कर दिया. इस घटना के दस साल बाद, सोवियत संबंधों को लेकर चिंता के चलते चीन ने वियतनाम पर आक्रमण कर दिया.

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अमेरिका ने उठाया विवाद का लाभ
अमेरिका ने इस विभाजन का लाभ उठाने का निर्णय लिया और सोवियत संघ का मुकाबला करने के लिए चीन को शामिल किया.1971 में, राष्ट्रपति रिचर्ड निक्सन के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार हेनरी किसिंजर ने गुप्त रूप से चीन का दौरा किया. निक्सन ने एक साल से भी कम समय बाद आधिकारिक यात्रा की, जिससे दोनों देशों के बीच दो दशकों से चले आ रहे संबंधों का अंत हो गया.

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झेनबाओ द्वीप पर अब चीन का है पूर्ण नियंत्रण
इन लड़ाइयों से चीनी सेना को दीर्घकालिक लाभ भी हुआ. एक कब्ज़े वाले सोवियत टी-62 टैंक को रिवर्स इंजीनियरिंग के ज़रिए चीन के टाइप 69 और टाइप 79 मुख्य युद्धक टैंकों का मॉडल बनाया गया. मूल टी-62 आज भी बीजिंग के एक सैन्य संग्रहालय में प्रदर्शित है. चीन को 1991 में झेनबाओ द्वीप पर पूर्ण नियंत्रण प्राप्त हो गया तथा शेष विवादों का अंततः 2004 में निपटारा कर दिया गया.

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