Bihar Laxmanpur Bathe Massacre: बिहार के इतिहास में कई ऐसे काले अध्याय लिखे गए हैं, जिनके नाम से ही लोग कांप जाते हैं. 28 साल से जहानाबाद का लक्ष्मणपुर बाथे गांव खून से लिखी ऐसी ही एक खौफनाक दास्तान को खुद में समेटे हुए है. जब-जब उस दास्तान का जिक्र कहीं होता है, तो 58 बेगुनाहों की चीख पुकार भरी यादें आज भी कलेजा छील देती है. 'बिहार की क्राइम कथा' में आपको बताएंगे सूबे के सबसे बड़ा नरसंहार की वो कहानी, जिसे सुनकर आज भी लोगों का दिल दहल जाता है. वो नरसंहार जिसके पीड़ित आज भी इंसाफ का इतंजार कर रहे हैं.
भूमि विवाद और जातीय तनाव
लक्ष्मणपुर बाथे, बिहार के जहानाबाद जिले में सोन नदी के किनारे बसा एक छोटा-सा गांव है, जहां 180 दलित परिवार मुख्य रूप से दुसाध जाति से आते थे. यह इलाका 1990 के दशक में भूमि विवादों और जातीय तनाव का केंद्र रहा, जहां जमींदारों का वर्चस्व और मजदूरों की मांग आम टकराव का कारण बनी. गांव में बिजली, सड़क जैसी सुविधाओं का अभाव था, जो इसे अलग-थलग रखता था.
दलित समुदाय के तमाम लोग कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया (मार्क्सवादी-लेनिनवादी) लिबरेशन (सीपीआई-एमएल) के समर्थक थे, जो भूमि सुधार और अधिकारों के लिए संघर्ष कर रहे थे. यह गांव नक्सली हिंसा और ऊपरी जातियों के विरोध का प्रतीक बन चुका था. वहां रहने वालों की जिंदगी डर और संघर्ष से भरी थी.
उभरता जातीय संघर्ष
1990 के दशक में बिहार का मध्य क्षेत्र जातीय युद्ध का मैदान बन गया था, जहां ऊपरी जातियां जैसे भूमिहार और राजपूत जमींदारों के हितों की रक्षा के लिए संगठित हो रही थीं. नक्सली समूह, खासकर माओवादी कम्युनिस्ट सेंटर (MCC) और सीपीआई-एमएल, दलितों और पिछड़ों को संगठित कर भूमि हड़पने और मजदूरी बढ़ाने की लड़ाई लड़ रहे थे. 1992 के बारा नरसंहार में 37 ऊपरी जाति के लोगों की हत्या ने इस तनाव को चरम पर पहुंचा दिया था, जिसे नक्सलियों का काम माना गया. इसका जवाब देने के लिए 1994 में रणवीर सेना का गठन हुआ. रणवीर सेना की स्थापना भोजपुर के बेलाउर में ब्राह्मण जमींदार सुरेश सिंह ने की थी. यह सेना ऊपरी जातियों की निजी मिलिशिया बन गई थी, जो नक्सली हमलों का बदला लेने का दावा करती थी.
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रणवीर सेना का उदय
रणवीर सेना का नाम 19वीं सदी के योद्धा रणवीर सिंह से प्रेरित था. इस संगठन ने जल्द ही हिंसा का सिलसिला शुरू कर दिया. 1996 के बथानी टोला नरसंहार में 21 दलितों और मुसलमानों की हत्या इसका उदाहरण था, जो बारा का बदला था. 1997 में हाइबासपुर में 16 लोगों को मार डाला गया. ये हमले ऐसी दलित बस्तियों को निशाना बनाकर किए जाते थे, जहां सीपीआई-एमएल का प्रभाव था. पप्पू सिंह जैसे रणवीर सेना के नेताओं को ऊपरी जातियों के जमींदारों से फंडिंग मिलती थी. लालू प्रसाद यादव की आरजेडी के नेतृत्व में चलने वाली बिहार सरकार की कानून-व्यवस्था पर सवाल उठ रहे थे. रणवीर सेना को बाद में प्रतिबंधित कर दिया गया, लेकिन उसके हमले जारी थे. लक्ष्मणपुर बाथे को नक्सली समर्थकों का गढ़ मानकर निशाना बनाया गया.
डर और गुस्से की वजह बना बारा नरसंहार
1992 में गया जिले में बारा नरसंहार हुआ था. इसे भी लक्ष्मणपुर बाथे की त्रासदी का प्रत्यक्ष कारण माना गया. उसमें एमसीसी ने 37 भूमिहारों को मार डाला था, जिसमें महिलाएं और बच्चे शामिल थे. यह हमला भूमि विवाद पर आधारित था, जहां दलित मजदूरों ने हड़ताल की थी. इस घटना ने ऊपरी जातियों में डर और गुस्सा पैदा किया, जिससे रणवीर सेना को मजबूत समर्थन मिला. बारा के बाद कई छोटे हमले हुए, लेकिन 1997 तक तनाव चरम पर था. लक्ष्मणपुर बाथे के दलितों को बारा के लिए जिम्मेदार ठहराया गया, हालांकि वे सीधे तौर पर इसमें शामिल नहीं थे.
30 नवंबर 1997 - हमले की खूनी साजिश
उस दिन लक्ष्मणपुर बाथे से सटे कामता गांव में रणवीर सेना की गुप्त बैठक हुई. वहां धर्मा शर्मा के घर पर बेलसर, चंदा, सोहासा जैसे आसपास के गांवों से 100 से ज्यादा रणवीर सेना के हथियारबंद सदस्य इकट्ठा हुए. बैठक में बारा और अन्य नक्सली हमलों का बदला लेने का फैसला लिया गया. लक्ष्मणपुर बाथे उनके लिए एक सॉफ्ट टारगेट था. क्योंकि वहां विरोध की संभावना कम थी. बैठक के बाद रणवीर सेना के सदस्यों ने हथियार जमा किए और सोन नदी पार करने की योजना बनाई. लक्ष्मणपुर बाथे गांव के लोग इस खौफनाक साजिश से अंजान थे और सोने की तैयारी कर रहे थे.
1 दिसंबर 1997 - 3 घंटे चला था मौत का तांडव
वो ठंडी रात थी, रणवीर सेना के सदस्य नावों में सवार हुए और सोन नदी पार करके लक्ष्मणपुर बाथे पहुंचे. करीब 100 हथियारबंद लोग 14 दलितों के घरों में घुस गए, जहां लोग सो रहे थे. इसके बाद गोलियां चलाईं, कुल्हाड़ियों से वार किए गए. हमलावरों ने महिलाओं और बच्चों को निशाना बनाया. पूरे गांव में चीख पुकार मची थी. कई लोगों के गले काट दिए गए तो कई महिलाओं की छातियां. हर तरफ मौत का नाच था. हमलावरों ने उन नाविकों को भी मार डाला, जिनके साथ वो नदी पार करके गांव में आए थे. ताकि सबूत मिट जाए. इस खूनी वारदात को अंजाम देकर तमाम हमलावर भोजपुर जिले में गायब हो गए. यह हमला सुनियोजित था.
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दरिंदगी का खौफनाक मंजर
ये नरसंहार दिल दहला देने वाला था. मरने वाले 58 लोगों में 27 महिलाएं, 16 बच्चे और 8 गर्भवती महिलाएं शामिल थीं. एक गर्भवती महिला का पेट चीरकर भ्रूण निकाला गया था. वहां मारे गए 16 बच्चों में सबसे छोटा बच्चा महज एक साल का था. पीड़ित भूमिहीन दलित मजदूर थे, जो मजदूरी के अधिकार की मांग रहे थे. गांव में लाशें बिखरीं थीं, खून से सनी लाशें. इस मामले में जानकी पासवान ने बाद में गवाही दी थी. ह्यूमन राइट्स वॉच ने इसे ब्राह्मणवादी व्यवस्था का प्रतीक बताया था. यह न केवल सामूहिक हत्याकांड था, बल्कि पूरे समुदाय को कुचलने का प्रयास था. गांव की महिलाओं के साथ बलात्कार किए जाने के आरोप भी लगे थे. सही कहें तो उस वक्त यह घटना दलित अस्तित्व पर हमला थी.
राष्ट्रीय शर्म बन गया था ये नरसंहार
सुबह होते ही नरसंहार की खबर हर तरफ फैल गई थी, जिसने पूरे देश को हिला दिया था. तत्कालीन राष्ट्रपति के.आर. नारायणन ने इसे 'राष्ट्रीय शर्म' कहा था. प्रधानमंत्री इंद्र कुमार गुजराल और सभी दलों ने इस नरसंहार की निंदा की थी. इस हमले के विरोध में सीपीआई-एमएल ने हड़ताल बुलाई थी. दो दिनों तक लाशों का अंतिम संस्कार नहीं हुआ था. 3 दिसंबर को विनोद मिश्रा समेत कई नेता लक्ष्मणपुर बाथे गांव पहुंचे थे. उसके बाद सोन नदी के तट पर मरने वालों का सामूहिक दाह संस्कार हुआ था. लालू सरकार पर कानून-व्यवस्था की नाकामी के आरोप लगे थे. मीडिया ने इस मामले को व्यापक कवरेज दी थी.
अधर में लटका इंसाफ
लक्ष्मणपुर बाथे नरसंहार के बाद 26 आरोपियों को गिरफ्तार किया गया था, जिनमें रणवीर सेना का पप्पू सिंह भी शामिल था. 1998 में विशेष अदालत में मुकदमा चला. मृतकों के परिजनों की गवाहियों पर आधारित सबूत जुटाए गए. साल 2002 में निचली अदालत ने 16 आरोपियों को दोषी करार देते हुए आजीवन कारावास और 3 को फांसी की सजा सुनाई थी. लेकिन सबूतों की कमी के कारण अपील दर्ज हुई. पटना हाईकोर्ट ने 2013 में सभी 26 आरोपियों को बरी कर दिय था. जिससे दलित संगठनों में आक्रोश फैल गया था. फिर बिहार सरकार ने इस मामले को लेकर सुप्रीम कोर्ट में अपील की, लेकिन इंसाफ अधर में लटका रहा.
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राजनीतिक और सामाजिक हलचल
लक्ष्मणपुर बाथे नरसंहार ने लालू यादव सरकार की छवि को धूमिल किया, जिसे 'जंगलराज' कहा गया. फिर लालू सरकार ने बड़ा कदम उठाया. रणवीर सेना को साल 2000 में प्रतिबंधित कर दिया गया. 1999 के सेनारी नरसंहार में 34 भूमिहारों की हत्या को इसका बदला माना गया. दलित आंदोलन मजबूत हुए, लेकिन हिंसा का सिलसिला जारी रहा. मानवाधिकार संगठनों ने अंतरराष्ट्रीय स्तर पर इस मामले को उठाया. आज भी, गांव में स्मारक बने हैं, लेकिन विकास धीमा है. राजनीतिक दलों ने इस नरसंहार को वोट बैंक के रूप में इस्तेमाल किया.
गहरा असर और बदले की आग
नरसंहार के बाद लक्ष्मणपुर बाथे गांव वीरान हो गया था. कई परिवार वहां से पलायन कर गए थे. शिक्षा और विकास ठप पड़े थे. लेकिन धीरे-धीरे वहां के स्कूल खुले. साल 2023 तक 25वीं वर्षगांठ पर स्मृति सभाएं हुईं. उत्तरजीवी जैसे बौद्ध पासवान भी इंसाफ की लड़ाई लड़ रहे हैं. उन्होंने 7 परिजनों को खोया था. अब बिहार में जातीय हिंसा कम तो हुई है, लेकिन असमानता अब भी कायम है. यह घटना दलित सशक्तिकरण का प्रेरणा स्रोत बनी. पानी और सड़क जैसे मुद्दे अब नए संघर्ष हैं. रणवीर सेना के उस हमले की यादें आज भी डर पैदा करती हैं.
इंसाफ की अधूरी आस
आज भी लक्ष्मणपुर बाथे नरसंहार का मामला सुप्रीम कोर्ट में लंबित है, जहां बिहार सरकार दोबारा सुनवाई की मांग कर रही है. सभी आरोपियों के बरी हो जाने से दलितों में अविश्वास बढ़ा है. यह घटना बिहार की सामाजिक संरचना को दर्शाती है. जानकार इसे प्रोटो-फासीवादी हिंसा कहते हैं. गांव भले ही अब शांत है, लेकिन जख्म गहरे हैं.
परवेज़ सागर